Friday, March 19, 2021

छायावाद

 

                                      छायावाद


       परिचय-

     साधारणतः दो महायुद्धों के बीच में जिस कविता धारा का विकास हुआ. उसे छायावाद के नाम से पुकारा गया। इसका समय सन् 1920 ई. से लेकर 1935 ई. तक रहा। इस युग में हिन्दी कविता अपने उच्च शिखर पर पहुंच चुकी थी इस काल के कवियों ने प्रेम और सौन्दर्य का सूक्ष्म चित्रण किया है। कला की दृष्टि से यह काल पूर्ण उत्कर्ष का काल रहा है।

   प्रमुख कवि एवं रचनाएँ 

छायावाद  के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त , सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' तथा महादेवी वर्मा हैं। उन्होंने विविध प्रकार के साहित्य की रचना की है। कामायनी, आँसू, रम की शक्ति पूजा, तुलसीदास वीणा, पस्लय, परिमल, गीतिका, रश्मि, नौसार, नीरजा, यामा आदि प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं।

  छायावाद की सामान्य विशेषताएँ

 (1) प्रेम एवं सौन्दर्य का चित्रण 

       छायावादी कवियों ने प्रेम एवं सौन्दर्य का सूक्ष्म चित्रण किया है। प्रकृति सौन्दर्य और नारी सौन्दर्य के मोहक चित्र इस काव्य में मिलते हैं । प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों की बदयस्पर्शी एवं मार्मिक झाँकी छायावादी कविता में विद्यमान है। जयशंकर प्रसाद ने अपनी 'कामायनी' महाकाव्य में श्रद्धा के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखा है-


                        "नील परिधान बीच सुकुमार,

                         खुल रहा मृदुल अधखुला अंग। 

                         खिला हो ज्यो बिजली का फूल

                         मेघ वन बीच गुलाबी रंग ।।"

(2) प्रकृति-चित्रण 

       छायावादी कवि का मन प्रकृति-चित्रण में रमा है। इन कवियों ने प्रकृति के आलम्बन रूप का चित्रण किया है । इस कविता में प्रकृति कवि की भावनाओं को व्यक्त करने वाली है। प्रसाद जी के आशावादी दृष्टिकोण को निम्न पंक्तियों में देखिए

                  "न काटों की है कुछ परवाह, सजा रखता हूँ उन्हें सयन । 

                    कभी तो होगा इसमें फूल सफल होगा यह कभी प्रयत्न ।

(3) व्यक्तिवादी काव्य-

        रचना छायावादी काव्य में कवियों की व्यक्तिगत अनुभूति प्रकट हुई है। वे कविता में स्वयं 'प्रथम पुरुष में बोलते हैं। महादेवी वर्मा की कविता का एक  उदाहरण प्रस्तुत है ----

                  "मैं नीर भरी दुःख की बदली।"

(4) रहस्य-भावना 

      छायावाद के सभी कवियों ने रहस्यवाद के द्वारा अपनी आन्तरिक भावनाओं को व्यक्त किया है। उनके मन का कौतूहल विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ है । सचेतन प्रकृति के पीछे किसी सत्ता के होने का अनुभव करते हुए सुमित्रानन्दन पन्त लिखते हैं

                  "न जाने नक्षत्रों से कौन,

                    निमन्त्रण देता मुझको मौन ?"

(5) वेदना एवं निराशा की भावना 

      इस धारा के कवियों में वेदना एवं निराशा की भावना विद्यमान है। इनकी वेदना उदार एवं संवेदनापूर्ण हैं। अन्य कवियों की अपेक्षा महादेवी वर्मा में वेदना की अधिकता है। इसी कारण वे आधुनिक मीरा' कहलाती हैं। 

(6) देश-प्रेम की भावना-

      छायावाद के सभी कवियों में देश प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी है। राष्ट्रीय जागरण के समय में इन्होंने स्वतन्त्रता का आह्वान किया है। प्रसाद का "आह्वान गीत' तथा निराला की 'भारति वन्दना' इसके स्पष्ट उदाहरण हैं ।

(7) नारी का गरिमामय रूप 

      इस युग के काव्य में नारी का गरिमामय रूप चित्रित हुआ है। युगों से उपेक्षित नारी इस काल में सम्माननीय हो गयी है। उसके माँ, सहचरी आदि सभी रूप प्रेरणा देने वाले हैं। प्रसाद जी लिखते हैं कि -- 

        "नारी तुम केवल हो विश्वास रजा-नग-पग-ताल में। 

        पीयूग खोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ।'

(8) भाषा-शैलीगत नवीनता 

       छायावादी कविता में भाषा तथा शैली का नवीन सशक्त रूप मिलता है। इस काव्य में खड़ी बोली का शुद्ध तथा परिमार्जित रूप मिलता है। भाषा में लाक्षणिकता तथा संगीतात्मकता विद्यमान है। इस कविता में मानवीय भावनाओं को प्रतीकों तथा बिम्बों के द्वारा व्यक्त किया गया है। मूर्त से अमूर्त का विधान करके अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाया गया है। प्रबन्ध तथा मुक्तक दोनों प्रकार के काव्य लिखे गये हैं, किन्तु प्रधानता मुक्तक काव्य की

(9) छन्द एवं अलंकारगत नवीनता 

       छायावदी कवियों ने प्राचीनकाल से चले आ रहे জन्दों के स्थान पर नये छन्दों का भी प्रयोग किया है। इस युग में छन्द मुक्त कविता पी लिखी गयी है। अतुकान्त छन्दों का प्रारम्भ इसी युग की देन है। इन कवियों द्वारा नये-नये अलंकारों, मानवीयकरण, धन्यर्थ व्यंजना विशेषण-विपर्यय आदि को अपनाया तथा नवीन उपमान महण किए गये।

(10) निष्कर्ष 

इस प्रकार छायावाद कविता का उत्कर्ष काल है। इसमें भाव तथा कला, दोनों का पूर्ण विकास हुआ है। 



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