रस-निष्पत्ति
प्रचीनकाल से रस शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग होता रहा है। जैसे-सोमरस, गोरस। जिह्वा स्वाद की दृष्टि से भी भोजन में छः रस होते हैं, खट्टा, मीठा, कसैला, चिरपिरा, कडवा, तिक्त आदि। वाणी का रस रसनेन्द्रिय से भिन्न श्रवणेन्द्रियों से (कानों से) ग्रहण होता है। यह श्रवणेन्द्रियरस, साहित्य (पद्यसाहित्य, गद्यसाहित्य) द्वारा प्राप्त होता ह। सब प्रकार के रसों में श्रवणेन्द्रिय रस सर्वश्रेष्ठ स्वीकार किया गया है रसनेन्द्रियों से लौकिक सुख ही मिलता है लेकिन इस इट्रिय जन्य आनंद से भिन्न अलौकिक आनंद होता है। यही भाव जन्य आनंद काव्य रस हैं। इस भाव जन्य अनुभूति केलिए दो बातें आश्यक है—पहला भावों का सुन्दर या उदात्त होना। दूसरा व्यक्तिगत राग-द्वेषों से परे होना ।
अलौकिक आनंद का रस बाहर से नहीं, हमारी आत्मा का ही रस होता है। यह लौकिक ज्ञान से मुक्त होता है तथा चमत्कार पूर्ण होता है। यह व्यक्तिगत स्वार्थ न होकर राग-द्वेश से परे है। कवि का अनुभव और उसके काव्य का अनुभव करनेवाले सहदय का अनुभव इस कोटि में आते हैं।
आचार्यों ने शृंगार, हास्य, वीर, अद्भुत, शांत पाँच सुख प्रदान रस माने हैं तथा करुण, रौद्र, बीभत्स और भायानक दुखात्मक रस हैं। जो व्यक्तिगत अनुभूति प्राप्त न होकर सामूहिक एक ही प्रकार की अनुभूति प्राप्त कराये उसी को काव्य रस कहते हैं।
काव्य-रस देखने और सुनने दोनों से प्राप्त होता है। दृश्य काव्यों में नाटक तथा श्रव्य काव्यों में कविता, उपन्यास, कहानी आदि आते हैं। अतः देखने और सुनने से सामूहिक एक ही समान की अनुभूति रस की कोटि में आती है, जिसे पाठक या दर्शक सहज ही में पालेते हैं। इस प्रकार प्राप्त होने वाले आनंद को (दुख का हो या सुख का) रस कहते हैं।
दूसरे शब्दों में कहा जाय
जब हम नाटक या सिनेमा देखते हैं अथवा उपन्यास या कविता पढते हैं. तो हम अपने आपको भूल जाते हैं। कुछ पात्र हमारी सहानुभूति सहज ही पा लेते हैं। हम उनके बारे में सोचते समझते हैं और उनके सुख-दुख के भागी बनते हैं। उस समय हमें ऐसा अनुभव होता है, मानों उस सिनेमा या उपन्यास की घटनाएँ काल्पनिक न होकर हमारे जीवन से सबंधित हों। मेरी अवस्था में हम तल्लीन हो कर कुछ आनंद-विशेष का (सुख का हो, दुःख का) अनुभव करते हैं। ऐसे प्राप्त होनेवाले आनंद-विशेष को ही "रस" कहते हैं।
भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रस की परिभाषा इस प्रकार की है
"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः"
अर्थात् विभाव, अनुभाव, और व्यभिचारी भावों के संयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है।
दूसरे शब्दों में कहा जाय तो स्थाथी भाव जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से परिपक्व होकर सहदय को तरंगित करते हैं तब वे रस कहलाते हैं।
स्थायी भाव-आचार्यों ने मानवीय भावों को दो भागों में बाँटा है। स्थायी भाव और संचारी भाव। स्थायी भावों की संख्या नौ बतलाई हैं, शेष सभी को संचारी भाव माना है स्थायी भाव वे हैं जो हमारे हृदय में बीज रूप में सदा छिपे रहते हैं परन्तु किसी व्यक्ति, स्थान या समय को देखकर प्रकट हो जाते हैं। प्रत्येक रस का एक स्थाथी भाव होता है।
रति या प्रेम स्थाथी भाव शृंगार रस में, शोक करुण रस में, क्रोध रौद्र रस में, भय भयानक रस में, हास हास्य रस में, धृणा-बीभत्स रस में, उत्साह वीर रस में, विस्मय अद्भुत रस में, निवेद शांत रस में परिणत होते हैं।
विभावः- हृदय में सोते हुए स्थायी भाव जिन कारणों से जाग्रत तथा उद्दीप्त होते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। इनके दो भेद हैं।
१. आलंबन विभावः-जिसको देख कर स्थायी भाव जागे। जैसे बाल कृष्ण को देख कर यशोदा के मन में वात्सल्य जागता है।
२. उद्दीपन विभावः-जिससे जगा हुआ भाव और तीव्र हो। जैसे बालकृष्ण के घुटनों से चलना, मुँह पर दही का लेपन आदि ।
'सोभित कर नवनीत लिये
घुटरुनि चलत रेनु-तनु मंडित, मुख दधि लेप किये।
चारु कपोल, लोचन, गोरचन तिलक दिये।।
यह वात्सल्य रस का पद है। इस पद में बाल कृष्ण 'आलम्बन विभाव है और घुटनों से चलना, धूलि से भरा शरीर, मुँह पर दही का लेपन आदि "उद्दीपन विभाव' हैं।
अनुभावः-जिस व्यक्ति में स्थायी भाव जाग्रत हो उसकी चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं। उदाहरण के लिए करुण दृश्य को देखकर व्यक्ति की आखों से आँसू निकलना, सौन्दर्य को देखकर-मुग्ध होना, घृणा में नाक-भौं सिकोडना या थू थू करना, हर्ष में तालियाँ बजाना आदि। अनुभाव तीन प्रकार के होते हैं-
१. वाचिकः-आश्रय की वाणी से जो कुछ व्यक्त हो ।
२. सात्विक:-ये मानसिक अनुभाव हैं। इनके प्रकट होने में मन का अधिक प्रभाव होता है-ये आठ हैं-स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु, वेवण्ण्य, अश्रु, प्रलय ।
३. आंगिकः-शरीर की स्थूल चेष्टाएँ-भागना, मारना, तलवार चलाना आदि।
संचारी भाव-वे भाव जो स्थायी भाव में समुद्र के बुलबुले की तरह प्रकट और विलीन होते रहते हैं तथा रस के पूर्ण होने में सहायता देते हैं। इन संचारी भावों की यद्यपि सीमा नहीं, प्राचीन आचार्यों ने इनकी संख्या तैंतीस (३३) बतलाई है।
संवेदनशील मन की भित्र-भित्र तरंगे होती है: आशा-निराशा, उदासीनता, पश्चत्ताप, विस्मृति, विश्वास, दया, संतोष, असंतोष, क्षमा आदि कितने ही ऐसे भाव हैं जिनकी ओर आचार्यों का ध्यान ही नहीं गया । श्रष्ठ काव्य में संचारी भाव ऐसा होना चाहिए जो हमारी मानवीय संवेदनाओं को महान बनाये, जीवन को उच्चतम प्रेरणाएँ प्रदान करें और रागों का परिष्कार करें।
तैंतीस संचारी भाव ये हैं
निर्वेद, आवेग, श्रम, देन्य, मद, उग्रता, जडता, मोह, ग्लानि, चिंता, शंका, विषाद, व्याधि, आलस्य, गर्व, हर्ष, अमर्ष, असूया, धृति, मति, बीडा-चापल्य, अवहिथ्या, विबोध, स्वप्न, निद्रा, स्मृति, अपस्मार, उन्माद, औत्सुक्य, स्मृति, त्रास, मरण, वितर्क ।
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