Wednesday, May 26, 2021

हिन्दी - वर्तनी संबंधित नियम

 

               हिन्दी -  वर्तनी संबंधित नियम 


          वर्तनी 


वर्तनी~ लिखने की रीति को वर्तनी या अक्षरी कहते हैं। यह हिज्जे (Spelling) भी कहलाती है। किसी भी भाषा की समस्त ध्वनियों को सही ढंग से उच्चरित करने के लिए ही वर्तनी की एकरूपता स्थिर की जाती है। जिस भाषा की वर्तनी में अपनी भाषा के साथ अन्य भाषाओं की ध्वनियों को ग्रहण करने की जितनी अधिक शक्ति होगी, उस भाषा की वर्तनी उतनी ही समर्थ समझी जायेगी। अतः वर्तनी का सीधा सम्बन्ध भाषागत ध्वनियों के उच्चारण से है।


भारत सरकार के शिक्षा मन्त्रालय की ‘वर्तनी समिति’ ने 1962 में जो उपयोगी और सर्वमान्य निर्णय किये,



(1) हिन्दी के विभक्ति-चिह्न, सर्वनामों को छोड़ शेष सभी प्रसंगों में, शब्दों से अलग लिखे जाएँ। जैसे- मोहन ने कहा; स्त्री को। सर्वनाम में- उसने, मुझसे, हममें, तुमसे, किसपर, आपको।


अपवाद- (क) यदि सर्वनाम के साथ दो विभक्तिचिह्न हों, तो उनमें पहला सर्वनाम से मिला हुआ हो और दूसरा अलग लिखा जाय। जैसे- उसके लिए; इनमें से।


(ख) सर्वनाम और उसकी विभक्ति के बीच ‘ही’, ‘तक’ आदि अव्यय का निपात हो, तो विभक्ति अलग लिखी जाय। जैसे- आप ही के लिए; मुझ तक को।


(2) संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगभूत क्रियाएँ अलग रखी जायँ। जैसे- पढ़ा करता है; आ सकता है।



(3) ‘तक’, ‘साथ’ आदि अव्यय अलग लिखे जायँ। जैसे- आपके साथ; यहाँ तक।


(4) पूर्वकालिक प्रत्यय ‘कर’ क्रिया से मिलाकर लिखा जाय। जैसे- मिलाकर, रोकर, खाकर, सोकर।


(5) द्वन्द्वसमास में पदों के बीच हाइफ़न (-योजकचिह्न) लगाया जाय। जैसे- राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती आदि।


 (6) 'सा' ‘जैसा’ आदि सारूप्यवाचकों के पूर्व हाइफ़न का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे- तुम-सा, राम-जैसा, चाकू-से तीखे।


(7) तत्पुरुषसमास में हाइफ़न का प्रयोग केवल वहीं किया जाय, जहाँ उसके बिना भ्रम होने की सम्भावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे- भू-तत्त्व।


(8) अब, प्रश्र उठता है कि ‘ये’ और ‘ए’ का प्रयोग कहाँ होना चाहिए। यह प्रश्र न केवल विद्यार्थियों को, बल्कि बड़े-बड़े विद्वानों को भी भ्रममें डालता है। जहाँ तक उच्चारण का प्रश्र है, दोनों के उच्चारण-भेद इस प्रकार हैं-

ये=य्+ए। श्रुतिरूप। तालव्य अर्द्धस्वर (अन्तःस्थ)+ए।

ए=अग्र अर्द्धसंवृत दीर्घ स्वर।



‘ये’ और ‘ए’ का प्रयोग अव्यय, क्रिया तथा शब्दों के बहुवचन बनाने में होता है। ये प्रयोग क्रियाओं के भूतकालिक रूपों में होते हैं। लोग इन्हें कई तरह से लिखते हैं। जैसे- आई-आयी, आए-आये, गई-गयी, गए-गये, हुवा-हुए-हुवे इत्यादि। एक ही क्रिया की दो अक्षरी आज भी चल रही है। इस सम्बन्ध में कुछ आवश्यक नियम बनने चाहिए। कुछ नियम इस प्रकार स्थिर किये जा सकते हैं-


(क) जिस क्रिया के भूतकालिक पुंलिंग एकवचन रूप में ‘या’ अन्त में आता है, उसके बहुवचन का रूप ‘ये’ और तदनुसार एकवचन स्त्रीलिंग में ‘यी’ और बहुवचन में ‘यीं’ का प्रयोग होना चाहिए। उदाहरण के लिए, ‘गया-आया’ का स्त्रीलिंग में ‘गयी-गयीं’ होगा, ‘गई’ और ‘आई’ नहीं। इसी प्रकार, बहुवचन के रूप ‘गये-आये’ होंगे, ‘गए-आए’ नहीं। इसी रीति से अन्य क्रियाओं के रूपों का निर्धारण करना चाहिए।


(ख) जिस क्रिया के भूतकालिक पुंलिंग एकवचन के अन्त में ‘आ’ आता है उसके पुंलिंग बहुवचन में ‘ए’ होगा और स्त्रीलिंग एकवचन में ‘ई’ तथा बहुवचन में ‘ई’ । ‘हुआ’ का स्त्रीलिंग एकवचन ‘हुई’, बहुवचन ‘हुई’, और पुंलिंग बहुवचन ‘हुए’ होगा; ‘हुये-हुवे’, ‘हुयी-हुये’ आदि नहीं।


(ग) दे, ले, पी, कर- इन चार धातुओं को ह्रस्व इकार कर, फिर दीर्घ करने पर और ‘इए’ प्रत्यय लगाने पर उनकी विधि क्रियाएँ इस प्रकार बनती हैं-

दे (दि) + ज् + इए =दीजिए

ले (लि) + ज् + इए =लीजिए

पी (पि) + ज् + इए =पीजिए

कर (कि) + ज् + इए =कीजिए


(घ) अव्यय को पृथक् रखने के लिए ‘ए’ का प्रयोग होना चाहिए। जैसे- इसलिए, चाहिए। सम्प्रदान-विभक्ति के ‘लिए’ में भी ‘ए’ का व्यवहार होना चाहिए। जैसे- राम के लिए आम लाओ।


(ङ) विशेषण शब्द का अन्त जैसा हो, वैसा ही ‘ये’ या ‘ए’ का प्रयोग होना चाहिए। जैसे- ‘नया’ है, तो बहुवचन में ‘नये’ और स्त्रीलिंग में नयी; ‘जाता हुआ’ आदि है तो बहुवचन में ‘जाते हुए’ और स्त्रीलिंग में ‘जाती हुई’।

इन नियमों से यह निष्कर्ष निकलता है कि भूतकालिक क्रियाओं में ‘ये’ का और अव्ययों में ‘ए’ का प्रयोग होता है। विशेषण का रूप अन्तिम वर्ण के अनुरूप ‘ये’ या ‘ए’ का प्रयोग होता है। विशेषण का रूप अन्तिम वर्ण के अनुरूप ‘ये’ या ‘ए’ होना चाहिए। अच्छा यह होता है कि दोनों के लिए कोई एक सामान्य नियम बनता। भारत सरकार की वर्तनी समिति ‘ए’ के प्रयोग का समर्थन करती है।


(9) संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी में सामान्यतः संस्कृतवाला रूप ही रखा जाय। परन्तु, जिन शब्दों के प्रयोग में हिन्दी में हलन्त का चिह्न लुप्त हो चुका है, उनमें हलन्त लगाने की कोशिश न की जाय; जैसे- महान, विद्वान, जगत। किन्तु सन्धि या छन्द समझाने की स्थिति हो, तो इन्हें हलन्तरूप में ही रखना होगा; जैसे- जगत्+नाथ।


(10) जहाँ वर्गों के पंचमाक्षर के बाद उसी के वर्ग के शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो वहाँ अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाय; जैसे- वंदना, नंद, नंदन, अंत, गंगा, संपादक आदि।


(11) नहीं, मैं, हैं, में इत्यादि के ऊपर लगी मात्राओं को छोड़कर शेष आवश्यक स्थानों पर चन्द्रबिन्दु का प्रयोग करना चाहिए, नहीं तो हंस और हँस तथा अँगना और अंगना का अर्थभेद स्पष्ट नहीं होगा।


(12) अरबी-फारसी के वे शब्द जो, हिन्दी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिन्दी ध्वनियों में रूपान्तर हो चुका है, उन्हें हिन्दी रूप में ही स्वीकार किया जाय। जैसे- जरूर, कागज आदि। किन्तु, जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो, वहाँ उनके हिन्दी में प्रचलित रूपों में यथास्थान ‘नुक्ते’ लगाये जायँ, ताकि उनका विदेशीपन स्पष्ट रहे। जैसे- राज़, नाज़।

(13) अंग्रेजी के जिन शब्दों में अर्द्ध ‘ओ’ ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध रूप का हिन्दी में प्रयोग अभीष्ट होने पर ‘आ’ की मात्रा पर अर्द्धचन्द्र का प्रयोग किया जाय। जैसे- डॉक्टर, कॉलेज, हॉंस्पिटल।


(14) संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाय। जैसे-स्वान्तःसुखाय, दुःख। परन्तु, यदि उस शब्द के तद्भव में विसर्ग का लोप हो चुका हो, तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जायेगा। जैसे-दुख, सुख।


(15) हिन्दी में ‘ऐ’ (ै) और ‘औ’ (ौ) का प्रयोग दो प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए होता है। पहले प्रकार की ध्वनियाँ ‘है’, ‘और’ आदि में हैं तथा दूसरे प्रकार की ‘गवैया’, ‘कौआ’ आदि में। इन दोनों ही प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए इन्हीं चिह्नों ( ऐ, ौ ; ओ, ौ ) का प्रयोग किया जाय। गवय्या, कव्वा आदि संशोधनों की व्यवस्था ठीक नहीं है।


 






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