Thursday, December 19, 2019

हिन्दी व्याकरण पहला खण्ड वर्ण विचार (Orthography) पहला अध्याय


हिन्दी  व्याकरण
पहला खण्ड 
वर्ण विचार (Orthography)
पहला अध्याय 

        1. वर्णमाला


                   Click to Watch video/वर्ण

 वर्ण-विचार में वर्ण की परिभाषा, वर्णों के भेद,उनके बोलने और लिखने तथा उनसे शब्द बनाने के नियमों का वर्णन होगा।

वर्ण उस मूल ध्वनि अथवा उसके चिह्न को कहते हैं जिसके और टुकड़े न हो सकें। जैसे अ, उ, च. आदि। भाषा का मुख्य आधार शब्द हैं। शब्द कई ध्वनियों से मिलकर बनते हैं। 'सीना' शब्द है, इसमें दो मुख्य ध्वनियाँ हैं, 'सी'और 'ना'। इनका विश्लेषण करें तो पता लगेगा कि 'सी' में 'स्' और 'ई' दो ध्वनियाँ हैं। 'ना' भी 'न्' और 'आ' ध्वनियों से बना है। इन स्, ई, न् और आ
ध्वनियों के और विभाग नहीं हो सकते। अत: इन मूल ध्वनियों तथा इनके प्रतिनिधि चिह्नों को 'वर्ण' कहेंगे।

किसी भाषा में प्रयुक्त होने वाले वर्णों के समुदाय को उस भाषा की वर्णमाला कहते हैं।

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हिन्दी वर्णमाला में कुल 44 वर्ण हैं।
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
क, ख, ग, घ, ङ।
च, छ, ज, झ, ज।
ट, ठ, ड, ढ, ण।
त, थ, द, ध, न।
प, फ, ब, भ, म।

य, र, ल, व,
 श, ष, स, ह।

संस्कृत वर्णमाला में ऋ, लृ ये दो वर्ण और गिने जाते हैं, पर हिन्दी में इनका  प्रयोग  नहीं होता।

हिन्दी की प्रत्येक पहली पुस्तक में तीन और वर्ण भी दिये जाते हैं-क्ष, त्र, ज्ञ पर ये संयुक्त अक्षर हैं और इनकी ध्वनियों के अलग-अलग टुकड़े हो जाते हैं-जैसे क्ष-क्+ष। त्र-त्+र । ज्ञ-ज+ञ । अत: इनकी गिनती वर्णों में नहीं हो सकती

संस्कृत की इस वर्णमाला के अतिरिक्त हिन्दी में कुछ नई विकसित ध्वनियाँ भी हैं, जिनको निम्नलिखित अक्षरों के नीचे बिन्दी लगाकर सूचित किया जाता है।
ड़ ढ़ क़ ख़ ग़ ज़ फ़

इसमें ड़ और ढ़ हिन्दी की अपनी ध्वनियाँ हैं और इनका तो बहुत प्रचलन है। यहाँ तक कि संस्कृत के पीड़ा और क्रीड़ा आदि शब्दों का भी हिन्दी में पीड़ा और क्रीड़ा उच्चारण ही होता है। शेष ध्वनियाँ फारसी और अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं के क़लम, खलक, ग़ायब, जुल्म, जिक्र, फ़रमान, जैसे शब्दों के शुद्ध
उच्चारण बताने के लिए बनाई गई हैं। परन्तु साधारणत: हिन्दी-लेखक इतने शुद्ध प्रयोग पर ध्यान नहीं देते और वे बिना बिन्दी के ही इन वर्णों का प्रयोग करते हैं। पर शुद्धता के पक्षपाती तो अंगरेजों के आ और ओ के बीच की ध्वनि को सूचित करने के लिए आ पर चिह्न लगाकर 'ऑ' बनाते हैं और फारसी के 'अ' की ध्वनि बताने के लिए अ के नीचे बिन्दी लगाते हैं-जैसे हॉस्पिटल, कॉलेज, मअलूम।

वर्णों के दो भेद हैं-स्वर और व्यंजन । स्वर और वर्ण वे कहाते हैं जिनका उच्चारण आपसे आप स्वतन्त्रतापूर्वक होता है और जो किसी व्यंजन के उच्चारण में सहायक होते हैं। वर्णमाला में पहले 11 वर्ण स्वर हैं।
___ व्यंजन वे हैं जो स्वरों की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। वर्ण-माला के क से ह तक तैंतीस वर्ण व्यंजन कहाते हैं। यदि हम किसी व्यंजन के साथ कोई स्वर न भी बोलना चाहें तो भी प्रत्येक व्यंजन के साथ 'अ' का बोला जाना अनिवार्य है, नहीं तो उसका उच्चारण नहीं हो सकता। ऊपर दिये गये व्यंजनों में
'अ' मिला हुआ है। जब किसी व्यंजन को बिना स्वर के दिखलाना हो तो उसके  नीचे तिरछी लकीर ( ् ) लगा दी जाती है। इसे हल कहते हैं। जैसे-क्, म्, च।।

उपर्युक्त 44 वर्णों के अतिरिक्त दो ध्वनियाँ और हैं-अनुस्वार () और
विसर्ग(:)। हिन्दी वर्णमाला में ये ध्वनियाँ अं अः के रूप में स्वरों के साथ ही दिखायी जाती हैं। संस्कृत व्याकरण में इनको स्वरों तथा व्यंजनों से भिन्न अयोगवाह के नाम से पुकारा जाता है। अयोगवाह उन वर्णों का नाम है जिनकी गिनती वर्णमाला से नहीं की जाती और जो दूसरे अक्षर में युक्त हुए बिना काम में नहीं आते। पर हिन्दी के व्याकरण इनकी गिनती व्यंजनों में करते हैं, क्योंकि ये
भी अन्य व्यंजनों के समान स्वरों की सहायता से ही बोले जाते हैं और प्राय: देखा जाता है कि इस, ण्, न्, म् इन व्यंजनों का रूप धारण कर लेता है और विसर्ग, श, ष, स् और र् का जैसे-अंग अङ्ग; पंच पञ्च; पंडित पण्डित; अंधा अन्धा; संमेलन सम्मेलन; दुस्साहस दुस्साहस आदि। इस तरह वे 35 व्यंजन मानते हैं। पर
व्यंजनों तथा अनुस्वार (-) और विसर्ग (:) में यह अन्तर है कि स्वर व्यंजनों के पीछे आकर उनके उच्चारण में सहायता देते हैं; किन्तु अनुस्वार और विसर्ग के वे पहले आते हैं। जैसे-क+अ=क अ+ अं अ+=अः। इसी कारण इनको स्वरों के साथ रख दिया जाता है।

अनुस्वार से मिलता-जुलता एक और भी चिह्न है जो चन्द्र बिन्दु ( )
कहलाता है। इसके और अनुस्वार के उच्चारण में भेद है। अनुस्वार के उच्चारण में श्वास केवल नासिका से निकलता है पर चन्द्रबिन्दु के उच्चारण में मुख और नासिक से एक-साथ निकलता है। सारांश यह कि अनुस्वार तीव्र और चन्द्रबिन्दु धीमी ध्वनि है, जैसे-अंधा, आँचल, हंस, हँसना।


स्वरों के भेद

हिन्दी वर्णमाला के प्रथम 11 वर्ण स्वर कहलाते हैं। उत्पत्ति की दृष्टि से इन स्वरों के दो भेद किये गये हैं-मूल स्वर और सन्धि स्वर।
मूल स्वर वे हैं जिनकी उत्पत्ति किसी दूसरे स्वर से नहीं होती। इन्हें हस्व स्वर भी कहा जाता है। ये कुल चार हैं-अ, इ, उ, ऋ।
संधि स्वर वे हैं जो मूल स्वरों के मेल से बनते हैं। ये कुल सात हैं-आ, ई, ऊ, ए, ओ और औ।
___ इन संधि स्वरों के भी उत्पत्ति की दृष्टि से दो और उपभेद किये जाते हैं  -दीर्घ स्वर और संयुक्त स्वर ।
किसी मूल स्वर में उसी स्वर को मिलाने से जो स्वर उत्पन्न होता है वह दीर्घ स्वर कहलाता है और भिन्न-भिन्न स्वरों के मेल से जो स्वर बनता है, वह संयुक्त स्वर कहलाता है। आ (अ+अ), ई (इ +ई), ऊ ( उ+उ) दीर्घ स्वर है और ए (अ+इ), ओ(अ+उ), ऐ(अ+ए), औ (अ+ओ) संयुक्त स्वर हैं। नीचे दिया हुआ चित्र स्वरों के भेदों को पूर्णतया व्यक्त करता है।


स्वर

1.मूल स्वर
अ, इ, उ, ऋ

2.संधि स्वर

दीर्घ स्वर  -  आ, ई, ऊ,
संयुक्त स्वर -  ए, ऐ, ओ, औ

उच्चारण के काल-मान को ध्यान में रखकर स्वरों के दो भेद किये जाते हैं -लघु और गुरु।

मूल स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है उसके मान या परिणाम को मात्रा 1 कहते हैं। जिस स्वर के उच्चारण में एक-मात्रा समय लगता है उसे एकमात्रिक या लघु कहते हैं और जिस स्वर के उच्चारण में दो-मात्रा समय लगता है उसे द्विमात्रिक या गुरु कहा जाता है। सब मूल स्वर (अ, इ, उ, ऋ) एकमात्रिक या लघु हैं और सब संधि स्वर (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ) द्विमात्रिक या गुरु।

[1. व्यंजनों में मिलने से बदल कर स्वर का जो रूप हो जाता है, उसे भी मात्रा कहते हैं। ]

उच्चारण की दृष्टि से स्वरों का एक और भेद भी किया जाता है, इसे प्लुत कहते हैं। इसका प्रयोग प्राय: संस्कृत में ही पाया जाता है। पर चिल्लाने, पुकारने या गाने में हिन्दी में भी शब्द का अंतिम स्वर पर्याप्त लम्बा करके बोला जाता है और उसके उच्चारण में तीन मात्रा का समय लग जाता है; उसे हम त्रिमात्रिक या
प्लुत कहते हैं। जिस दीर्घ स्वर को प्लुत दर्शन हो उसके आगे 3 का अंक लगा देते हैं। जैसे-अरे माधो 3, हाय रे 3! उच्चारण के अनुसार स्वरों के भेद और भी किये जाते हैं। सानुनासिक और
निरनुनासिक।  जब स्वरों का उच्चारण मुख और नासिका से किया जाता है तब स्वर सानुनासिक और जब केवल मुख से होता है तब निरनुनासिक कहते हैं। हम पहले देख चुके हैं कि चन्द्रबिन्दु  (ँ )
 की गिनती अनुस्वार की तरह वर्णमाला में नहीं है। यह केवल सानुनासिक स्वर का चिह्न मात्र है। छापे में कई जगह इस चिह्न को लगाना कठिन होता है, वहाँ अनुस्वार (-) चिह्न ही लगा देते हैं, पर
उसका उच्चारण सानुनासिक स्वर के समान ही होता है। जैसे "मैं" को प्रायः 'मैं' ही प्रदर्शित किया जाता है। अनुनासिक को अनुनासिक भी कह देते हैं।

व्यंजनों का वर्गीकरण
व्यंजनों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में बाँटा गया है-स्पर्श, अन्तास्थ और ऊष्म।

क से लेकर म तक 25 वर्ण स्पर्श कहाते हैं। ये फिर पाँच-पाँच की टुकड़ियों में विभक्त है। इन टुकड़ों को वर्ण कहते हैं। वर्ग के पहले अक्षर के अनुसार वर्गों के नाम रखे गये हैं। जैसे
क ख ग घ ङ   कवर्ग
च छ ज झ ञ  चवर्ग
ट ठ ड ढ ण    टवर्ग
त थ द ध न     तवर्ग
प फ ब भ म    पवर्ग

य र ल व ये चार अन्त:स्थ हैं। ये चारों वर्ण स्वरों से बहुत कुछ मिलते हैं। इ के बाद अ आ जाने से उसका उच्चारण य, उ के बाद 'अ' आ जाने से उसका उच्चारण व, तथा ऋ के बाद 'अ' आ जाने से उनका उच्चारण र हो जाता है। इसी कारण अन्तस्थ का अर्ध स्वर भी कहते हैं। श ष स ह ये चार वर्ण ऊष्म हैं।

दूसरा अध्याय

धन्यवाद !

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