हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास
उत्तर भारत की सबसे प्राचीन भाषा के रूप में वैदिक भाषा उपलब्ध है। इन वेदों में भी ऋग्वेद की भाषा बहुत प्राचीन है। ऋग्वेद के बहुत बाद में यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद की रचना हुई । इसी कारण चारों वेदों की भाषा में पर्याप्त भिन्नता है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद की भाषाओं में आकाश-पाताल का अंतर है।
वैदिक भाषा व्याकरण की दृष्टि से विकल्प प्रधान एवं संश्लिष्ट थी। लौकिक संस्कृत के रूप में इसे सरल बनाया गया। संस्कृत भी संश्लिष्ट तो रही, पर इसमें विकल्पों को बहुत कम स्थान दिया गया। इस कारण संस्कृत के शब्दों एवं धातुओं के रूप अपेक्षाकृत न्यून एवं सरल हो गये।
संस्कृत भाषा व्याकरण के नियमों की कठोरता के कारण केवल पंडितों की भाषा बनकर रह गई तो जन-सामान्य की भाषा का विकास पालि एवं प्राकृत के रूप में हुआ। ब्राह्मण धर्म के ग्रंथ जहाँ संस्कृत में हैं, वहीं बौद्ध धर्म के ग्रंथ पालि में एवं जैन धर्म के ग्रंथ प्राकृत में हैं। जब पालि एवं प्राकृत को भी व्याकरण के नियमों में जकड़ दिया गया एवं इनमें साहित्य रचना होने लगी तो इनका विकास अवरुद्ध हो गया।
पालि एवं प्राकृत का विकास अवरुद्ध हो जाने पर जनभाषा के विकास ने जो रूप ग्रहण किया,उसे अपभ्रंश नाम दिया गया। अपभ्रंश भाषा के स्थानीय भाव के कारण मागधी अपभ्रंश, अर्द्ध मागधी अपभ्रंश, शौरसेनी अपभ्रंश, पैशाची अपभ्रंश, महाराष्ट्री अपभ्रंश, ब्राचड़ अपभ्रंश एवं खस अपभ्रंश भेद किये गये। डॉ.धीरेन्द्र वर्मा ने अपभ्रंश भाषाओं का काल 500 ईसवी से 1000 ईसवी तक माना है। अपभ्रंश भी जब व्याकरण के नियमों में जकड़ दी गई एवं साहित्य की भाषा बनकर पंडितों तक सीमित रहने लगी तो जनभाषा वर्तमान आर्य भाषाओं के रूप में विकसित हुई ।
हिन्दी की उत्पत्ति-हिन्दी की उत्पत्ति अथवा उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ। सुविधा के लिये निम्नलिखित तालिका पर ध्यान दिया जा सकता हैैै ---
वर्तमान आर्य भाषा सम्बन्धित अपभ्रंश
(1) हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती एवं पहाड़ी भाषाएँ शौरसेनी
(2) राजस्थानी, गुजराती एवं पहाड़ी भाषाएँ शौरसेनी का नागर रूप
(3) बिहारी, बंगला, असमिया, उड़िया मागघ अपभ्रंश
(4) पूर्वी हिन्दी अर्द्धमागध अपभ्रंश
(5) मराठी महाराष्ट्री अपभ्रंश
(6) सिंधी ब्राचड़ अपभ्रंश
(7) लहंदा कैकय अपभ्रंश
(8) पहाड़ी भाषाएँ खस अपभ्रंश
हिन्दी साहित्य के इतिहास का आरम्भ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सन् 1000 ईसवी के लगभग (संवत् 1050 अथवा सन् 993 से) माना है। अधिकांश विद्वान् इससे सहमत हैं। कोई भी भाषा साहित्यिक भाषा बनने से पूर्व व्यवहार एवं बोलचाल की भाषा बनती है । इस परम्परा के अनुसार हिन्दी का आरम्भ एक-दो शताब्दी पूर्व भी माना जा सकता है, पर इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। प्रमाण केवल साहित्य के रूप में ही मिलता है एवं इसी रूप में मिल भी सकता है।
कोई भी भाषा बोलचाल में अर्थात् व्यावहारिक रूप में अथवा साहित्यिक प्रयोग में रातों-रात नहीं आ जाती। ऐसा नहीं हो सकता कि एक निश्चित तिथि तक लोग अपभ्रंश बोलते अथवा लिखते रहे हों और उसके अगले दिन हिन्दी बोलने और लिखने लगें। भाषाओं का व्यावहारिक एवं साहित्यिक परिवर्तन शनैः शनैः होता है। पहले अपभ्रंश के शब्दों का प्रयोग क्रमशः कम हुआ होगा और हिन्दी के शब्दों का प्रयोग आरम्भ हुआ होगा। जब तक अपभ्रंश के शब्द पचास प्रतिशत से अधिक और हिन्दी के इससे कम रहे, तब तुक इस भाषा को अपभ्रंश ही कहा जाता रहा। जब अपभ्रंश शब्दों का प्रतिशत पचास से कम और हिन्दी शब्दों का पचास से अधिक हुआ, तभी से उस भाषा का नाम हिन्दी पड़ा। अपभ्रंश के साहित्य में 800 ईसवी के लगभग हिन्दी के शब्दों का प्रयोग आरम्भ हो गया था। हिन्दी साहित्य में अपभ्रंश भाषा के शब्दों का प्रयोग किसी न किसी रूप में तेरहवीं शताब्दी तक होता रहा।
आधुनिक आर्य भाषाओं के विकास को डॉ.धीरेन्द्र वर्मा ने हिन्दी प्रदेश की उपभाषाओं का विकास कहा है। उन्होंने इसे निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त किया है
(1) प्राचीनकाल (सन् 1000 से 1500 ईसवी तक)-
यह काल हिन्दी का विकास काल था। हिन्दी इस समय अपनी उपभाषाओं एवं बोलियों से शब्द ग्रहण करती हुई इस काल में आकार ग्रहण कर रही थी। इस काल की हिन्दी में तद्भव शब्दों की प्रधानता है। विदेशी भाषाओं के भी कुछ शब्द रूप बदलकर इस काल की हिन्दी का अंग बनने लगे थे। इस समय हिन्दी की उपभाषाएँ अथवा बोलियाँ प्रमुख रूप से डिंगल, ब्रजभाषा, मैथिली, खड़ी बोली, पंजाबी एवं अवधी थीं। डॉ.धीरेन्द्र वर्मा ने इस काल की सामग्री की उपलब्धि के निम्नलिखित स्रोत स्वीकार किये हैं
(1) शिलालेख, ताम्रपत्र, एवं प्राचीन पत्र
(2) अपभ्रंश काव्य ।
(3) चारण काव्य ।
(4) हिन्दी अथवा प्राचीन खड़ी बोली में लिखा साहित्य ।
इस काल में विदेशियों के आक्रमण अधिक होने के कारण कला एवं समृद्धि के स्मृति चिह्न विनाश की भेंट चढ़ते रहे, इसलिये शिलालेख आदि बहुत कम हैं। सिद्धों एवं नाथों के रूप में अपभ्रंश काव्य कुछ मात्रा में उपलब्ध हैं चारण काव्य अवश्य हिन्दी साहित्य का अंग बनकर सुरक्षित है एवं इसी के आधार पर हिन्दी साहित्य के आदिकाल को 'बीरगाथा काल नाम दिया गया है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल का नाम 'सिद्ध चारण काल प्रस्तावित किया था । उससे भी यही भावना ध्वनित होती है। दिल्ली पृथ्वीराज की राजधानी थी। उनके राज्य में अजमेर का राज्य भी सम्मिलित था। चन्दबरदाई द्वारा रचित 'पृथ्वीराज रासो इस राज्य की गतिविधियों का लेखा-जोखा है। यह बात अलग है कि इसकी ऐतिहासिकता पर लोग सन्देह करते हैं। इस काल में दूसरा सशक्त राज्य कन्नौज था, जिसके दरबारी कवि भट्ट केदार की रचना जयमयंक जस चन्द्रिका है। नरपति नाल का हमीर रासो' भी इसी काल की रचना है। महोबे के परमाल राजा चन्देले के दरबारी कवि जगनिक का आल्हखण्ड' मौलिक रूप में उपलब्ध नहीं है।
इस काल की भाषा के नमूने अमीर खुसरो एवं कबीर की रचनाओं में मिल सकते हैं इन दोनों की भाषा वर्तमान खड़ी बोली के बहुत समीप है। मैथिल कोकिल विद्यापति भी इसी काल में हुए हैं । इनकी कविता से भी हिन्दी के आदिकाल के शब्द भंडार का आभास मिल सकता है। भाषा-शास्त्र की दृष्टि से इस काल के ग्रन्थों की भाषा के नमूने अत्यन्त संदिग्ध हैं। इनमें से किसी भी पन्थ की इस काल की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति उपलब्ध नहीं है। बहुत दिनों तक मौखिक रूप में रहने के बाद लिखे जाने पर भाषा में परिवर्तन का हो जाना स्वाभाविक है। अतः हिन्दी भाषा के इतिहास की दृष्टि से इन मन्थों के नमूने बहुत मान्य नहीं हो सकते ।"
(डॉ.धीरेन्द्र वर्मा-हिन्दी भाषा का इतिहास, पू.79-480)
(2) मध्यकाल (सन् 1500 से 1800 ईसवी तक)-
प्राचीनकाल अर्थात् पन्द्रहवीं शताब्दी समाप्त होते-होते हिन्दी पर से अपभ्रंश का प्रभाव पूर्णतया समाप्त हो चुका था। हिन्दी की प्रकृति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन यह आया कि वह देशज एवं अपभ्रंश तद्भव शब्दों के स्थान पर संस्कृत तत्सम शब्दों को ग्रहण करने लगी थी। वातावरण की दृष्टि से भक्ति आन्दोलन आरम्भ हो चुका था । राजनीति में एक प्रमुख परिवर्तन यह हुआ कि भारत का शासन तुर्कों से निकलकर मुगलों के पास पहुंच गया था। इस काल में साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी की दो ही बोलियाँ-जभाषा एवं अवधी ही समय हुई। वास्तविकता तो यह है कि इस काल में ब्रजभाषा ही साहित्य की भाषा बन गई थी। कुछ रामभक्त कवियों एवं अवध के रहने वाले प्रेममार्गीय कवियों ने अवधी में कविता अवश्य लिखी पर बजभाषा का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो चुका था। जीवन भर अवध में रहने वाले एवं अनन्य रामभक्त तुलसी का बजभाषा में 'विनय-पत्रिका' आदि की रचना करना इसका प्रमाण है।
इस समय हिन्दी ने अपनी समृद्धि हेतु अन्य भाषाओं के शब्दों को निःसंकोच प्रहण करना आरम्भ कर दिया था।
द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार इस काल खण्ड में 3500 फारसी शब्दों, 2500 अरबी शब्दों एवं 100 तुर्की शब्दों के अतिरिक्त पुर्तगाली, फ्रांसीसी एवं डच भाषाओं से भी बहुत से शब्द प्रहण किये गये। संस्कृत तो हिन्दी की जननी थी। उसके तो सम्पूर्ण शब्द भंडार पर का अधिकार था।
हिन्दी का साहित्यिक दृष्टि से यह काल भक्तिकाल का उत्तरार्द्ध एवं रीति का पूर्वार्द्ध कहा जा सकता है। भक्तिकाल में हिन्दी कविता का भावपक्ष एवं रीतिकाल में कलापक्ष कितना समृद्ध हुआ यह किसी से छिपा नहीं है ? इस काल के प्रमुख कवि कबीर जायसी, तुलसी, सूर, भूषण, बिहारी, देव एवं धनानंद हैं। खड़ी बोली उर्दू भी इस काल में सम्द्ध होने लगी थी। अनेक मुसलमान कवियों ने इसे समृद्ध बनाया। इनमें 'मीर एवं 'शैदा' के नाम उल्लेखनीय हैं।
इस काल में ब्रजभाषा साहित्यिक भाषा ही नहीं बन गई इसमें बहुत परिवर्तन भी हुआ। सूरदास एवं बिहारी की बजभाषा में आकाश-पाताल का अन्तर है। सूर की बूजभाषा जहाँ दैनिक व्यावहार की बजभाषा है, वर्ना बिहारी की बजभाषा साहित्यिक है। अजभाषा का साहित्यिक सामाज्य होने के कारण कवियों ने इसमें अपनी स्थानीय बोलियों के शब्दों का खुलकर प्रयोग किया, इसी कारण राजस्थान एवं बुन्देलखण्ड के कवियों की ब्रजभाषा भिन्न प्रतीत होती है।
(3) आधुनिक कारण (सन् 1800 ई. से अब तक) -
यह काल हिन्दी भाषा के पूर्ण विकास का काल है इस काल में सबसे बड़ा राजनीतिक परिवर्तन यह हुआ कि हिन्दी प्रदेश पर अधिकार जमाने का प्रयत्न अंग्रेजों, मराठों एवं अफगानों ने किया, जिसमें अंततः अंपेलों ने सफलता प्राप्त की । अंग्रेजों के शासनाधिकार के कारण अनेक परिवर्तन हुए, जिनका भाषा पर भी प्रभाव पड़ा। हिन्दी गद्य का प्रचलन करने में अंग्रेजों का बहुत कुछ योगदान है। मध्यदेश अर्थात हिन्दी भाषी प्रदेश पर अंग्रेजों के अधिकार एवं हिन्दी गद्य के लिये खड़ी बोली के प्रयोग का बजभाषा पर बहुत प्रभाव पड़ा। बजभाषा का साहित्यिक साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उसका स्थान खड़ी बोली ने महण कर लिया। कुछ ही वर्ष तक हिन्दी गद्य खड़ी बोली में एवं पद्य खजभाषा में लिखी गई। बाद में खड़ी बोली ने पद्य पर भी अधिकार कर लिया। आज बिहार, उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश में हिन्दी के नाम पर खड़ी बोली का साम्राज्य है। यह साहित्य, शिक्षा एवं प्रशासन की भाषा बनी हुई है।
खड़ी बोली का साम्राज्य स्थापित करने में समाचार-पत्रों एवं छापेखानों ने विशेष योग दिया। आज खड़ी बोली का व्यापक प्रभाव होते हुए भी प्रादेशिक बोलियाँ अपने-अपने अंचलों में जीवित हैं। इसी आधार पर इन्हें आंचलिक भाषा भी कहा जाता है आंचलिकता ने साहित्य में प्रवेश कर लिया है। आंचलिकता का आश्रय प्राप्त करके बजभाषा, अवधी, बुन्देलखण्डी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी आदि बोलियां साहित्य में आकर सुरक्षा प्राप्त कर चुकी हैं 1
इसी युग में हिन्दी की संस्कृतनिष्ठता एवं उर्दू की अरबी-फारसी बहुलता में वृद्धि हुई है। हिन्दी हिन्दुओं की एवं उर्दू मुसलमानों की भाषा बन गई। इनमें मध्यस्थता के प्रयत्न के कारण "हिन्दुस्तानी भी इसी काल में प्रादुर्भूत हुई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हिन्दी राष्ट्रभाषा के गौरव से विभूषित हुई, पर अंग्रेजी के सहभाषा बने रहने एवं कुछ अहिन्दी भाषी प्रान्तों के विरोध के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा का वास्तविक महत्व प्राप्त नहीं हो पाया है।
हिन्दी का साहित्यिक विकास पर्याप्त हुआ है। आज का हिन्दी साहित्य किसी भी भाषा के समक्ष गर्वपूर्वक प्रस्तुत किया जा सकता है। आज हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण भाषा है एवं नित्य उन्नति की ओर अग्रसर है।
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