Sunday, January 10, 2021

Praveen uttarardh

 काव्य की परिभाषा देना कठिन है। 

 हर एक आचार्य याने का़व्यकारों ने अपने 

अपने ढंग से इसका परिभाषा देते हैं। पहले हम रस की आवश्यकता देखेंगे। जब हम खाते हैं तो अन्न या रोटी के साथ पेय पदार्थ याने  Side dishes  होता तो उसका स्वाद बढ़ेगा। இதனையே தமிழ் கவிஞர்கள்  ஒரே வரியில் அழகாக கூறியுள்ளனர். பாட்டில் சுவை இருந்தால் ஆட்டம் தானே வரும். பாட தெரிந்திருந்தால்,...........  

उसी प्रकार काव्य में भी रस की प्रधानता है।। 

उसका स्वाद बनाने। 

रस के लिए अमुक परिभाषा ही सही या गलत कहना कष्ट, और कठिन भी होगा। 

फिर भी इन सभी परिभाषाओं में एक हद तक एक प्रकार का सामंजस्य या साम्य देख सकते हैं। 

कितने ही आचार्यो ने कितने ही परिभाषा दिये हैं। " एकाध को देखेंगे। साहित्य दर्पण के आचार्य विश्वनाथ के अनुसार " वाक्यम रसात्मक काव्य "

" कुछ कहते हैं कि काव्य में रमणीयता होना ही रस कहते हैं। शब्द में स्पष्टार्थव शब्द होना चाहिए। यहाँ अर्थ और शब्द दोनों एक दूसरे से पूरक है। "  

जो भी हो रसास्वादन ही काव्य का प्रमुख लक्षण है। उसे पढ़ते ही उसमें तन्मयता हो जाना चाहिए। " भरतमुनि के अनुसार काव्य में " नौ रस "माना जाता है। 

वे हैं १,श्रृंगार रस। २,हास्य रस। ३,करूण रस। ४,रौद्र रस। ५,वीर रस। ६,भयानक रस। ७,बीभत्स रस। ८,अदभुत रस। ९,शांत रस। 

कुछ वात्सल्य रस को दसवाँ रस कहते हैं। इन में श्रृंगार रस को ही रस राज कहते हैं। शांत रस तो अंत में है क्योंकि பொறுத்தார் பூமி.............! 


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