Saturday, August 8, 2020

रश्मिरथी/saransh /visharadh uttaradh

 Visharadh Uttarard 

                                                 रश्मिरथी



         आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास का सिंहावलोकन करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि कविता के क्षेत्र में जन-जागरण की ओर काव्य-धारा को और भी तीव्र तथा प्रखर बनानेवाले कवि श्री रामधारी सिंह "दिनकर" हैं, जिन्हें आरंभ से ही तेजस्विता तथा तेजस्विता से परिपूर्ण कविताएँ लिखी तथा जिनकी कविताओं में योद्धा का गम्भीर घोष है अनल का-सा तीव्र ताप है और सूर्य का-सा प्रखर तेज है। इसीलिए वे "अनल" के कवि कहलाते हैं। इनका प्रथम प्रबन्ध-काव्य "कुरुक्षेत्र' है, जिससे कवि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र से भी ऊँचा उठकर युद्ध जैसी अंतरराष्ट्रीय समस्या के समाधान में व्यग्र तथा बेचैन दिखाई देता है।

         कवि दिनकर की दूसरी महान कृति 'रश्मिरथी है यह भी प्रबन्ध- काव्य है जिसकी रचना सन् 1957 ई.में हुई थी। इस प्रबन्ध-काव्य का कथानक भी सात सर्गों में विभक्त है। इसमें महाभारत के पराक्रमी महारथी कर्ण का जीवन चरित्र अंकित है। 



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    प्रथम सर्ग

        रश्मिरथी के प्रथम सर्ग में कर्ण और अर्जुन की प्रतियोगिता का उल्लेख किया गया है, जिसमें कृपाचार्य द्वारा कर्ण की जाति और उसका कुल पूछने पर कर्ण को लज्जित होना पडता, किन्तु इससे कर्ण के हृदय में अर्जुन के प्रति स्थायी द्वेष घर कर लेता है और दुर्योधन कर्ण को अपना सखा मानकर उसे अंगदेश का राजा बना देता है। 

   दूसरा सर्ग

        इस सर्ग में कर्ण को परशुराम के आश्रम में रहकर धनुवेर्द की शिक्षा ग्रहण करते हुए अंकित किया गया है। वहाँ कर्ण अपनी जाति छिपाकर और ब्राह्मण बनकर परशुराम का शिष्य बनता है, किन्तु इस रहस्य के खुल जाने पर परशुराम कर्ण का यह शाप दे देते हैं कि "तू समय पर ब्रह्मास्त्र विद्या को भूल जायेगा।" 

  तीसरा सर्ग

      इस सर्ग में पांडवों के वन से लौटने कृष्ण के दूत बनकर हस्तिनापुर जाने, कृष्ण के कहने पर भी दुर्योधन के द्वारा पांडवों को पा गाँव तक न देने, कृष्ण को बंदी बनाने विराट रूप दिखाकर कृष्ण के निकल जाने कृष्ण द्वारा कर्ण को पांडवों के पक्ष में मिलाने आदि का बड़ा ही रोचक वर्णन हुआ है। 

   चौथा सर्ग

        कर्ण की दानशीलता का निरूपण इस सर्ग में किया गया है और इन्द्र द्वारा कर्ण के कवच कुंडल दान में ले आने का तथा इन्द्र द्वारा कर्ण को अमोघ अस्त्र दे आने का वर्णन किया गया है। 

   पाँचों सर्गे

      इस सर्ग में कुन्ती का कर्ण के समीप जाकर उसे अपना पुत्र माननी तथा अपने पक्ष में मिलाने का वर्णन किया गया है, साथ ही कर्ण कुन्ती को यह कहकर आश्वासन देता है कि पार्थ को छोड़कर अन्य किसी पांडव का वध नहीं करूँगा। 

   छठा सर्ग

     कर्ण और भीष्म का वार्तालाप इस सर्ग में अंकित है, जिसमें भीष्म युद्ध बन्द करना चाहते हैं और कर्ण को पांडवों तथा कौरवों से मिलकर रहने की सलाह देते हैं परन्तु कर्ण अपने मित्र दुर्योधन के आग्रह पर लडने के लिए सन्नद्ध हो जाता है और भीष्म पितामह के चरण छूकर रण क्षेत्र में आ करता है। यहाँ कर्ण बड़ी भयंकर के साथ पांडव-सना का संहार करता है परन्तु कृष्ण तुरन्त ही घटोत्कच से कर्ण को भिडाकर इन्द्र द्वारा दिये हुए कर्ण के अमोघ शस्त्र को घटोत्कच पर छुडवा देते हैं और पार्थ को कर्ण से सुरक्षित बना लेते हैं। 

   सातवाँ सर्ग

         इस सातवें सर्ग में कर्ण के भयंकर युद्ध का वर्णन किया गया है, जिसमें वह युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को बार-बार अपने चंगुल में फंसाकर भी छोड़ देता है, वह पार्थ से लड़ने के लिए जैसे ही उद्यत होता है वैसे ही अश्वसेन नामक सर्प बाण का रूप धारण करके कर्ण के तरकस में आ बैठता है और पार्थ का विनाश करना चाहता है, किन्तु कर्ण उसे अपना सहायक नहीं बनाता और यह कहकर फटकार देता है कि यहाँ नर से युद्ध हो रहा है, नर का सर्प से युद्ध नहीं है। अतः मैं सर्प को अपना सहायक बनाकर अनैतिकता का कलंक नहीं लेना चाहता। अंत में कर्ण के रथ का पहिया रण क्षेत्र की पृथ्वी में धंस जाता है और वह रथ को निकालने का जैसे प्रयत्न करता है, वैसे ही अर्जुन कर्ण को मार देता है। इस तरह एक शूर, दानी, तपस्वी, व्रत तथा सत्यवादी योद्धा - कर्ण का महाभारत में अस्त हो जाता है।

धन्यवाद!!!
















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