चौदहवाँ अध्याय
समास
परस्पर सम्बन्ध रखने वाले दो या दो से अधिक शब्द मिल कर जब एक स्वतन्त्र शब्द बनाते हैं तो इस मेल को समास कहा जाता है और इस प्रकार मिले शब्दों को समस्त अथवा सामासिक शब्द कहते हैं। समस्त शब्दों के बीच के विभक्ति-प्रत्ययों का और सम्बन्ध बताने वाले शब्दों का लोप हो जाता है।
जैसे-धन का मद = धनमद।
घोड़े का सवार - घुड़सवार।
काठ की पुतली - कठपुतली।
चन्द्र सा मुख = चन्द्रमुख।
समास होने पर कई शब्दों में कुछ विकार भी हो जाता है। जैसे-घुड़सवार में घोड़े' का 'घुड़' और कठपुतली में 'काठ' का 'कठ' हो गया है।
उपसर्गों और प्रत्ययों के योग से जो नये शब्द बनते हैं उनमें शब्द और शब्दांश का मेल होता है, परन्तु समास में दो शब्दों के परस्पर मेल से नये शब्द बनते हैं। समस्त शब्द जिन शब्दों के मेल से बनता है, वे शब्द उसके खण्ड कहलाते हैं। समस्त शब्द के खंडों को अलग-अलग अपनी विभक्तियों के रूप में रख कर उनके आपस के सम्बन्ध को स्पष्ट करने की रीति को विग्रह कहते हैं। जैसे-'रात-दिन' समस्त शब्द का विग्रह है ' रात और दिन'।।
समास में जब शब्द जुड़ते हैं तो उसमें सन्धि के नियमों का प्रयोग होता है।
जैसे—पत्र का उत्तर = पत्र उत्तर पत्र उत्तर ।
सन्धि केवल संस्कृत के शब्दों में होती है।
किसी समास में पहला खण्ड प्रधान होता है और किसी में दसरा, किसी में कोई भी खण्ड प्रधान नहीं होता और किसी में दोनों खण्ड प्रधान होते हैं। इस प्रकार समासों के मुख्य चार भेद हैं। जिनमें पहला खण्ड प्रधान होता है उसे अव्ययीभाव कहते हैं, जिसमें दूसरा खण्ड प्रधान होता है; उसे तत्पुरुष कहते हैं; जिसमें दोनों ही खण्ड प्रधान होते हैं उसे द्वन्द्व कहते हैं और जिसमें कोई भी खण्ड प्रधान नहीं होता उसे बहुब्रीहि कहते हैं। तत्पुरुष समास का एक और उपभेद कर्मधारय तथा कर्मधारय का उपभेद द्विगु है। कई लोग उन्हें स्वतन्त्र समास कह कर समास के छह भेद करते हैं-अव्ययीभाव, तत्पुरुष, कर्मधारय, द्विगु, द्वन्द्व और बहुव्रीहि ।
1. अव्ययीभाव
जिस समास में पहला खण्ड-जो प्राय: अव्यय होता है-प्रधान हो उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। अव्ययीभाव समास का समस्त शब्द भी अव्यय ही होता है और वाक्य में क्रिया की विशेषता का प्रतिपादन करता है । जैसे-यथाशक्ति (शक्ति के अनुसार), बेखटके (खटके के बिना); इत्यादि। भरपेट
अव्ययीभाव का अर्थ है अव्यय हो जाना। यही कारण है कि हिन्दी के वैयाकरणों ने हाथोंहाथ रोज-रोज इत्यादि शब्दों में भी अव्ययीभाव समास माना है। यद्यपि इनमें संज्ञाओं की द्विरुक्ति ही हुई है। द्विरुक्ति में 'मात्राओं' और 'ही' का आगमन भी कभी-कभी होता है। जैसे-एकएक, मन ही मन। संज्ञाओं के | समान अव्यय की द्विरुक्ति से भी अव्ययीभाव समास होता है। जैसे-बीचोबीच, धड़ाधड़।
2. तत्पुरुष
जिस समास में दूसरा पद प्रधान हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। तत्पुरुष समास के दो भेद हैं-(1) व्याधिकरण तत्पुरुष अर्थात् जिसमें समस्त पद का विग्रह करने पर पहले खण्ड और दूसरे खण्ड में भिन्न-भिन्न विभक्तियों लगायी जायें, जैसे-'राज-सभा' - राजा की सभा। इसमें पहले खण्ड में सम्बन्ध कारक की विभक्ति है और दूसरे में कर्ता कारक की विभक्ति है (2) समानाधिकरण तत्पुरुष अर्थात् जिसमें समस्त पद का विग्रह करने पर दोनों खण्डों में एक कर्ता कारक ही की विभक्ति रहे; जैसे-चन्द्रमुख - चन्द्रमा सा मुख इसमें दोनों पदों में एक ही विभक्ति है।
(क) व्याधिकरण तत्पुरुष
इस समास के पूर्व पद में जिस कारक की विभक्ति का लोप होता है उसी कारक के अनुसार इस समास का नाम होता है; जैसे
कर्म तत्पुरुष-स्वर्ग-प्राप्त (स्वर्ग को प्राप्त), गिरहकट ।
करण तत्पुरुष-अकालपीड़ित (अकाल से पीड़ित), तुलसीकृत तुलसी
द्वारा कृत (बनाई हुई), मनमाना (मन से माना हुआ), मदमस्त।
संप्रदान तत्पुरुष-रसोईघर (रसोई के लिए घर), हवन-सामग्री (हवन के लिए सामग्री),
राहखर्च (राह के लिए खर्च), 'हथकड़ी', 'पाठशाला', 'कृष्णार्पण'।
अपादान तत्पुरुष-धर्मभ्रष्ट (धर्म से गिरा हुआ), 'देश निकाला' 'पदच्युत', 'ऋणमुक्त'।
अधिकरण तत्पुरुष-देशोद्धार (देश का उद्धार), घुड़दौड़ (घोड़े की दौड़), 'ठाकुरद्वारा', 'लखपति ।
अधिकरण तत्पुरुष-बनवास (वन में वास)' आपबीती (अपने आप पर बीती)
'आनन्दमग्न', 'कानाफूसी'।
कभी-कभी तत्पुरुष समास में पहले शब्द की विभक्ति का लोप नहीं होता। तब उस
समास को अलुक् तत्पुरुष कहते हैं, जैसे-युधिष्ठिर (युधि स्थिर) युद्ध में स्थिर रहने वाला,
मानसिज (मनसि + ज) 'मन में पैदा होने वाला' खेचर (खे + चर) आकाश में विचरने वाला।
अभाव या निषेध के अर्थ हैं 'आ' या 'अन्' लगाने से बनने वाले तत्पुरुष को नञ् तत्पुरुष कहते हैं। जैसे अन्याय (जो न्याय न हो) अनपढ़ (न पढ़ा हुआ) अछूता (न छुआ हुआ)।
तत्पुरुष समास का दूसरा पद जब ऐसा कृदन्त होता है जिसका स्वतन्त्र उपयोग नहीं हो सकता तब उस समास को उप पद समास कहते हैं। जैसे कृतज्ञ (किये को जानने वाला)।
(ख) समानाधिकरण तत्पुरुष या कर्मधारय
जिस तत्पुरुष समास के विग्रह में दोनों पदों के बाद एक ही-कर्ता कारक की-विभक्ति आती है उसे समानाधिकरण तत्पुरुष अथवा कर्मधारय कहते हैं। इस समास के पद उपमान-उपमेय अथवा विशेषण-विशेष्य हैं। जैसे-नील- कमल = नीला कमल, यहाँ नीला विशेषण और कमल विशेष्य है तथा उत्तर पद कमल प्रधान है।
(उपमान-उपमेय) घनश्याम = घन (बादल) जैसा श्याम (काला)। भव- सागर = भवरूपी सागर। विद्याधन - विद्या रूपी धन। क्रोधाग्नि - क्रोध रूपी अग्नि । आशानदी - आशा रूपी नदी।
(विशेषण-विशेष्य) महाराज (महान् राजा) पुच्छलतारा (पूंछ वाला तारा), "नीलगाय', 'कालीमिर्च'।
कर्मधारय समास में कभी-कभी विशेषण या उपमान अन्त में भी रख दिये जाते हैं, अथवा कहीं-कहीं दोनों पद विशेषण होते हैं। जैसे (विशेषण अन्त में) देशान्तर, (उपमान अन्त में) 'चरणकमल' पाणिपल्लव, (दोनों पद विशेषण) नील-पति', 'खटा-मिट्टा'।
कर्मधारय में कभी-कभी सम्बन्ध बताने वाले बीच के पद का लोप भी होता है। जिस 'कर्मधारय' समास में पहले शब्द का दूसरे से सम्बन्ध बताने वाले बीच के पद का लोप हो जाता है उसे 'मध्यमपदलोपी' समास कहते हैं। जैसे-फलान्न (फल मिश्रित अन्न), दहीबड़ा (दही में डूबा हुआ बड़ा)। इसी प्रकार 'गुड़म्बा', गुड़धानी' आदि।
(ग) द्विगु
जिस कर्मधारय समास में पहला शब्द संज्ञावाचक विशेषण हो और जिससे किसी समुदाय का बोध हो उसे द्विगु समास कहते हैं। इसमें पहला शब्द संख्यावाचक विशेषण होता है अतः इसे संख्यावाचक कर्मधारय भी कहा जाता है। जैसे त्रिभुवन (तीन भुवनों का समूह) चौमासा (चार मासों का समूह) 'सतसई' 'दोपहर', 'पंसेरी', 'पंचक्रोसी', 'सप्तपदी' आदि।
3. द्वन्द्व
जिस समास में सब खण्ड प्रधान होते हैं और विग्रह करने पर जिसमें 'और', 'या', 'अथवा' आदि योजक लगते हैं उसे द्वन्द्व समास कहते हैं। जैसे-धर्माधर्म - धर्म और अधर्म, पापपुण्य - पाप अथवा पुण्य, भला-बुरा = भला और बुरा। ऐसे ही 'ऋषि-मुनि', 'दाल-रोटी', 'हाथ-पाव', 'तन-मन', 'भूल-चूक' आदि द्वन्द्व समास के उदाहरण हैं।
द्वन्द्व समास से बने समस्त शब्दों का लिग साधारणतया अन्तिम खण्ड के अनुसार होता है, पर यदि पूर्वखण्ड प्रधान या श्रेष्ठ का वाचक हो तो उसी के अनुसार लिंग हो जाता है जैसे-दाल रोटी खाई, दालभात खाया, राजा-रानी आये।
द्वन्द्व समास में एक से अधिक शब्द जुड़ते हैं अत: इसका प्रयोग बहुवचन में होना चाहिए, पर हिन्दी में कुछ समस्त पद ऐसे हैं जो सदा एकवचन में ही प्रयुक्त होते हैं और कुछ ऐसे हैं जो बहुवचन में जैसे- ( एकवचन) दालरोटी खाई होने पर (बहुवचन), माता-पिता आये, राम-लक्ष्मण कहते थे। परन्तु विभक्ति परे होने पर बहुवचन का चिह्न ' ओ' नहीं लगता है। जैसे-राम लक्ष्मण (राम-लक्ष्मण नहीं) ने वन की ओर प्रस्थान किया। परन्तु जब समस्त होने वाले शब्द बहुत व्यक्तियों या पदार्थों के लिए आये हों तब विभक्ति परे होने पर बहुवचन के चिह्न' ओ', 'ऐ' आदि लगते हैं, जैसे-धनीमानियों ने, सेठसाहूकारों ने। कभी-कभी तो बहुवचन-सूचक विकार प्रत्येक खण्ड के साथ भी पाया जाता है, जैसे-आपके कितने लड़के-लड़कियाँ हैं।
4. बहुब्रीहि
जिस समास में कोई भी शब्द प्रधान नहीं होता बल्कि समस्त शब्द अपने खण्डों से भिन्न किसी संज्ञा का विशेषण होता है उसे बहुब्रीहि समास कहते हैं जैसे-दशकन्धर = दश हैं कन्धर (सर) जिसके, यह रावण का विशेषण हैं। अनन्त = नहीं है अन्त जिसका, ईश्वर का विशेषण है अनंग = नहीं है अंग जिसके कामदेव का नाम है। बारहसिंगा = बारह हैं सींग जिसके। पंजाब = पंज, आब, पाँच हैं आब (नदियाँ) जिसमें। मिठबोला - मीठा है बील जिसका दोरंग दो रंगों वाला।
कर्मधारय और बहुव्रीहि समास में यह अन्तर है कि कर्मधारय में समस्त शब्द का पहला खण्ड दूसरे खण्ड का विशेषण होता है पर बहुव्रीहि समास में सारा समस्त शब्द अपने खण्डों से भिन्न किसी अन्य शब्द का विशेषण होता है। कई समस्त शब्द अर्थ-भेद से विभिन्न प्रकार के समास हैं। जैसे
मृगलोचन-भृग के लोचन (सम्बन्ध तत्पुरुष) ।
मुगलोचन-मृग के समान लोचन वाला (बहुव्रीहि)।
पीताम्बर-पीला कपड़ा (कर्मधारय)।
पीताम्बर-पीला है अम्बर (कपड़ा) जिसका वह व्यक्ति (कृष्ण) (बहुब्रोहि)।
कई बार एक समस्त शब्द में कई समास होते हैं परन्तु सम्पूर्ण शब्द के अन्त का समास मुख्य माना जाता है। जैसे-राकेन्दुबिम्बानन यह पद राका इन्दु बिब + आनन, इन चार शब्दों के योग से बना है। राका का इन्दु = राकेन्दु (पूर्णिमा का चन्द्र), राकेन्दु का बिम्ब - राकेन्दु बिम्ब, राकेन्टु बिम्त्र के समान जिसका आनन (मुख) वह स्त्री राकेन्दुबिम्बानना होगी। इस प्रकार सम्पूर्ण शब्द में बहुब्रीहि समास है।
इस प्रकार के लम्बे समासों का प्रयोग प्रायः संस्कृत में ही होता है।
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