तेरहवाँ अध्याय
शब्दों की व्युत्पत्ति
पिछले अध्यायों में शब्दों के भेदों तथा उनके रूपान्तर का वर्णन किया गया है। अब आगे यह बताया जायेगा कि संज्ञा आदि शब्दों के पारस्परिक मेल से अथवा उनके साथ अन्य प्रत्ययों का मेल होने से किस तरह नये शब्द बनते हैं। इस प्रकार शब्द बनाने को शब्द रचना कहते हैं। नये शब्द के मूल अर्थात् प्रकृति और प्रत्यय बनाने को व्युत्पत्ति कहते हैं।
शब्दों के वर्गीकरण में बताया जा चुका है कि यौगिक तथा योगरूढ़ि शब्द किसी शब्द और शब्दांग के योग से अथवा दो शब्दों के योग से बनते हैं। इस तरह इन शब्दों की उत्पत्ति तीन तरह से कही जा सकती है
1. शब्द के पूर्व शब्दांश के लगने से,
2. शब्द के पीछे शब्दांश के लगने से,
3. दो शब्दों के मेल से।
शब्द के पूर्व जो शब्दांश लगते हैं वे उपसर्ग (Prefixes) कहलाते हैं। शब्द के पीछे जो शब्दांश लगते हैं वे प्रत्यय (Suffixes) कहलाते हैं। जब दो या दो से अधिक शब्द मिलकर एक स्वतन्त्र शब्द बनता है तो इस मेल को 'समास' कहा जाता है। सारांश यह है कि नये शब्द उपसर्ग या प्रत्यय लगाने से अथवा समास द्वारा बनते हैं।
1. उपसर्ग
उपसर्ग वे शब्दांश हैं जो किसी शब्द के आदि में आकर उसके अर्थ में विशेषता उत्पन्न कर देते हैं या उसके अर्थ को सर्वथा बदल देते हैं। जैसे-तो 'पराजय' का अर्थ होगा 'हार', जो मूल शब्द के अर्थ के सर्वथा विपरीत है। इसी तरह 'बल' शब्द के पहले 'प्र' उपसर्ग लगा दें तो 'प्रबल' का अर्थ हो जाता है अधिक बल वाला, पर यदि 'प्र' की जगह 'निर' उपसर्ग लगा दिया जाये तो निर्बल' शब्द का अर्थ हो जाता है बलरहित (कमजोर)।
हिन्दी में जो उपसर्ग युक्त शब्द मिलते हैं, वे प्राय: संस्कृत के तत्सम शब्द हैं। शेष में भी जो उपसर्ग लगे हैं, वे प्राय: संस्कृत उपसर्गों के अपभ्रंश ही हैं । ठेठ हिन्दी का तो एक-आध ही उपसर्ग है। अत: पहले संस्कृत में उपसर्ग उनके अर्थ तथा उदाहरण दिये जाते हैं।
(क) संस्कृत के उपसर्ग
अति = अधिक-अतिदिन, अतिरिक्त।
अधि = ऊपर, श्रेष्ठ-अधिकार, अध्यक्ष, अधिपति।
अनु = पीछे, समान-अनुज, अनुचर, अनुरूप ।
अप = बुरा, विरुद्ध-अपमान, अपकर्ष, अपशब्द। |
अभि = और, समान इच्छा-अभिमुख, अभ्यागत, = |
अव = नीचे, हीन-अवगुण, अवतार, अवनति । अभिप्राय।
आ = तक, समेत, उलटा-आजीवन, आकर्षण, आगमन ।
उत् = ऊपर, श्रेष्ठ-उत्पत्ति, उत्कर्ष, उत्तम । परन्तु उत्क्रान्ति का अर्थ है मृत्यु।
उप = समीप, गौण-उपकूल, उपवन, उपनाम, उपमन्त्री।
दुस् = बुर्-बुरा, कठिन-दुराचार, दुर्ग, दुस्तर, दुष्कर।
निस् =नीचे, बहुत-निपात, निरोध, निधान ।
निस् निर् = निषेध-निश्चय, निरपराध, निर्गुण, निर्बल।
परा = पीछे, उलटा-पराजय, पराभव।
परि = आस-पास, सब तरफ, पूर्ण-परिजन, परिक्रमा, परितोष।
प्र = अधिक, ऊपर-प्रचार, प्रबल, प्रभाव।
प्रति = विरुद्ध, सामने, हर एक-प्रतिकूल, प्रत्यक्ष, प्रतिदिन ।
वि = भिन्न-विशेष, विदेश, विख्यात, विज्ञान ।
सम =अच्छा, साथ, पूर्ण-संस्कार, संगम, सन्तोष, सम्मति ।
सु = अच्छा, सहज-सुपुत्र, सुकर्श, सुगम।
कभी-कभी एक शब्द के साथ दो तीन उपसर्ग आते हैं।
जैसे - निराकरण (निर् आ+करण), समालोचना (सम् +आ+लोचना),
प्रत्युपकार (प्रति + उप+कार) ।
इसके अतिरिक्त संस्कृत के कुछ विशेषण और अव्यय भी उपसर्गों की तरह प्रयुक्त होते हैं,
जैसे अ-अभाव, निषेध-अधर्म, अज्ञान, अनीति।
स्वरादि शब्दों से पहले 'अ' का 'अन्' हो जाता है;
जैसे-अनेक, अनन्त ।
अधस्-नीचे-अध:पतन, अधोगति । |
अन्तर= भीतर-अन्त:पुर, अन्त:करण, अन्तर्गत ।
कु (क)=बुरा-कुकर्म, कुपुत्र, कापुरुष। =
न = अभाव-नास्तिक, नपुसंक।
पुरः= सामने-पुरोहित, पुरस्कार, पुरावृत्त ।
पुरा = पहले-पुरातन, पुरातत्व, पुरावृत्त ।
पुनर् = फिर-पुनर्जन्म, पुनरुक्त, पुनर्विवाह।
बहिर् = बाहर-बहिष्कार, बहिद्वारे, बहिर्गमन ।
स = सहित-सजीव, सफल, सगोत्र।
सत् = अच्छा-सज्जन, सत्पात्र।
सह = साथ-सहचर, सहोदर, सहपाठी।
(ख) हिन्दी के उपसर्ग
अ; अन = अभाव, अजान, अचेत, अबेर ।
(हिन्दी में 'अन' व्यंजन के पूर्व भी आता है-- अनमोल, अनगिनत) ।
अध (सं० अर्ध)=आधा-अधकचरा, अधपका।
औ (सं० अब)-3 हीन, नीच-औगुण, औतार, औघट ।
उन (सं० ऊन) - कम, थोड़ा -उन्नीस, उनसठ ।
दु (सं० दुर्) - बुरा - दुबला।
दु० (सं० द्वि)=दो-दुधारी, दुमुँहा, दुगुना।
नि (सं० निर)-रहित-निकम्मा, निडर ।
भरपेट, भरपूर, भरसक।
सुडोल, सुजान, सपूत।
कु, क-कुचाली, कुटीर, कपूत।
(ग) उर्दू के उपसर्ग
कम = थोड़ा-कमजोर, कमसमझ, कमदाम,
खुश = अच्छा -खुशकिस्मत, खुशबू।
गैर = भिन्न-गैरमुल्क, गैरहाजिर ।
दर = में-दरअसल, दरहकीकत।
ना = अभाव, नापसन्द, नालायक।
ब = ओर, में, अनुसार-बदस्तूर, बदनाम।
बद = बुरा-बदबू, बदनाम ।
बा = अनुसार, सहित-बाजाप्ता, बातमीज, बाकायदा।
बिला = बिना-बिलाकसूर, बिलाशक ।
बे = बिना-बेचारा, बेईमान, बेरहम।
(वह उपसर्ग हिन्दी शब्दों के साथ भी लगता है- बेचैन, बेजोड़)
ला = बिना-लाचार, लावारिस।
सर = मुख्य-सरदार, सरपंच।
हम = साथी, बराबर-हमदर्द, हमउम्र ।
हर = प्रति-हरएक, हररोज, हरघड़ी।
2. प्रत्यय
प्रत्यय शब्दों के अन्त में जोड़े जाते हैं। कारक प्रत्यय, क्रिया प्रत्यय और स्त्री-प्रत्यय आदि कुछ प्रत्ययों का वर्णन पिछले अध्यायों में आ चुका है, उनके अतिरिक्त दो प्रकार के प्रत्यय और हैं-कृत् प्रत्यय और तद्धित प्रत्यय।
धातुओं के अन्त में जिन प्रत्ययों के लगने से क्रिया को छोड़ कर अन्य शब्द बनें उन्हें कृत्प्रत्यय कहते हैं। वे शब्द जो कृत्प्रत्यय जोड़ने से बनते हैं; दन्त कहलाते हैं। जैसे-करने+ वाला-करनेवाला।
धातुओं को छोड़ शेष शब्दों के अन्त में जिन प्रत्ययों के लगने से अन्य शब्द बनते हैं उन्हें तद्धित प्रत्यय कहते हैं। जो शब्द इस प्रकार बनते हैं उन्हें तद्धितान्त कहते हैं। जैसे लकड़हारा।
(क) कृत् प्रत्यय
कृत् प्रत्यय छह प्रकार के हैं।
1. कर्तृवाचक 2. गुणवाचक 3. कर्मवाचक
4. करणवाचक 5. भाववाचक 6. क्रियाद्योतक।
(1) कर्तृवाचक-कर्तृवाचक कृत्प्रत्यय वे हैं जिनके मेल से बने छन्दों से क्रिया
(व्यापार) के करने वाले का बोध होता है। जैसे-वाला, हार, सार, आका इत्यादि।
कर्तृवाचक कृदन्त बनाने की रीति
(क) क्रिया के सामान्य रूप के 'न' को 'ने' करके आगे 'वाला' प्रत्यय लगाया जाता है। -
बोलनेवाला, पढ़नेवाला।
(ख) क्रिया सामान्य रूप के 'न' को 'ने' करके आगे 'हार' या 'सार' प्रत्यय लगाया जाता है
जैसे-राखनहार, सिरजनहार, मिलनहार।
(ग) धातु के आगे नीचे लिखे प्रत्यय लगाने पर कर्तृवाचक कृदन्त बनते हैं।
अक्कड़-पियक्कड़, कुक्कड़, घुमक्कड़।
ऊ-खाऊ, उड़ाऊ, कमाऊ।
आक, आका - तैराक, लड़ाका।
आड़ी-खिलाड़ी।
आलू-झगड़ालू
इयल-अड़ियल, सड़ियल।
इया -जड़िया, धुनिया
एरा-लुटेरा।
एत-लडैत।
ऐया-रखैया।
ओड़ा, ओड़, ओरा-भगोड़ा, हँसोड़ा, चटोरा।
क-घातक, मारक।
वैया-गवैया, सवैया।
संस्कृत के अक, तृ आदि कर्तृवाचक प्रत्ययों से बने शब्द भी हिन्दी में बहुत प्रयुक्त होते हैं-
पाठक, दाता।
'वाला' प्रत्यय हर धातु के साथ लग सकता है, हर अन्य प्रत्यय हर एक धातु के साथ नहीं लगते। खास-खास प्रत्यय खास-खास धातुओं के साथ ही लगते हैं। धातु के आदि का दीर्घ स्वर प्रत्यय लगने पर प्राय: हस्व हो जाता है। जैसे-खिलाड़ी।
(2) गुणवाचक कृत्प्रत्यय-वे हैं, जिनसे बने शब्दों से किसी खास गुण को रखने
वाले का बोध होता है, जैसे
काऊ - टिकाऊ, बिकाऊ।
आवना-सुहावना, डरावना
इया - बढ़िया, घटिया।
वाँ-चुसवा, कटवाँ।
(3) कर्मवाचक कृत्प्रत्यय-वे हैं जिनके लगने से बनी हुई संज्ञाओं से
कर्म का बोध होता है, जैसे
औना-बिछौना
ना -जोड़ना
नी-सुँघनी।
(4) करणवाचक कृत् प्रत्यय-वे हैं जिनके लगने से बनी हुई संज्ञाओं से
क्रिया के साधन का बोध होता है। जैसे-
ला-झूला, ठेला।
आनी-मथानी।
औटी-कसौटी।
ई-फांसी, बुहारी।
ऊ-झाड़।
न, ना-ढक्कन, बेलन, ढकना,
नौ-कतरनी, धौंकनी,
औना-खिलौना।
(5) भाववाचक प्रत्यय-वे हैं जिनके लगने से बनी हुई संज्ञाओं से भाव
(क्रिया के व्यापार) का बोध हो। जैसे
अंत-रटंत, गढंत।
अ- मेल, शायन ।
अन-शयन।
आ-फेरा।
आई-लड़ाई, मिठाई। |
आन-उड़ान, मिलान।
आप- -मिलाप।
आवट-थकावट, मिलावट।
आव-लगाव, बहाव, चढ़ाव।
आवा-दिखावा, बुलावा, चढ़ावा
आस-प्यास।
आहट-घबराहट, चिल्लाहट।
ई-हँसी, बोली।
एरा-बसेरा, निबटेरा।
औती-मनौती, चुनौती, फिरौती।
त-नचत, खपत, रंगत।
ति-स्तुति।
ती-बढ़ती, घटती।
न-चलन, गढ़न।
नी-करनी, भरनी।
कई धातुओं का मूलरूप और भाववाचक कृदन्त एक ही जैसे होते हैं;
जैसे-मार, पीट, दौड़, खोज, चाह, पुकार।
धातु के आगे 'ना' लगाकर बना हुआ क्रिया का साधारण रूप भी भाववाचक
संज्ञा के समान प्रयुक्त होता, जैसे-लिखना सबके लिए आवश्यक है।
(6) क्रियाद्योतक प्रत्यय-वे हैं जिनसे क्रियाओं के समान ही भूत या वर्तमान काल के
वाचक विशेषण या अव्यय बनते हैं।
धातु के आगे 'आ' अथवा 'या' प्रत्यय लगाने से भूतकालिक कृदन्त तथा 'ता प्रत्यय लगाने से वर्तमानकालिक कृदन्त बनते हैं। कभी-कभी इनके आगे 'हुआ' लगा देते हैं। इस कृदन्त का रूप आकारान्त विशेषणों के समान बदलता रहता है। (भूतकालिका) पढ़ा लिखा आदमी, पढ़ी लिखी औरत। गाया हुआ गान, सोया हुआ मनुष्य, सोये हुए मनुष्य, सोई हुई स्त्रियाँ । गुजरा हुआ जमाना। (वर्तमानकालिक) बोलता सुग्गा। उजड़ता घर आता हुआ घोड़ा। भागतों के आगे। उड़ती बात।
इन्हीं अर्थों में संस्कृत के शब्दों में 'त' (क्त) और 'मान' प्रत्यय लगते हैं। कहीं-कहीं 'त' को 'न' हो जाता है -
युक्त, मुक्त, चलायमान, लग्न, मग्न, रुग्ण ।
योग्यता के अर्थ में संस्कृत के 'तव्य और 'अनीय' आदि प्रत्यय भी हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं।
जैसे-विचारणीय, गन्तव्य, ध्येय ।
अव्यय बनाने के लिए ऊपर लिखे कृदन्तों के अन्त्य 'आ' का 'ए' कर दिया जाता है;
जैसे भूख के मारे जान निकली जाती है । पूर्वकालिक, तात्कालिक, अपूर्ण-क्रियाद्योतक तथा
पूर्ण-क्रियाद्योतक क्रियाओं में यहाँ कृदन्त अव्यय प्रयुक्त होते हैं।
कर्तृवाचक प्रत्ययों से संज्ञा और विशेषण दोनों बनते हैं। गुणवाचक प्रत्ययों से केवल विशेषण और कर्मवाचक तथा भाववाचक प्रत्ययों से केवल संज्ञाएं बनती हैं। क्रियाद्योतक प्रत्ययों से विशेषण तथा अव्यय दोनों बनते हैं।
(ख) तद्धित प्रत्यय
तद्धित प्रत्यय अनन्त है। शब्दों के साथ इन प्रत्ययों का मेल होने पर शब्दों में भी विकार प्रायः हो जाता है। जैसे-सोन+ आर-सुनार, लोटा+इया-लुटिया, वर्ष+ एक वार्षिक, गुण+अ गौण। तद्धित प्रत्ययों से मुख्यतया तीन प्रकार के शब्द बनते हैं --
1. संज्ञाओं में प्रत्यय लगाने से विशेषण; जैसे-भूख+आ-भूखा। पंजाब+ई-पंजाबी। मास+इक-मासिक। ग्राम+ ईन- ग्रामीण।
2. विशेषणों में प्रत्यय लगाकर भाववाचक तथा संज्ञाओं में प्रत्यय लगाकर नई संज्ञाएँ, जैसे-मीठा+आस-मिठास, गरम+ ई =गरमी, सुन्दर+य-सौन्दर्य, सोना+आर-सुनार।
3. संज्ञाओं, सर्वनामों और विशेषणों में प्रत्यय लगाकर अव्यय, जैसे-सामना+ए-सामने, आप+स=आपस, कोस+ओं-कोसों।
आगे कुछ मुख्य-मुख्य तद्धित प्रत्यय अर्थ तथा उदाहरण सहित दिये जाते हैं-
(क) कर्तृवाचक- ( करनेवाले, बनानेवाले या घड़नेवाले के अर्थ में) प्रत्यय-आर, इया, ई, उआ, एरा, वाला, हारा आदि।
जैसे-सुनार, लोहार। आढ़तिया। भंडारी, तेली। मछुआ। सँपेरा, कसेरा। घरवाला, टोपीवाला, लकड़हारा।
(ख) भाववाचक प्रत्यय ये हैं-आई, आपा, आस, आयत, इख, ई, औती, डा, त, नी, पुन, हट, क इत्यादि।
बुराई, भलाई, बुढ़ापा, सुघड़ावा। मिठास। बहुतायत । कालिख । गर्मी, सर्दी। बपौती। दुखड़ा, मुखड़ा, रंगत, संगत। चाँदनी। लड़कपन, बचपन। चिकनाहट। ठंडक।
अ; इमा (इमन्) ता, त्व, व आदि भाववाचक संस्कृत प्रत्यययुक्त शब्द भी हिन्दी में पर्याप्त प्रयुक्त होते हैं; जैसे-शैशव, लाघव, गौरव । लालिमा, महिला। गुरुता, प्रभुता, गुरुत्व, आलस्य, माधुर्य ।
(ग) सम्बन्धवाचक प्रत्यय ये हैं-आल; जा, एरा। जैसे ससुराल ननिहाल। | भतीजा, भानजा, । ममेरा; फुफेरा।
संस्कृत के अप्रत्ययवाचक शब्द जिनसे सन्तान का भाव पाया जाता है। इसी श्रेणी के अन्दर समझे जा सकते हैं। इनमें आदि स्वर की वृद्धि हो जाती है और शब्द के अन्तिम 'ई' को 'य' तथा 'उ' को 'व' हो जाता है । जैसे-कुन्ती से कौन्तेय, विष्णु से वैष्णव, दनु से दानव, यदु से यादव, कश्यप से काश्यप , गङ्गा से गांगेय, सौमित्र से सुमित्रा, पृथा से पार्थ ।।
(घ) ऊन (लघुता) वाचक प्रत्यय ये हैं- आ, इया, री, टी, ड्री, आदि । जैसे-बबुआ। लुटिया; खटिया; कटोरी। लँगोटी, पगड़ी।
(ङ) पूर्णवाचक प्रत्यय-ला, रा, था, ठा, वाँ आदि। जैसे-पहला। दूसरा, तीसरा । चौथा, छठा। पाँचवाँ; सातवाँ ।
(च) सादृश्यवाचक प्रत्यय ये हैं-सा, हरा । जैसे-काला-सा, सुनहरा ।
(छ) गुणवाचक विशेषण आ, इत, ईय, ई, ईया, ईला, ऊ, ऐला, लु, मान्, वान, वान, इक आदि प्रत्यय लगाने से बनते हैं । जैसे-भूखा। आनन्दित । अनुकरणीय। धनी, देशी। रंगीला, सजीला, घरू, बाजारू । विषैली। दयालु । श्रीमान, मतिमान्। कुलवन्त । रूपवान् । सामाजिक, ऐतिहासिक।
(ज) स्थानवाचक विशेषण ई, इया, वाल, इत्यादि प्रत्यय लगाने से बनते हैं जैसे-पंजाबी, मद्रासी, अमृतसरिया। अग्रवाल, जायसवाल।
इनके अतिरिक्त उर्दू के निम्नलिखित प्रत्ययों से बने शब्द भी हिन्दी में बोले जाते हैं । गर, गार, ची, दार, नाक, मन्द, दर, वान, वार, सार, गी, गीन ।
कलईगर, कारीगर । मददगार। खजानची, मशालची, जमींदार, ताल्लुकेदार। दर्दनाक, खतरनाक। अक्लमन्द, फायदेमन्द। ताकतवर, जोरावर । गाड़ीवान। पैदावार, उम्मीदवार, खाकसार । सादगी, मर्दानगी, जिन्दगी। गमगीन।
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