Saturday, March 20, 2021

काव्य-मीमांसा

 

                                 काव्य-मीमांसा


           काव्यालापाश्च ये केचिद् गीतकान्यखिलानि च ।

           शब्दमूर्तिधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मनः । ।

        विष्णुपुराण में कहा गया है कि सब काव्य, नाटक तथा सम्पूर्ण गीत शब्द-मूर्तिधारी विष्णु के ही अंश हैं। अर्थात् काव्य के शब्द सामान्य वस्त्तु नहीं, अपितु साक्षात् भगवान विष्णु का ही शरीर है।

        अच्छे काव्यों के अध्ययन और अनुशीलन से धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। साथ ही साथ इससे संसार में यश मिलता है और हृदय में प्रसन्नता बढ़ती है। काव्यानंद और ब्रह्मानंद सहोदर हैं।


काव्य क्या है?

        'वाक्यं रसात्मकं काव्यं' रस सिद्ध वाक्य को काव्य कहते हैं। रस सिद्ध वाक्य का अर्थ है मन को रमाने या सुख देने वाला। यह आवश्यक नहीं है कि सुखात्मक वर्णन पढने, सुनने या देखने में ही हमारा मन रमे, वह दुःखात्मक वर्णन में भी पूर्णतः तल्लीन हो जाता है - जैसे गोपियों के विरह वर्णन में। दूसरे सीता के खो जाने पर राम की जिस व्याकुलता का वर्णन मार्मिक शब्दों में तुलसी ने किया है वह दुखात्मक होते हुए भी परम रमणीय है।

         काव्य के दो भेद होते हैं - दृश्य और श्रव्य । जिस काव्य को अभिनय द्वारा प्रदर्शित किया जा सके उसे 'दृश्यकाव्य' कहते हैं। इसे रूपक भी कहते हैं क्यों कि इस में अभिनेता काव्य में वर्णित पात्र के रूप का अपने पर आरोप करता है। अर्थात् उसके वेश, बोली तथा चेष्टा ओं का अनुकरण करता है। नाटक, एकांकी आदि इस वर्ग में आते हैं।

         जिस काव्य को पढ़ते-पढ़ते या सुनते-सुनते आनंद पाते हैं उसे 'श्रव्य काव्य' कहते हैं। इस श्रव्य काव्य के तीन भेद माने जाते हैं-गद्य, पद्य और चम्पू।

         गद्यात्मक श्रव्य काव्य में कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि आते हैं। पद्यात्मक श्रव्य काव्य में 'प्रबंध' और 'मुक्तक' दोनों ही प्रकार की रचनाएं सम्मिलित होती हैं। 'महाकाव्य' और 'खण्डकाव्य' प्रबन्धात्मक रचनाएँ हैं और परस्पर पूरकता से निरपेक्ष एक भाव-विस्तार पर टिकी रहनेवाली छोटी-छोटी रचनाएँ 'मुक्तक' हैं। रुबाई, गजल आदि इसी 'मुक्तक' वर्ग में आती हैं। 'चम्पू' में कोई रमणीय कथावस्तुवाली एक ही रचना कभी 'गद्य' और कभी 'पद्य' के सहारे प्रस्तुत की जाती है।


                          शब्द शक्ति विवेचन

      काव्य की रमणीयता शब्दों पर निर्भर है। शब्दों के भिन्न-भिन्न रूप व, भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं और अर्थों का बोध करानेवाले भिन्न अर्थ व्यापार होते हैं। प्रधानतः शब्द तीन प्रकार के माने गये हैं, वाचक, लक्षक और व्यंजक । 

आचार्य मम्मट ने काव्य प्रकाश में कहा है 

         'स्याद्वचिको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्तथा'

         उक्त तीन प्रकार के शब्दों के तीन प्रकार के अर्थ माने गये हैं; वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ, तथा व्यंग्यार्थ । इन अर्थों का बोध करानेवाली तीन शब्द शक्तियाँ होती है, अभिधा, लक्षणा, व्यंजना ।

     अभिधा - प्रत्येक शब्द का कोई न कोई सांकेतिक (व्याकरण, कोश तथा लोक व्यवहार आदि के द्वारा निश्चित) अर्थ होता है, अभिधा उसी का ज्ञान कराती है। इस 'अभिधा शक्ति' से तीन प्रकार के शब्दों का बोध होता है। ये तीन प्रकार के शब्द है - रूढ, यौगिक ओर योगरूढ। रूढ शब्द वे हैं, जिनका खंड नहीं होता और जिन्हे जबर्दस्ती तोड़ देने पर उनका अर्थ बिखर जाता है; जैसे-राजा'। इस शब्द को तोड़ा नहीं जा सकता। जबर्दस्ती तोड देने पर 'रा' और 'जा' होगा, पर इनका सुसंगत अर्थ नहीं निकलेगा । यौगिक' शब्द एकाधिक शब्दों के योग से बने होते हैं। इनका सीधा अपना अर्थ तो होता ही है, इन्हें तोड़ देने पर इनके हुए प्रत्येक खंड का अलग-अलग अर्थ भी होता है; यथा-'राजकुमार', इसका अर्थ है राजा का लड़का । इस शब्द को तोड़ दिया जाय तो इस के दो खंड होंगे - 'राजा और कुमार', दन में प्रत्येक खंड का अर्थ साफ है - राजा का अर्थ 'राजा' और 'कुमार का अर्थ लडका। अतः 'राजकुमार' एक यौगिक शब्द है। 'योगरूढ' शब्द वे हैं, जिनका खण्ड तो किया जा सकता है, पर उन खंडों का अपना अर्थ प्रधान न होकर कोई तीसरा ही, बिल्कुल नया अर्थ प्रधान होता है। यह तीसरा अर्थ उन शब्दों के खंडों के लिए 'रूढ' - सा होता है इसलिए उसे 'योगरूढ' कहा जाता है। उदाहरण केलिए 'पीतांबर' शब्द को लें - पीत + अंबर; 'पीत' का अर्थ है 'पीला' और 'अंबर' का अर्थ है 'वस्त्र' याने दोनों को मिला कर पीला वस्त्र पहनने वाला होता है। पर प्रत्येक 'पीला वस्त्र पहनने वाले को हम पीतांबर नहीं कह सकते, कारण इसका अर्थ श्री कृष्ण' के लिए रूढ हो गया है। 'पीतांबर' का लोक प्रसिद्ध अर्थ एक ही है श्री कृष्ण या विष्णु ।

         लक्षणा-मुख्यार्थ के बाधित होने पर या उसके आघात होने पर 'रुढि या 'प्रयोजन' को लेकर जिस शक्ति के द्वारा मुरव्यार्थ से संबंध रखने वाले अन्य अर्थ व्यक्त होते हैं उसे लक्षणा कहते हैं। लक्षणा दो प्रकार की होती हैं १. रूढ़ि लक्षणा और २. प्रयोजनवती लक्षणा।

       रुढि लक्षणा वहाँ होती है जहाँ किसी शब्द के सांकेतिक अर्थ को छोड़ कर वह अर्थ लिया जाता है जो बहुत दिनों की रूढि या परम्परा से नियत हो गया हो। जैसे-यह लडका गधा है। लडका गधा नहीं हो सकता। यहाँ मुरव्य अर्थ में बाधा है। तब 'गधा' के मुख्य अर्थ से सम्बद्ध दूसरा अर्थ लिया जाता है - मेहनती किन्तु बुद्धि हीन। लोक प्रसिद्धि यह है कि गधे में भी ये गुण होते हैं।

       प्रयोजनवती लक्षणा वहाँ होती है जहाँ किसी शब्द का नियत अर्थ न लेकर उससे भिन्न अर्थ, किसी विशेष प्रयोजन से लिया जाता है। जैसे उसका गाँव तो गंगा में है' यह गंगापद, लाक्षिणिक है। इसका मुख्य अर्थ गंगा के तट पर। इसके प्रयोग करने का यह प्रयोजन है कि गंगा - तट पर गाँव के होने के कारण वह अत्यन्त पवित्र है। प्रयोजनकी लक्षणा के दो भेद होते हैं गौरी और शुद्ध ।

       गौणी लक्षणा का आधार सादृश्य-संबंध होता है। जैसे 'पुरुष सिंहहै' इस में पूरुष को सिंह कहने में मुव्यार्थ की बाधा है क्योंकि मनुष्य सिंह नहीं हो सकता। अतएव सिंह के समान पराक्रम, शौर्य आदि गुण द्वारा लक्ष्यार्थ अर्थात् 'सिंह के समान शक्ति शाली पुरुष' का बोध होता है। गौणी लक्षणा के दो भदे होते हैं - सारोपा और साध्यवसाना।

     व्यंजना - अपने अपने अर्थ का बोध करके 'अभिधा' एवं 'लक्षणा' नामक शब्द शक्तियों के विरत हो जाने पर जिस शब्द शक्ति दवारा व्यंग्यार्थ का बोध होता है, उसे 'व्यंजना' कहते हैं। उदाहरणार्थ - किसी ने कहा

       सूर्य अस्त हो गया। यहाँ शब्दों का अर्थ स्पष्ट है। अभिधा ने अपना काम पूरा कर दिया। किन्तु कहनेवाले का प्रयोजन कुछ और ही है। कहने वाला यदि श्रमिक है तो इस वाक्य का अर्थ होगा कि अब काम बंद कर विश्राम करना चाहिए। यदि छात्र है तो इसका अर्थ होगा अब संध्यावन्दन करना चाहिए, या घूमने चलना चाहिए। यदि चोर होगा तो कहना चाहेगा चलें अब रात के धंधे में लगें। इस प्रकार के भिन्न-भिन्न अर्थ अभिधा द्वारा नहीं प्रतीत हो सकते। मुरव्य अर्थ का बोध न होने के कारण यहाँ लक्षणा भी नहीं हो सकती। तब इस अर्थ का बोध केवल व्यंजना शक्ति द्वारा ही हो सकता है।

        'व्यंजना' के दो भेद किये जाते हैं - शाब्दी और अर्थी। शाब्दी व्यंजना वहाँ होती है, जहाँ वह शब्द-विशेष पर आधारित होती है। आर्थी व्यंजना वहाँ होती है, जहाँ वह सम्पूर्ण वाक्य के अर्थ में फैले व्यंग्यार्थ का वक्ता आदि की विशेषताओं के आधार पर बोध कराती है। शाब्दी व्यंजना के दो भेट किये जाते हैं - अभिधामूला शाब्दी व्यंजना एवं लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना। अभिधामूला में व्यंग्यार्थ के खुलने में 'अभिधा' शक्ति सहायकसिद्ध होती है और लक्षणामूला में व्यंग्यार्थ के खुलने में लक्षणा शक्ति सहायक सिद्ध होती है।

       अभिधा, लक्षणा और व्यंजना इन तीन उपाधियों से युक्त होने के कारण शब्द भी वाचक, लक्षक, और व्यंजक तीन प्रकार का होता है।


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