सम्पर्क भाषा और राजभाषा के रूप में हिन्दी
(1) हिन्दी और राष्ट्रभाषा का परिचय -
कोई समय था, जब 'हिन्दू' 'हिन्दी', हिन्दुस्तान' का स्वर भारत में गूंजता था इसका तात्पर्य यही है कि हिन्दुस्तान हिन्दू जाति' और 'हिन्दी भाषा' का है वास्तविकता यही है कि भारत में अधिक संख्या हिन्दु ओं की है और सबसे अधिक प्रचार हिन्दी भाषा का है। आज यह उत्तर भारत के छः प्रान्त-बिहार, ततरदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान हरियाणा व हिमाचल प्रदेश की राजभाषा और मातृ भाषा बनी तुई है। बैस हिन्दी भाषा के समझने वाले पूरे भारत में मिल जायेंगे। राष्ट्रभाषा राष्ट्र की अपनी भाषा होती है। जो देश परतत्र होते हैं, वहां विजयी जातियां अपनी भाषा को राजभाषा और राष्ट्रभाषा घोषित करती हैं। पराजित जातियों की भाषा को दबाया जाता है। वास्तव में किसी भी परतन्त्र देश को राष्ट्र कहलाने का अधिकार नहीं है। फिर उसकी राष्ट्रभाषा कैसी ?
प्रत्येक स्वाधीन राष्ट्र अपने देश में सर्वाधिक प्रचलित और सर्वाधिक समझी जाने वाली भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित करता है। जिन देशों की अपनी कोई भाषा नहीं होती, वे स्वाधीन होकर भी दूसरों की ही भाषा को राष्ट्रभाषा कहते हैं। जैसा कि टकी और अफ्रीका में हुआ है। यदि सबसे अधिक प्रचलित और सबसे अधिक समझी जाने वाली भाषा ही राष्ट्रभाषा है तो हिन्दी परतत्र भारत में भी भारत की राष्ट्रभाषा पी । स्वतन्त्र भारत को राष्ट्र पाषा बनने से भी हिन्दी का गौरव बढ़ा, स्वतन्त्र भारत का सम्मान बढ़ा है।
(2) हिन्दी में राष्ट्रपापा बनने की क्षमता -
हिन्दी को किसी ने राष्ट्र भाषा बनाया नहीं, बह उसी सिंह के समान भारत की राष्ट्रभाषा बनी है जो अपने पौरुष और विक्रम से बन का राजा कहलाता है। हिन्दी में राष्ट्रभाषा बनाने की निम्नलिखित क्षमताएँ हैं।
(क) राष्ट्र के अधिकांश लोगों द्वारा बोला जाना-
राष्ट्रभाषा होने की जो पहली शर्त है, ठसे हिन्दी पूरी करती है। राष्ट्रभाषा होने के लिए किसी भाषा का उस राष्ट्र के अधिकांश लोगों द्वारा बोला जाना आवश्यक है। हिन्दी भारत देश के बहुत से प्रान्तों में बोली जाती हैं। वैसे हिन्दी के बोलने और समझने वाले लोग सारे भारत में मिल सकते हैं। डॉ. डारिका प्रसाद माहेश्वरी के अनुसार-जो भाचा राष्ट्र के भिन्न-भिन्न भाषा-भाषियों द्वारा पारस्परिक विचार-विमर्श का साधन होती है और समचे राष्ट्र को भावात्मक एकता के क्षेत्र में बाँधती है, उसे राष्ट्रीय भाषा कहते हैं। हिन्दी बहुत समय से भारत की भावात्मक एकता में बाँधती रही है । मिन्न भिन्न प्रान्तों के लोग मिलने पर हिन्दी के हारा ही भाव विनिमय अथवा बातचीत करते रहे हैं।
(ख) व्याकरण की पूर्ति -
राष्ट्र भामा क्या, भाषा में ही पूर्ण व्याकरण होना चाहिए। बिना व्याकरण के अंकुश वाली भाषा कहलाने की अधिकारिणी नहीं है। हिन्दी भाषा का व्याकरण पूर्ण है। | यह बात अलग है कि हिन्दी का व्याकरण संस्कृत और अंग्रेजी दोनों से प्रभाषित है।
(ग) साहित्य की पूर्णता -
राष्ट्रभाषा में अपना समर साहित्य होना चाहिए। हिन्दी में साहित्य की विशाल और लम्बी परम्परा है। आज हिन्दी का साहित्य इतना समृद्ध है कि उसे किसी भी भाषा के साहित्य के समक्ष गौरव के साथ रखा जा सकता है। हिन्दी में लगभग एक हजार वर्ग से साहित्य रचना हो रही है।
(घ) संविधान द्वारा मान्यता -
कोई भी पापा तभी राष्ट्रभाषा का पद और नाम पाती है, जब उस देश के संविधान में उसे राष्ट्रभाषा स्वीकार किया गया हो। भारत का अपना संविधान 26 जनवरी सन् 1950 को लागू हुआ। उसमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया गया है। भारत का संविधान हिन्दी को सम्पूर्ण भारत राष्ट्र की प्रतिनिधि एवं प्रतीक भाषा के रूप में अंगीकार करता है।
(ङ) अपनी लिपि -
किसी भी राष्ट्र भाषा की अपनी पूर्ण एवं वैज्ञानिक लिपि होनी चाहिए। हिन्दी भाषा की अपनी लिपि देवनागरी है जो सर्वथा वैज्ञानिक और पूर्ण है। देवनागरी, में स्वर, व्यंजन और संयुक्ताक्षर मिलाकर 52, ध्वनि-से करता है। जो बौला जाता है देवनागरी में वहीं लिखा और वहीं पढ़ा जाता है। पात्राएँ देवनागरी लिपि की अपनी विशेषता है। मात्राओं के कारण पूरे स्वर बार-बार नहीं लिखने पहते।
(3) राष्ट्रभाषा पद पर हिन्दी की मान्यता-
हिन्दी को राष्ट्रभाषा पद पर मान्यता देते समय बहुत विरोध हुआ था। सबसे अधिक मुखर विरोधी स्वर था-अंगेजी के पमपातियों का। उनका तर्क था कि अंग्रेजी सारे संसार में प्रचलित है। विज्ञान, मेडीकल इंजीनियरिंग आदि की पुस्तके हिन्दी में नहीं हैं। इनके प्रायोगिक एवं तकनीकी शब्द अंग्रेजी में ही हैं। अमेजी सारे भारत के लोग पढ़ते हैं। दक्षिण भारत के लोगों ने हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने का मुखर और प्रबल विरोध किया।
अधिकारी वर्ग में और नेताओं में भी अमेजी के पक्षधर थे, पर हिन्दी के समर्थकों को भी कमी नहीं थी। हिन्दी का प्रबल पक्ष यह था कि यह भारत की अपनी भाषा थी । अन्त में हिन्दी समर्थकों की विजय हुई। मूल संविधान की रचना हिन्दी में करने वालों को भी तिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद देना पड़ा।
(4 हिन्दी के पूर्णतया राष्ट्रभाषा पनने में बाधा -
अंग्रेजी के पक्षपरों को हिन्दी को राष्ट्रभाषा तो स्वीकार करना पड़ा.पर वे इस आधार पर अंपेजी को हिन्दी को सहराष्ट्रभाषा बनाने में सफल हो गये कि जब तक हिन्दी तकनीकी, प्रशासनिक एवं उच्च वैज्ञानिक, शिक्षा सम्बन्धित पुस्तकों की रचना न हो जाये तब तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी को भी चलने दिया जाये। यह वर्ष का रखा गया । संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ था। इसके अनुसार 26 जनवरी सन् 1965 में अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा के सहयोगी के पद से हट जाना चाहिए पा और हिन्दी को भारत को पूर्ण और एकमात्र राष्ट्रभाषा बन जाना चाहिए था पर ऐसा हुआ नहीं। इन पन्द्रह वर्षों में भारत सरकार के अहिन्दी भाषी अधिकारियों और कर्मचारियों को हिन्दी भाषा सिखाने के लिए अध्यापकों की व्यवस्था की गई उन्होंने हिन्दी सीखने में कोई रुचि नहीं ली। वे पन्द्रह वर्ष बाद भी हिन्दी के लिए अपरिचित और हिन्दी के ज्ञान से सर्वथा कोरे थे। हिन्दी में तकनीकी, प्रशासनिक वैज्ञानिक, वैधानिक और वाणिज्यिक पुस्तकों की रचना की ओर भी पूरा ध्यान नहीं दिया गया।
इसी समय जवाहरलाल नेहरू को सरकार पर यह आपत्ति आई कि तन्हें संविधान के लिए दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता यी । दक्षिण के एम पी. इस शर्त पर नेहरू सरकार को अपना समर्थन देने पर सहमत हुए कि राष्ट्रभाषा के नाम पर ठनके ऊपर हिन्दी न थोपी जाये और उन्हें अंग्रेजी से ही काम चलाने दिया जाये। इसके लिए एक वैज्ञानिक बहाना खोजा गया कि जब तक भारत का एक पो प्रान्त विरोध करेगा, तब तक अंग्रेजी समाप्त करके हिन्दी को अकेली राष्ट्र भाषा नहीं बनाया जायेगा। इस प्रकार हिन्दी विरोधियों के हाथ में ब्रह्मा दे दिया गया है। एक प्रान्त क्या पूरा दक्षिण भारत अमेजी हटाने और अकेली हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने का विरोधी रहेगा।
(5) भविष्य की सम्भावना -
जैसा कि संविधान में सुधार किया गया है, इसके अनुसार तो भविष्य में अकेली हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने और अमेजी के हटने की कोई सम्भावना ही नहीं है। संविधान में संशोधन करके तो इस व्यवस्था अथवा संशोधन को हटाया जा सकता है। इसके लिए दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता है। कोई अल्प-बहुमत अथवा अस् बहुमत वाली सरकार पह कार्य नहीं कर सकती यदि कभी हिन्दी के पश्चचरों का संसद में दो तिहार्य बहुमत हुआ तो अकेली हिन्दी भारत की पूर्ण राष्ट्रीय भाषा घोषित हो सकती है ।
आज भारत के लोगों का अंग्रेजी के प्रति मोह कई गुना मढ़ गया है। इस कारण ऐसी सम्भावमा नहीं है कि भारत की प्रजा अपने नेताओं पर इसके लिए जोर डाले । लोगों को भारतेन्द का यह दोहा याद रखने से कुछ प्रेरणा मिलेगी -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
मे निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय की सुत ॥
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