रघुवंश (संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' का हिन्दी रूपान्तर) महाकवि कालिदास /2
रघु की अग्नि-परीक्षा
कुछ दिन पश्चात् रानी सुदक्षिणा गर्भवती हुई। जैसे प्रभातकाल के समीप आने पर चन्द्रमा के प्रकाश से प्रकाशित रात्रि के आकाश पर पीलापन छा जाता । उसी प्रकार सुदक्षिणा के चेहरे पर भी लोधपुष्प का-सा पीलापन आने लगा। मी ऋतु के सूखे हुए तालाब की मिट्टी में वर्षा की बूंदों से जो सुगन्ध उत्पन्न होने है, उसे सूंघकर जैसे जंगली हाथी प्रसन्न होता है, वैसे ही रानी के मुंह से मिली की बास लेकर राजा प्रसन्न होता न थकता था। मानो रानी यह सोच रही हो कि मेरी कोख से जो राजकुमार जन्म लेगा, उसे पृथ्वी का ही तो उपभोग करना है।
यह मुझसे लज्जावश स्वयं कुछ न कहेगी, तुम बतलाओ कि यह क्या चाहती है-इस प्रकार सहेलियों से पूछ-पूछकर राजा सुदक्षिणा की इच्छाओं को तत्काल पूरा कर देता था। तीनों लोकों में ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जो पराक्रमी धनुर्धारी के लिए दुर्लभ हो। क्रम से सुदक्षिणा की प्रारम्भिक क्षीणता दूर होने और पूर्णता की सुन्दरता आने लगी। मानो पुराने पत्तों के झड़ जाने पर नई सुंदर कोपलें लता पर आ गई हों। राजा ने पुरोहितों से यथासमय पुंसवनादि संस्कार विधिपूर्वक कराए। दसवें मास में चिकित्सा के जानने वाले कुशल वैद्यों द्वारा गर्भपोषण की प्रक्रिया हो जाने पर, बादलों से भरे हुए अन्तरिक्ष की भांति परिपूर्ण पत्नी को देख कर राजा ने अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव किया।
अच्छे मुहूर्त में, जब पांचों ग्रह अनुकूल थे, शची-समान राजपत्नी ने पुत्ररत्न को उसी प्रकार जन्म दिया, जैसे प्रभाव, उत्साह और मंत्रणा से सम्पन्न शक्ति अनश्वर सम्पत्ति को जन्म देती है। उस समय दिशाएं खिल उठीं, सुखकारी पवन बहने लगा, यज्ञाग्नि चारों ओर लपटों को फैलाकर यज्ञ की सामग्री गहण करने लगी-इस प्रकार उस क्षण में सभी कुछ कल्याण की सूचना देने लगा। ऐसे महापुरुषों का जन्म संसार के लिए ही होता है। जिस समय सूतिकागृह में उस नवजात को बिस्तर पर लिटाया गया तो उसके उग्र तेज के सामने रात के समय जलने वाले दीपक मन्द पड़ गए, मानो दीवार पर दीपकों के केवल चित्र वने हुए हों महलों से आकर जिन परिचारकों ने पुत्र जन्म का शुभ समाचार सुनाया, महाराज ने उन्हें चन्द्र के समान उज्ज्वल राजच्छत्र और शाही चामरों को छोड़कर अन्य जो कुछ भी उन्होंने मांगा, देने में संकोच नहीं किया। जिस समय राजा दिलीप ने पुत्र के चन्द्र-समान सुंदर मुख को एकटक दृष्टि से देखा, उस समय उसके हृदय-रूपी सागर में प्रसन्नता का तूफान-सा उमड़कर किनारे की सीमा को पार रहा था। ऋषि वसिष्ठ ने वन से आकर कुमार के जातकर्म-सम्बन्धी सब 1. संस्कार विधिपूर्वक कराए। जिस प्रकार खान में से निकले हुए रत्न को पत्थर पर घिसने से आभा बढ़ती है, संस्कारों से कुमार की आभा भी उसी प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि पाने लगी। उस अवसर पर, केवल सम्राट दिलीप के घर पर ही नहीं, अपित देवताओं के विहार-स्थान अन्तरिक्ष में भी मंगलमय मधुर बाजे बजने लगे और अप्सराएं प्रसन्नता से नृत्य करने लगीं। प्रायः राजा लोग ऐसे उत्सवों पर कैदियों को छोड़ देते हैं, पर उसके राज्य में तो कोई कैदी ही नहीं था। हां, वह स्वयं ही अपने पूर्व-पुरुषों के विद्यमान पितृऋण से मुक्त हो गया।
'रघु' शब्द का अर्थ है-जाने वाला। यह बालक विद्यारूपी समुद्र को पार करे और शत्रुओं के अन्त तक जा पहुंचे-इसी संकल्प से राजा ने उसका नाम 'रघु' रखा। जिस प्रकार शिव और पार्वती कुमार के जन्म से तथा इन्द्र और शची जयन्त के जन्म से प्रसन्न हुए थे, दिलीप और सुदक्षिणा भी रघु के जन्म से उसी प्रकार प्रसन्न हुए। उन दोनों का चकवा-चकवी का-सा हार्दिक प्रेम, जो पहले ही बहुत गहरा था, पुत्र में एकत्र होकर और भी अधिक गहरा हो गया। रघु चन्द्रमा की कलाओं की भांति प्रतिदिन वृद्धि पाने लगा। पहले वह धाय की अंगुली पकड़ कर चलने लगा और उसके अनुकरण में शब्द बोलने लगा, फिर अपने समान आयु वाले अमात्य-पुत्रों के साथ मिलकर लिपि सीखने लगा जैसे नदीरूपी मुख से अनेक प्रकार के पदार्थ समुद्र में पहुंच जाते हैं, उसी प्रकार लिपि द्वारा रघु ने भी विद्या रूपी महासमुद्र में प्रवेश किया। कुछ समय पीछे उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, जिसके पश्चात्गु रुजनों ने उसे विधिपूर्वक शिक्षा देना आरम्भ कर दिया।
रघु ने बड़े परिश्रम से अध्ययन किया। जैसे सूर्य अपनी किरणों के बल से चारों दिशाओं को पार कर लेता है, वैसे रघु ने भी बुद्धिबल से समुद्र के समान विस्तीर्ण चारों विद्याओं को पार कर लिया। अस्त्र-शिक्षा तो उसने अपने पिता से ही प्राप्त की। ब्रह्मचारियों के योग्य मृगछाला पहनकर वह पिता से ही शस्त्रास्त्र-विद्या सीखता था, क्योंकि उसका पिता केवल पृथ्वी का प्रमुख शासक ही नहीं था, वह सर्वोत्कृष्ट धनुर्धारी भी था। धीरे-धीरे रघु के बचपन से यौवन फूटने लगा, जिससे उसका शरीर सुन्दर और गम्भीर दिखाई देने लगा-मानो बछड़ा विशाल बैल की पदवी को छू रहा हो, मानो हाथी का बच्चा गजराज के रूप में परिणत हो रहा हो। समय अनुकूल देखकर राजा ने रघु का दीक्षान्त-संस्कार किया, और विधिपूर्वक विवाह कर दिया। अब तो रघु की कलाएं प्रतिदिन बढ़ने लगीं। जब उसका जवानी से भरा हुआ शरीर लम्बे और बलिष्ठ बाहु, उभरे हुए कंधे और विशाल वक्षस्थल दृष्टिगोचर होते थे, तब दिलीप का शरीर छोटा प्रतीत होने लगता था। परन्तु जब रघु की आंखों पर दृष्टि पड़ती थी, तब वे पिता के सामने सदा झुकी हई दिखाई देती थीं। उचित अवसर देखकर, सम्राट् दिलीप ने अपने कन्धों का बोझ हल्का करने के लिए रघु को युवराज के पद से विभूषित कर दिया। इससे उसकी शक्ति और भी अधिक असह्य हो गई, मानो अग्नि को 1. वायु की सहायता मिल गई हो, मानो बादलों के हट जाने से सूर्य का तेज चमक उठा हो और मानो गण्डस्थल से मद फूट पड़ने के कारण हाथी का बल बढ़ गया हो।
चक्रवर्ती आर्य राजाओं की पद्धति का अनुकरण करते हुए, रघु को युवराज के पद पर नियुक्त करके सम्राट् दिलीप ने सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प किया। अश्व की रक्षा का कार्य युवराज रघु और उसके अनुयायी राजपुत्रों की सेना को सौंपकर राजा यज्ञ करने में संलग्न हो गया। इस प्रकार निन्यानवे अश्वमेध यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधा के पूरे कर लिए । जब सौंवी बार अश्वमेध का घोड़ा दिग्विजय के लिए निकाला तो युवराज और उसके धनुर्धारियों ने आश्चर्य से देखा कि अकस्मात् उनके सामने से घोड़ा लुप्त हो गया है। कुमार की सेना घबराकर रुक गई। कुमार भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसी समय नन्दिनी धेनु मानो कुमार के संकट को टालने के लिए वहां आ पहुंची। रघु ने उसे दैवी संदेश समझकर नन्दिनी के अंगजल से अपनी आंखों को धो डाला। धोने पर उसकी आंखें परोक्ष को देखने लगी, जिससे उसने क्या देखा कि स्वयं स्वर्ग के राजा इन्द्र यज्ञ के घोड़े को लिए जा हैं। घोड़ा बार-बार छूटने की चेष्टा कर रहा है और इन्द्र का सारथि उसे रोक रहा है। हरे रंग के सौ घोड़ों और सौ चक्षुओं वाले देवराज को कुमार ने आसानी से पहचान लिया, और आकाश-मण्डल को गुंजा देने वाले गम्भीर स्वर से उन्हें मानो पीछे लौटाते हुए कहा हे देवताओं के राजा, यज्ञ का भाग प्राप्त करने वाले देवताओं में सबसे पहला स्थान आप ही का है। मेरे पिता निरन्तर यज्ञ करने में संलग्न हैं आश्चर्य की बात है कि आप ही उसमें विष्नकारी हो रहे हैं। आप त्रिलोकी के रक्षक हैं। जो लोग यज्ञ का नाश करते हैं, दिव्यदृष्टि से आप ही उनका नियन्त्रण करते हैं। यदि आप ही धर्मात्मा लोगों के कार्यों में विघ्नकारी बनने लगेंगे, तो धर्म कहां रहेगा? इस कारण भगवन् यज्ञों के अंग इस अश्व को आप छोड़ दीजिए। मनुष्यों को वेदमार्ग दिखलाने वाले आप जैसे महानुभावों को मलिन मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। য के इस प्रगल्भ वचन को सुनकर देवराज ने अपने रथ को लौटा दिया और उत्तर दिया हे राजपुत्र, तुमने जो बात कही, वह ठीक ही है, परन्तु यशस्वी पुरुषों को की रक्षा भी तो करनी चाहिए।
अपने यश तुम्हीं देखो कि सारे संसार के सामने तुम्हारा पिता यज्ञों द्वारा मेरे यश को धुंधला करने की तैयारियां कर रहा है। जैसे संसार में केवल एक विष्णु हैं और एक महादेव हैं, उसी प्रकार से सौ यज्ञ करने वाला शतक्रतु भी एक मैं ही हूँ। किसी दूसरे व्यक्ति को इस पद को प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। इस कारण मैंने तुम्हारे पिता के घोड़े का अपहरण कर लिया। जैसे सगर की सन्तान, कपि मुनि के समीप अश्व के लिए जाकर भस्मसात हो गई थी, तुम भी वैसे ही दुस्साहस मत करो।
इन्द्र वचन को सुनकर कुमार ने निर्भयतापूर्वक हँसते हुए कहा-यदि आपका यही निश्चय है तो अपना हथियार संभालिए। रघु को विजय किए बिना आप यज्ञ के घोड़े को नहीं ले जा सकेंगे। रघु ने धनुष में तीर लगाने के लिए तूणीर की ओर हाथ बढ़ाया। रघु के चलाए बलवान तीर की हृदय पर चोट खाकर देवराज का कोप भी भड़क उठा और उसने नए बादलों पर शोभायमान होनेवाले इन्द्रधनुष के सदृढ़ विशाल और सुन्दर धनुष पर अमोघ बाण चढ़ाया। देवराज का बाण रघु की छाती पर आकर बैठा। उसे अब तक राक्षसों के रूधिर पीने की आदत थी उसने पहली बार मानो बड़ी उत्सुकता से मनुष्य का रक्त पिया। इस पर कुमार का रोष भी प्रचण्ड हो गया और उसने देवराज की उस भुजा पर जिसकी अंगुलियां ऐरावत के अंकुश से कठोर हो गई थीं और जिस पर देवों की महारानी शची द्वारा बनाए हुए मांगलिक चिह्न विद्यमान थे, अपने नाम से अंकित तीर आरोपित कर दिया। साथ ही कुमार ने मोर के पंख के समान आकृति वाले एक बाण से इन्द्र की वजांकित ध्वजा को काट डाला। उससे तो देवराज को ऐसा अनुभव होने लगा, मानो देवताओं की श्री ललना के केशों पर हाथ डाला गया हो। युद्ध की भीषणता और भी बढ़ गई। आकाश में विमानों पर बैठे हुए देवगण और पृथ्वी पर से सैनिक लोग उन दोनों विजय की इच्छा रखने वाले वीरों के अद्भुत युद्ध को आश्चर्यपूर्वक देख रहे थे इन्द्र और रघु के धनुष से निकले हुए, क्रमशः नीचे बरसने और ऊपर जाने वाले तीरों से अन्तरिक्ष आच्छादित हो गया।
जैसे अपनी विद्युत से लगाई जंगल की अग्नि को बुझाने में स्वयं वादल असमर्थ हो जाता है, उसी प्रकार अनेक शास्त्रास्त्रों का प्रयोग करके भी देवराज कुमार को परास्त न कर सके। उसी समय कुमार के धनुष से निकले हुए अर्द्धचन्द्राकार बाण ने इन्द्र की तूफानी समुद्र के समान गम्भीर गर्जना करती हुई प्रत्यंचा को मुठ्ठी के पास से काट दिया। तब तो देवराज का क्रोध अत्यन्त उग्र हो गया। वज्रधर ने धनुष को नीचे रख दिया और अपनी चोट से पर्वतों के पहलुओं को तोड़ने वाले, चमकते हुए प्रकाश पुंज वज्र को हाथ में ले लिया। जब देवराज का वज़ रघु की छाती पर लगा, तो सैनिकों के आंसुओं के साथ कुमार भी क्षण-भर के लिए पृथ्वी पर गिर गया, परन्तु अभी आंसू पूरी तरह पृथ्वी पर पहुंच भी नहीं पाए थे कि सैनिकों के गगनभेदी जयनादों के साथ रघु भी उठकर खड़ा हो गया। कुमार के इस अपूर्व बल और साहस को देखकर इन्द्र का कोप शांत हो गया। मनुष्य अपने गुणों से ही ऊँचा पद प्राप्त कर सकता है।
तब संतुष्ट होकर वज्रपाणि ने रघु से कहा --
हे कुमार, मेरे जिस वज्र के आघात को चट्टानें भी नहीं सह सकतीं, उसे तूने सह लिया। मैं तेरे बल और साहस से प्रसन्न हुआ हूं। बता घोड़े के अतिरिक्त तू क्या चाहता है। उस समय रघु का हाथ तूणीर पर था, जिसमें से सुनहरी नोक वाला बाण आधा निकल चुका था और उसकी फलक से कुमार की अंगुलियां सुनहरी हो रही थीं। देवराज की बात सुनकर कुमार ने हाथ को वहीं थाम लिया, और मीठे स्वर में इन्द्र से कहा-हे प्रभो, यदि आप यज्ञ के अश्व को छोड़ना उचित नहीं समझते तो मेरी प्रार्थना है कि विधिपूर्वक यज्ञ-समाप्ति पर मेरे पिता को यज्ञ के सम्पूर्ण फल का भागी बना दीजिए, ताकि अश्व के न लौटने पर भी यज्ञ सर्वांग-सम्पन्न समझा जाए। एक कृपा और कीजिए कि इस सारी घटना का समाचार अपने दूत द्वारा महाराज तक ऐसे अवसर पर पहुंचा दीजिए, जब वे सभा में विराजमान हों।
गाना ही होगा-कहकर देवराज स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान हो गए और कुछ उदासचित्त से सुदक्षिणा का वीर पुत्र भी अपने घर की ओर लीटा । महाराज को सब समाचार इन्द्र के दूत से प्राप्त हो चुके थे। जब रघु घर पहुंचा तो महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक अत्यन्त शीतल हाथों से उसके वज्र द्वारा आहत अंगों का स्पर्श किया।
इस प्रकार राजा दिलीप ने निन्यानवे यज्ञ पूर्ण करके मानो मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग तक पहुंचने के लिए निन्यानवे सीढ़ियां तैयार कर लीं। राजा का चित्त सांसारिक झंझटों से विरक्त हो चुका था। रघुकुल की मर्यादा के अनुसार दिलीप ने अपने छत्र और चामर वीर पुत्र को सौंप दिए, और देवी सुदक्षिणा को साथ ले, तपोवन के वृक्षों की शीतल और शान्त छाया का आश्रय लिया।
दिग्विजय
सन्ध्या के समय, अस्ताचलगामी सूर्य द्वारा दिए गए तेज को प्राप्त करके जैसे आग अधिक उज्ज्वल हो जाती है, उसी प्रकार अपने पिता से शासन का अधिकार प्राप्त करके रघु चमक उठा। उधर अन्य शासकों के हृदयों में, दिलीप के गौरव को देखकर प्रतिस्पर्धा की जो आग केवल सुलग रही थी, रघु के सिंहासनारूढ़ होने पर ड़क उठी। उस वीर ने पिता के सिंहासन पर और शत्रुओं के मस्तक पर एक ही समय में पैर रखा। राज्याभिषेक के समय जो छत्र रघु के सिर पर छाया गया, वह मानो साक्षात् लक्ष्मी ने अपने परोक्ष हाथों से धारण किया हो । जब चारण लोग उसकी स्तुति के गीत गाते थे, तब प्रतीत होता था कि उनकी वाणी के बहाने स्वयं सरस्वती उपस्थित हुई हैं। जैसे दक्षिण का वायु न बहुत शीतल होता है न बहुत गर्म, उसी प्रकार रघु प्रजा के लिए उचित दण्ड देने के कारण न अत्यन्त उग्र था और न बहुत ढीला। जब आम के पेड़ पर फल आ जाता है तब लोग उसके बौर को भूल जाते हैं। रघु के गुणों से भी दिलीप की स्मृति प्रजा के हृदयों में हलकी होने लगी। युद्ध के क्षेत्र के समान नीति के क्षेत्र में भी वह असाधारण प्रतिभा रखता था। उसके मन्त्री लोग जब कोई सलाह देते थे, तो वह पूर्वपक्ष ही रहता, निर्णायक उत्तरपक्ष रघु का ही होता था । जैसे प्रहर्षक होने के कारण निशानाथ चन्द्र और तेजस्वी होने के कारण सूर्य तपन कहलाता है, वैसे ही प्रजा के जन के कारण रघु का 'राजा' नाम सार्थक था। यद्यपि उसकी भौतिक आंखें विशालता के कानों को छू रहीं थीं, परन्तु उसके असली नेत्र तो शास्त्र थे, जिनसे वह सूक्ष्म समस्या की तह तक पहुंच जाता था।
इस प्रकार अपने पराक्रम और बुद्धिबल से उसने राज्य में शान्ति की स्थापना कर दी; मानो उसके बढ़ते हुए प्रताप पर साधुवाद देने के लिए कमलों की भेंट लेकर शरदऋतु के रूप में स्वयं राज्यश्री पृथ्वी पर उतर आई। बादल हट गए. आकाश स्वच्छ हो गया, जिससे रघु का और सूर्य का प्रताप एक साथ निर्विघ्न रूप से दिशाओं में व्याप्त होने लगा। इन्द्र देवता ने वर्ष-भर के लिए अपने धनुष इन्द्रधनुष को खींच लिया, और रघु ने अपना धनुष हाथ में लिया। प्रजा की रक्षा के लिए वे दोनों ही धनुर्धारी बारी-बारी से तैयार रहते थे शीतक्रतु की रात में छिटकती हुई चांदनी और रघु के सदा प्रसन्न चेहरे को देखकर प्रजाजनों के हृदय प्रसन्नता का अनुभव करते थे। हंसों की पंक्तियों में, टिमटिमाते हुए तारों में, कुमुदिनी के फूलों और नदियों के स्वच्छ जल में मानो उसके यश की श्वेत आभा छिटक रही थी। ईख की छाया में आराम करने वाली खेतों की निश्चिन्त निर्भय रखवालियां उस प्रजा-रक्षक के बच्चे-बच्चे तक फैले हुए यश का गान करती थीं। शीतऋतु में अगस्त्य के उदय से जल प्रसन्न होने लगा पर रघु के अभ्युदय से शत्रुओं के मन कलुषित होने लगे। इस प्रकार पूरी सजधज के साथ आकर शीतऋतु ने नदियों को उथला कर दिया और रास्तों के कीचड़ को सुखाकर सुगम बना दिया, जिससे शक्ति के अभिलाषी रघु हृदय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा उत्पन्न हो गई।
विजय-यात्रा का संकल्प कर लेने पर रघु ने अश्वमेध की मांगलिक विधि का आयोजन किया, जिसमें अग्निदेवता ने यज्ञ-ज्वालाओं की भुजाओं से उसे विजयी होने का आशीर्वाद दिया। उसके पश्चात् रघु ने राजधानी की सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध किया, मार्ग की सुरक्षा के लिए राजभक्त और शक्तिसम्पन्न सेनाएं नियुक्त कीं और गुरुजनों से आशीर्वाद प्राप्त किया। तब उसने अपनी सर्वांगसम्पन्न सेना की कमान संभाली और दिग्विजय की यात्रा का डंका बजा दिया।
जैसे क्षीरसमुद्र की लहरें दूध की फुहार से विष्णु भगवान् की पूजा करती हैं, उसी प्रकार नगर की वृद्ध महिलाओं ने लाजों की वर्षा करके विजय-यात्रा समय उसका अभिनन्दन किया।
रघु ने दिग्विजय की यात्रा का आरम्भ पूर्व दिशा से किया। उसकी सेनाएं जब ऊंची लहराती हुई ध्वाजाओं से शत्रुओं को ललकारती हुई राजधानी से निकलीं, तब रथों के पहियों और मेघों के समान विशाल तथा काले हाथियों के पैरों से उठी हुई धूल के कारण आकाश पृथ्वी के समान और पृथ्वी आकाश के समान प्रतीत होने लगी। राजा की मानवी सेना के साथ-साथ मानो एक और चतुरंगिणी सेना भी चली-आगे-आगे राजा का प्रताप, उसके पीछे सेना का सिंहनाद, फिर सेना से उठी हुई धूल और अन्त में रथादि। राजा के दृढ़ निश्चय और शक्ति के सामने मरुस्थलों में जल बहने लगा, बड़ी-बड़ी नदियाँ उथली हो गई और बड़े-बड़े जंगल सपाट मैदान बन गए। पूर्व की ओर उमड़ती हुई सेना का नेतृत्व करता हुआ रघु ऐसे शोभायमान हो रहा था, जैसे महादेव के जटाजूट से बहती गंगा की धारा का प्रदर्शन करता हुआ भगीरथ। जैसे मस्तहाथी जंगल के जिस मार्ग से गुजर जाता है, वहां वृक्षों के बिखरे हुए फल, उखड़ी हुई जड़ें और टूटे हुए तने ही शेष दिखाई देते हैं, वैस ही रघु जिन देशों से आगे बढ़ता गया, उनमें परास्त और झुके हुए राजवंशों के खंडहर ही दृष्टिगोचर होते थे पूर्व दिशा के देशों को जीतता हुआ विजेता रघु आगे ही आगे बढ़ता गया, यहां तक कि उसकी सेनाएं नारियल के वनों से श्यामल समुद्र-तट पर जा पहुंचीं। अकड़कर खड़े होनेवाले पेड़ों का मानभंग करने वाले उस सेनापति के सामने बेंत की भांति सिर झुकाकर सुह्य देशवासियों ने अपनी प्राणरक्षा की । रघ ने और आगे बढ़ कर नौकाओं की सहायता से युद्ध के लिए उद्यत बंग लोगों को पछाड़ा और गंगा की मध्यवर्ती धाराओं के द्वीपों में अपनी विजय-ध्वजाएं गाड़ दीं। जैसे एक खेत से उखाड़कर दूसरे खेत में लगाने पर, उत्कृष्ट वासुमती धान के पौधे बालों के बोझ से अधिक झुक जाते हैं, उसी प्रकार जब रघु ने बंगों को उखाड़कर फिर से जमा दिया तो उन्होंने रघु के चरणों तक झुककर अधीनता स्वीकार कर ली। यहां उसके मार्ग में कपिशा नाम की नदी आई।
उसपर उसने हाथियों का पुल बनाया और उससे पार होकर उत्कल के राजाओं द्वारा दिखलाए हुए मार्ग से कलिंग देश की ओर प्रयाण किया मार्ग में महेन्द्र पर्वत आया। जैसे हठीले हाथी को वश में लाने के लिए हाथीवान उसके मस्तक पर अंकुश आरोपित करता है, उसी प्रकार रघु ने महेन्द्र की चोटी पर अपने प्रताप की ध्वजा गाड़कर प्रभुत्व की स्थापना की। कलिंग देश के शासक ने हाथियों की सेना और शस्त्रास्त्रों से रघु का उसी प्रकार स्वागत किया जैसे पंखों को काटने को आए इन्द्र का स्वागत पर्वतों ने शिलाओं से किया था। शत्रुओं के पैने बाणों की वृष्टि से राजा का जो स्नान हुआ, वही मंगल-स्नान बन गया। उससे प्रादुर्भूत विजय-श्री ने राजा के गले में विजय का हार पहना दिया। विजय प्राप्त करने के पश्चात् रघु के योद्धाओं ने महेन्द्र पर्वत पर ताम्बूलों के पत्तों के दोनों से नारियल की सुरा और कीर्ति-दोनों का साथ-साथ पान किया। कर्लिंगराज को परास्त करके धर्मी विजेता ने उसका देश उसी को वापस कर दिया। उसने केवल उसकी राज्यश्री का अपहरण किया, राज्य का नहीं। कलिंग-विजय के पश्चात् आशातीत सफलताओं से विभूषित रघु ने फूलों से लदे हुए सुपारी के वृक्षों से शोभायमान समुद्रतट के रास्ते से दक्षिण की ओर प्रयाण किया। मार्ग में कावेरी नदी पड़ी। राजा की सेना के मस्तक-जल से सुगंधित होकर जब नदी का जल नदियों के स्वामी समुद्र की गोद में पहुंचा, तो वह शकित-सा हो गया।
दिग्विजय की इच्छा से आगे बढ़ता हुआ रणु मलयादि की तराई में जा पहुंचा। वहां उसकी सेनाओं ने छावनी डाली, तो घबराए हुए हारीत पक्षी बांसों के घने जंगलों में भटककर इधर-उधर उड़ने लगे। सेना के घोड़ों ने इलायची के पौधों को रौंद डाला तो उससे सुगन्धि की
जो रेणु आकाश में फैली, वह मस्त हाथियों के स्वभावतः सुगन्धित मदवाले गण्डस्थलों पर पड़कर एकीभूत हो गई। पांव के बन्धन को तोड़कर भागनेवाले हाधियों ने जब चन्दन के पेड़ों से अपनी गर्दन को रगड़ा वहां सांपों के लिपटने से गड्ढे बने हुए थे, अतः तब उनके गले के बन्धन टूटे नहीं। जिस दक्षिण दिशा में जाकर सूर्य का तेज भी मन्द हो जाता है, रघु के बहां पहुंचने पर पाण्ड्य जाति के लोग प्रताप को न सह सके और समुद्र तथा ताम्रपर्णी नदी से एकत्र किए हुए अपने चिरसंचित यश के समान उज्ज्वल मोतियों की भेंट लेकर सेवा में उपस्थित हुए। आगे बढ़कर रघु ने दक्षिण दिशा के सह्य पर्वत में प्रवेश किया परशुराम के द्वारा सह्य पर्वत से दूर हटाया गया समुद्र भी, किनारे-किनारे जानेवाली रघु की सेनाओं के कारण पर्वत से लगा हुआ प्रतीत हो रहा था। विजेता की सेना के समीप आने पर घबराहट के कारण केरल की स्त्रियों को केसरादि फूलों से केशों का श्रृंगार करने का होश न रहा तो सेनाओं की धूल ही सिर के श्रृंगार का साधन बन गई। केतकी के फूलों का रज, मुरला नदी का स्पर्श करनेवाले वायु के झोंकों द्वारा जब रघु की सेनाओं के वस्त्रों पर पड़ा तो उसने वहां इत्र-फुलेल का काम दिया। आगे बढ़ते हुए सैनिकों और घोड़ों के कवचों की सम्मिलित ध्वनि इतनी ऊँची हुई कि राजताली जंगल में गूंजती हुई हवा की ध्वनि उससे परास्त हो गई। पुन्नाग के फूलों पर मंडराते हुए भौरे खजूर के तने से बंधे हुए हाथियों के बहनेवाले मद की सुगन्ध से आकृष्ट होकर उनके गण्डस्थलों पर टूट पड़े। जिस समुद्र ने मांगने पर परशुराम को अपना किनारा खाली कर दिया था, उसने बिना मांगे ही अपने द्वीप राजा द्वारा दिए गए कर के बहाने से रघु की सेवा में भेंट स्वरूप उपस्थित किए। त्रिकूट पर्वत की चट्टानों पर रघु की सेना के मस्त हाथियों ने दांतों से जो निशान बनाए, उनसे मानो वह पर्वत ही विजेता का जयस्तम्भ बन गया।
वहां से वह संयमी, पारसीक लोगों को जीतने के लिए स्थल के मार्ग से रवाना हुआ-जैसे योगी इन्द्रिय नाम के शत्रुओं को तत्वज्ञान से जीतने के लिए सन्नद्ध होता है। जैसे बरसात के अतिरिक्त अन्य त्रातुओं में सूर्य की प्रातःकालीन किरणें पद्मों को कुम्हला देती हैं, उसी प्रकार रघु के प्रताप ने ययन-स्त्रियों के सुरागन्ध वाले मुखकमलों को मुरझा दिया। पश्चिम के घुड़सवार योद्धाओं से उसका ऐसा घोर युद्ध हुआ कि धूल में लड़नेवालों का अनुमान धनुष की टंकार से ही किया जा सकता था। काली काली मधुमक्खियों से सने हुए शहद के समान दीखनेवाले यवन लोगों के दढ़ियल चेहरों को काट-काटकर उसने पृथ्वी को ढक दिया। अन्त में वे मुकुट उतार कर उसके चरणों में झुक गए। महापुरुषों का क्रोध तभी तक रहता है, जब तक दूसरा न झुक जाए। वहां रघु के विजयी योद्धाओं ने अंगूर के झुरमुटों में बहुत उत्कृष्ट मृगछालाओं पर लेटकर और अंगूरी शराब पीकर अपनी थकान को उतारा।
उसके पश्चात् सूर्य के समान तेजस्वी रघु ने उत्तर दिशा के जलसदृश निवासियों को सुखाकर नामशेष कर देने के लिए प्रयाण किया। काश्मीर में सिन्धु नदी के तट पर लौटकर विजेता के अश्वों ने अपनी थकान को दूर किया, और उसने उनके कन्धों पर जो केसर लग गया-उसे झकझोरकर उतार दिया। रघु ने हूण योद्धाओं को परास्त करके उनकी स्त्रियों को वैधव्य-दुःख दिया, वह रो-पीटकर लाल हुए उनके कपोलों से व्यक्त होता था। कम्बोज देश के निवासी विजेता के प्रताप को न सह सके और रघु की सेना के हाथियों के रस्सों से बंधने के कारण झुके हुए अखरोट के पेड़ों के साथ वे भी झुक गए। कम्बोज लोग बहुत-साधन और देश के प्रसिद्ध घोड़ों की जो भेंट लेकर बार-बार रघु की सेवा में उपस्थित हुए, उसे तो रघु ने अपने खजाने में प्रवेश दे दिया परन्तु विजय से उत्पन्न होनेवाले अभिमान को हृदय में प्रवेश नहीं दिया।
कम्बोज को जीतने के पश्चात् अश्वों के खुरों से उठे हुए गेरू आदि धातुओं के रज से शिखरों की ऊँचाई को मानो और अधिक बढ़ाते हुए राजा रघु ने हिमालय पर चढ़ाई बोल दी। सेनाओं के कोलाहल से जागे हुए राजा रघु ने हिमालय पर चटाई कर दी। सेनाओं के कोलाहल से जागे हुए गुफावासी सिंहों ने केवल गर्दन फेरकर बाहर की ओर देखा, मानो कह रहे हों कि तुमसे निर्बल नहीं, जो डरें। भूर्जपत्रों की मर्मरध्वनि और बांसों के जंगलों में गूंज पैदा करनेवाले गंगाजल के सम्पर्क से शीतल पवनों ने हिमालय की चोटियों पर रघु का स्वागत किया। उसके सैनिकों ने कस्तूरी के संसर्ग से सुगन्धित शिलाओं पर बैठकर और नमेरु वृक्षों की छाया में सुस्ताकर अपनी थकान को उतारा। वहां राजा की सेनाओं का पहाड़ी जातियों से युद्ध हुआ। उस युद्ध में फेंके गए बाणों और शिलाओं से जो संघर्ष हुआ उससे आग की चिनगारियां चारों ओर फैल रही थीं। रघु से परास्त होकर उत्सव प्रिय लोग अपने उत्सवों को भूल गए और किन्नरगण उसी के विजयगीत जाने लगे। पहाड़ी लोग जब बहुमूल्य रत्नों की भेंट लेकर राजा की सेवा में उपस्थित हुए, तब राजा ने हिमालय की और हिमालय ने राजा की शक्ति को ठीक-ठीक पहचाना। आगे कैलास पर्वत आरम्भ होता था। उसे तो रावण जैसा राक्षस भी हिला देगा, मानो इसी विचार से रघु ने उसे छोड़ दिया और हिमालय से नीचे उतर आया।
उसके पश्चात् रघु ने लौहित्य नदी को पार किया। तब तो प्राग्ज्योतिष का राजा और रघु के हाथियों के खूंटे बनने के कारण कालागुरु के वृक्ष एकसाथ ही कांप गए। प्राग्ज्योतिष् का शासक विजेता के रथों से उठे हुए सूर्य को ढक देनेवाले मेघों को भी नहीं सह सका, सेनाओं को तो सहता ही क्या? आगे बढ़ने पर कामरूप के राजा ने मस्त हाथियों की उन श्रेणियों की भेंट देकर देवताओं के राजा से भी अधिक पराक्रमशील रघु का स्वागत किया, जिनसे वह अन्य विरोधियों का मार्ग रोका करता था । उसने विजेता के चरणों की रत्नरूपी फूलों से पूजा की। इस प्रकार राज्यछत्र उतर जाने के कारण खुले हुए नरेशों के मस्तकों पर अपने रथ की उड़ी हुई धूल का टीका लगाता हुआ रघु राजधानी को लौट आया। मेघों के समान सज्जन लोग जो कुछ लेते हैं, वह केवल देने के लिए ही। रघु ने विजय-यात्रा से लौटकर प्राप्त हुई अतुल सम्पत्ति का दान करने के लिए विश्वजित् यज्ञ का आयोजन किया।
रघु के विश्वजित् यज्ञ में दूर-दूर के राजा एकत्र हुए। पराजित होने के कारण उनके हृदयों में जो थोड़ा-बहुत दुःख था, उसे विजेता ने मंत्रियों की सहायता से बढ़े-चढ़े आदर-सत्कार द्वारा शान्त कर दिया। यज्ञ के अन्त में रघु से अनुमति प्राप्त करके राजा लोग अपने घरों को वापस चले गए; जिनसे उनके परिवारों की चिर-वियोग के कारण हुई चिन्ता दूर हो गई। विदा होते समय राजाओं ने रघु के रेखाध्वज, वज़ और छत्र जैसे चक्रवर्ती चिहों से युक्त चरणों में सिर झुकाकर नमस्कार किया तो उनके किरीटों से गिरे हुए फूलों के पराग से रघु के चरणों की अंगुलियां गौर हो गई।
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