Saturday, March 20, 2021

मुक्तक काव्य

 

                           ********* मुक्तक काव्य ********

               'बंध' की दृष्टि से प्राचीन भारतीय समीक्षकों ने श्रव्य-काव्य के दो भेद माने हैं-प्रबन्ध और मुक्तक। प्रबन्ध में कथा होने से पूर्वापर-सामबन्ध रहता है, परन्तु मुक्तक में पूर्वापर-सम्बन्ध का निर्वाह आवश्यक नहीं रहता, क्योंकि इसका प्रत्येक छंद स्वतंत्र रहता है और प्रबन्ध काव्य की भांति इसमें कोई कथा नहीं होती। हाँ, कुछ मुक्तक अवश्य ऐसे होते हैं, जिनका प्रत्येक ंद स्वतंत्र अथवा अपने आप में पूर्ण भी होता है और उनमें एक कणा-सूत्र भी अनुस्यूत होता है। सूर का 'भ्रमरगीत', तुलसी की 'विनयपत्रिका' एवं 'गीतावली' बसके उदाहरण हैं।

            मुक्तक का स्वरूप-आधुनिक समीक्षकों के अनुसार काव्य के दो भेद होते हैं व्यक्तित्व-प्रधान अर्थात् विषयीगत (Subjective) तथा विषय-प्रधान (Objective) । इन्ने क्रमशः भाव-प्रधान और विषय-प्रधान भी कहते हैं। इस दृष्टि से मुक्तक भाव-प्रधान काव्य की श्रेणी में आता है। भाव-प्रधान कविता में कवि की वैयक्तिक अनुभूतियों, भावनाओं और आदर्शों की प्रधानता रहती है। भाव प्रधानता के कारण इसमें गीतात्मकता का विशेष स्थान रहता है। हेमचन्द ने 'शब्दानुशासन' में "अनिबद्ध मुक्तकादि" कहकर यह भाव व्यक्त किया है कि मुक्तकादि अनिबद्ध होते हैं।

           मुक्तक' शब्द के अर्थ भी कोशकारों ने कई प्रकार से किये हैं यथा-"जो काव्य अर्थ-पर्यवसान के लिए किसी का मुखापेक्षी न हो, वह मुक्तक कहलाता है।"

          'मुक्तक' का शाब्दिक अर्थ है-मुक्त रहने वाला, स्वतंत्र रहने वाला या मोक्ष प्राप्त कर लेने वाला । इस दृष्टि से मुक्तक वह काव्य-रचना है जो पूर्वापर-सम्बन्ध की अपेक्षा न रखती हो, अर्थात् जो रचना अपने में स्वतंत्र हो तथा पूर्ण अर्थ देने में समर्थ हो ।

आचार्य दण्डी के अनुसार

                  "मुक्तक वाक्यान्तर निरपेक्षो वा श्लोकः ।"

    (मुक्तक वह काव्य-रचना है, जो पूर्वापर-प्रसंगकी अपेक्षा न रखती हो।)

मुक्तक की परिभाषा

    (1) अग्निपुराण-"मुक्तकं श्लोक एकैकश्चमत्कार धामः सताम्।" अर्यात् सहदयों को चमत्कृत करने में समर्थ श्लोक ही मुक्तक है। 

    (2) आचार्य दण्डी-"मुखसकं वाक्यांतर निरपेक्षो यः शलोकः । " अर्थात् मुक्तक वह श्लोक है जो वाक्यांवर निरपेक्ष हो।

   (3) अभिनवगुप्त-"पूर्वापर निरप्रेक्षेणापि हि वेन रसबर्वणं क्रियते तदेव मुक्तकम्।" अर्थात् मुक्तक आगे-पीछे के पदों से सम्बन्ध न रखकर भी, एक ऐसा निरपेक्ष छन्द है जो स्वतः रसोद्रेक कराने में पूर्णतः समर्थ होता है।

   (4) आनन्दवर्धन-"तत्र मुक्तकेषु प्रकन्धेच्यव रस बन्धाभिनिवेशिन कवयोऽश्यते ।" अर्थात् प्रबन्ध के अनुसर मुक्तक में भी रस को उत्पन्न करने वाले कवि पाये जाते हैं।

    (5) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-"मुक्तक में प्रबन्ध के समान रस की धारा नहीं रहती, जिसमें कथा प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और उदय में एक स्थायी प्रभाव महण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छीटे पड़ते हैं, जिनमें हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है।"

    (6) डॉ. रामदत्त भारद्वाज-"प्रबन्धहीन स्फुट पद्य (कभी-कभी गद्य) रचना को भी मुक्तक कहा जाता है।"

     मुक्तक की विशेषताएँ-

 प्रबन्ध काव्य को 'एक विस्तृत वनस्थली' और मुक्तक को एक चुना हुआ गुलदस्ता' कहकर आचार्य शुक्ल ने यह भी कहा है- "उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संगठित पूर्ण जीवन का या उसके किसी अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि एक रमणीय खण्ड-दृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्र-मुग्ध-सा हो जाता है।"

अतः शुक्लजी के अनुसार मुक्तक की निम्न विशेषताएं हैं

(1) एक रमणीय मार्मिक चुने हुए खण्ड दृश्य का सहसा आनयन ।

(2) चयन, संयम और मण्डन की प्रवृत्ति ।

(3) कुछ क्षणों के लिए चमत्कृत की प्रवृत्ति

(4) कल्पना की समाहार शक्ति ।

(5) भाषा और समास शक्ति ।

       इन विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए संक्षेप में मुक्तक की विशेषताएं इस प्रकार प्रस्तुत की जा सकती है

(1) इसमें पूर्ण जीवन की नहीं, अपितु रमणीय, मार्मिक, चुने हुए खण्ड-दृश्य की झाँकी ही मिलती है।

(2) इसे कवि अपनी उत्कृष्ट कल्पना के आधार पर संक्षिप्त रूप से सशक्त भाषा में प्रस्तुत करता है।

(3) इसमें पूर्वापर-प्रसंग का निर्वाह नहीं होता और यह स्वयं रस प्रदान करने में पूर्ण समर्थ होता है।

(4) मुक्तक किसी एक अनुभूति की कल्पना का चित्र होता है, जिसमें माधुर्य और संगीत भी होता है।

       मुक्तक और प्रबन्ध में अन्तर-डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार- "प्रबन्ध और मुक्तक दोनों ही पद्यात्मक काव्य के दो प्रकार हैं। रमणीयता, अभिव्यक्ति, सौष्ठव और चमत्कार-योजना की दृष्टि से दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं होता। भेद होता है-पूर्वापर सम्बन्ध निर्वाह तथा निरूप्य वस्तु की दृष्टि से ।

       प्रबन्ध काव्य में सर्वत्र सानुबन्ध कथा होती है। उस कथा में पूर्वापर-सम्बन्ध -निर्वाह, प्रकथन-प्रवाह, कथावस्तु का सुगठित विन्यास एवं सांग-रस-परिपाक अवश्य पाया जाता है। मुक्तक काव्य में इन सब बातों का अभाव रहता है इनके स्थान पर उसमें निरपेकष चित्रण, चमत्कार-योजना, रसाभिव्यक्ति आदि तत्व विद्यमान रहते है। वर्ण्य-विषय की दृष्टि से प्रबन्ध काव्य में सम्पूर्ण जीवन की झाँकी प्रस्तुत की जाती है, जबकि मुक्तक में उसके किसी रमणीय पक्ष के सौन्दर्योदघाटन पर ही ध्यान केन्द्रित रहता है।


                     ********   मुक्तक के भेद (वर्गीकरण)   *******

   (1) संस्कृत के काव्यशायियों ने मुक्तकों का वर्गीकरण संख्या और वर्णन-शैली के आधार पर किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने 'शब्दानुशासन' में श्लोक संख्या के आधार पर मुक्तकों के नौ भेद किए हैं---

(i) मुक्त,                          (ii) सन्दात्तिक,

(iii) विशेष,                     (iv) कलापक, 

(v) कुलक,                       (vi) कोष,

(vii) संघात,                     (vii) प्रधदृक,

(ix) दिवीर्णक।

(2) आचार्य आनन्दवर्धन ने मुक्तक काव्य के छः भेद किये हैं-

(i) मुक्तक,            (ii) सन्दात्तिक,

(iii) सन्दात्तिक,     (iv) कलापक, 

(v) कुलक,            (vi) पर्यायबन्ध।

(3) विश्वनाथ ने श्लोक संख्या, रचनाकार एवं विषय के अनुसार मुक्तक काव्य के पाँच भेद किये हैं।

(i) मुक्तक,           (ii) युग्मक,

(iii) सन्दात्तिक,     (iv) कलापक, 

(v) कुलक,           (vi) कोश,    

(vii) व्रज्या ।

(4) राजशेखर ने विषय-वस्तु के आधार पर मुक्तक के पांच भेद माने हैं-

    (i) शुद्ध -  इतिवृत्त या इतिहासरहित अर्थ शुद्ध है।

    (ii) चित्र  - उसे विस्तार के साथ चित्रित करता है ।

    (iii) कथोत्थ-प्राचीन कथा या इतिहास का संयुक्त अर्थ कथोत्य है।

    (iv) संनिधानिक भू -जिसमें घटना सम्भावित हो।

    (v) आख्यानक बान-जिसमें इतिहास की कल्पना की जाए।

       संस्कृत आचार्यों ने मुक्तक के जो भेद अथवा रूप गिनाये हैं, उनमें से अधिकांश का प्रचलन हिन्दी कविता में नहीं है। पाश्चात्य विद्वानों ने 'लिरिक' (Lyric) को मुक्तक कहा है, और उसके कई भेद किये हैं।

       हिन्दी विद्वानों ने भारतीय (प्राचीन) एवं पाश्चात्य चिंतन का आधार लेकर निम्न प्रकार वर्गीकरण किया है -- 

(1) डॉ. गुलाबराय-उन्होंने मुक्तकों के दो भेद माने

     (i) पाठ्य मुक्तक,    (ii) गेय मुक्तक ।

   इन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि इस विभाजन के बीच कोई लक्ष्मण रेखा नहीं खींची जा सकती है।

(2) डॉ. शम्भूनाथ सिंह का निम्न वर्गीकरण अधिक वैज्ञानिक और सरल प्रतीत होता है -

   (i) संख्याश्रित  मुक्तक काव्य जैसे मातृका भंजक (दोहा मातृका) ककहरा, अखरावट, बारहखड़ी, बारहमासी आदि।

   (ii) छन्दाचित मुक्तक काव्य दोहावली, कवितावली आदि।

   (ii) रागाश्रित मुक्तक काव्य रास, लावनी, रेखता आदि।

   (iv) पूजा-धर्म आश्रित मुक्तक काव्य स्तोत्र, स्तुति, स्तवन आदि।

(3) डॉ. रामसागर त्रिपाठी-डॉ. त्रिपाठी ने अपने शोध प्रबन्ध 'मुक्तक काव्य परम्परा और बिहारी' में मुक्तकों को इस प्रकार बाटा है-

    (i) रसात्यक मुक्तक-इस वर्ग के अन्तर्गत रस, भाव, रसाभाव, भावाषास, भाव शांति, भावोदय, भाव सन्धि, भाव-सबलता आदि मनोवृत्तियों की समस्त दशाएँ आती हैं।

    (ii) धार्मिक मुक्तक-नस वर्ग के अन्तर्गत स्तुतिपरक वैदिक ऋचाएँ, पौराणिक स्तोत्र तथा बौस एवं जैन स्तोत्रों को सन्निविष्ट किया जाता है।

    (iii) प्रशस्ति मुक्तक-इस वर्ण में राजाओं तथा आश्रयदाताओं की दानशीलता, वीरता, उनके सौन्दर्य-वर्णन की रचनाएँ आती हैं।

    (iv) सृक्ति मुक्तक-इस वर्ग के अन्तर्गत उन रचनाओं को रखा जाता है, जिनमें कल्पना की उड़ान अलौकिक वर्णन एवं उक्ति-वैचित्र्य की अभिव्यक्ति होती है। 

 (4) आचार्य श्यामसुन्दर दास-इन्होंने मुक्तक के दो भेद किये हैं

     (i) भावात्पक व्यवित्तत्व प्रधान अथवा आत्माभिव्यंजक-जिस पद में कवि अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश करके अपने अनुभवों तथा भावनाओं से प्रेरित एवं अपने प्रतिपाद्य विषय को खोज निकालता है उन्हें इस वर्ग में स्थान दिया जा सकता है ।

     (ii) विषय-प्रधान अथवा भौतिक-जिस पद में कवि अपनी अन्तरात्मा से बाहर आकर सांसारिक कृत्यों और रागों में पड़कर वर्णन करता है, वे इस वर्ग में आते हैं।

 (5) डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत-त्रिगुणायतजी ने मुक्तकों के तीन भेद किये हैं

   (i) रीति-मुक्तक      (ii) नीति-मुक्तक तथा      (iii) गीति-मुक्तक ।

        वर्गीकरण के अनेक आधार हो सकते हैं, यथा-सरूप, शैली, विषय आदि इन सब आधारों को लेकर वर्गीकरण करना कठिन कार्य है।


          ********* मुक्तक काव्य की परम्परा (हिन्दी) ********


(1) भवित-काल हिन्दी मुक्तक काव्य का प्रौढ़ रूप भक्ति-काल में सामने आया। कबीर आदि सन्त कवियों के पद मुक्तक काव्य की श्रेणी में आते हैं। इसी काल में सूर का 'प्रमरगीत' और तुलसी की 'विनय-पत्रिका, गीतावली', 'कवितावली', 'श्रीकृष्ण-गीतावली', 'दोहावली, वैराग्य संदीपनी' एवं 'बरवै रामायण आदि का आविर्भाव हुआ।

       अष्टछाप के कवियों सूर, नन्ददास, परमानन्ददास, कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्द-स्वामी, कृष्णदास, चतुर्भुजदास ने शत-सहस पदों की रचना की।

       अकबरी दरबार के कवियों में से गंग (गंग पदावली, गंग रतनावली), रहोम (रहिमन विलास, रहीम रेलावली तथा बरवै नायिका भेद), सेनापति (कवित्त रत्नाकर) आदि अत्यधिक प्रसिद्ध मुक्तक काव्य हैं।

(2) रीति-काल रीति-काल को तो मुक्तक रचना का हो युग माना जाता है। चाहे वे रीतिकार रहे हों या रीतिमुक्त या रीतिसिद्ध कवि या भूषण जैसे वीर कवि, सब की रचनाएँ मुक्तक रचनाएँ हैं।

(3) आधुनिक-काल-आधुनिक-काल में गीत,नवगीत,अकविता,नयी कविता आदि के रूप में मुक्तक ही महत्त्व पा रहा है। 

    गध-काव्य के तत्व-डॉ. पयसिंह शर्मा 'कमलेश' ने गद्य-काव्य के निम्न सात तत्त्वों का उल्लेख किया है।

(1) अनुभूति की गहराई-गद्य-गीत सरस गद्यात्मक शैली में लिखा होने के कारण अनुभूति की गहराई की अपेक्षा करता है। जब तक यह नहीं होगी, गद्य-गीत क्लिष्ट गद्य रचना माननवार रह जायेगा।

(2) भावावेग-गोत का प्रधान गुण ही नैसर्गिक भावोद्रेक है। भावों का उद्देक तो तभी होगा, जब भावों का आवेग होगा। अतः गद्य-गीत के लिए भावावेग नितान्त आवश्यक है। 

(3) कल्पना की प्रधानता--गद्यकाव्य में प्रायः कथाहीनता होती है,उसमें भाव या विचार ही प्रमुख रहता है, अतः कल्पना के आधार पर ही उसका सुजन होता है।

(4) कथा-तत्व अथवा घटना-ताच की न्यूनता-पटना-तत्त्व या कथा-तत्त्व का समावेश होते ही, उसका रसात्मक-भावात्मक स्वरूप खण्डित हो उठेगा।

 (5) एकत्यता गध-गीत तो प्रायः एक ही तथ्य को उभारता है, पर गद्य-काव्य में प्रायः विविधता भी देखी जा सकती है। बहु-तथ्यों का समावेश गए-काव्य की सरसता खण्डित कर देता है।

(6) बुद्धि-तत्त्व का हल्का-सा पुट कोरी भावुकता, सरसता न तो गद्य में अपेकषित है न काव्य में। काव्य के तीन प्रमुख तत्त्व बुद्धि तत्व, भाव तत्त्व तथा कल्पना तत्त्व का समावेश उसमें अपेक्षित है।

(7) अनूठा शब्द-चयन तथा अनूठी वाक्य-रचना—यह तो गद्यात्मक होते हुए भी उसकी सरसता का आधार है।


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