संविधान स्वीकृत भारतीय भाषाओं में हिन्दी का स्थान
"प्रत्येक भाषा संरचनात्मक दृष्टि से संप्रेषणीयता की एक भिन्न व्यवस्था 1. विविध भाषाओं में अनेक समान लक्षणों एवं ज्वलन्त समरूपताओं के बावजूद प्रत्येक भाषा भावाभिव्यक्ति की एक अनोखी भिन्न व्यवस्था है, वह अपनी संरचना में स्वत: पूर्ण है, और उस संरचना तथा व्यवस्था के अन्तर्गत ही उसकी ध्वनियाँ, शब्द और वाक्य सार्थक होते हैं।"
-रॉबर्ट लेडो
हिन्दी उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र (बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं हरियाणा) की मातृभाषा है और विधानतः राजभाषा स्वीकृत होने के कारण अन्य राज्यों की शिक्षा में भी उसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस दृष्टि से एक ओर वह मातृभाषा के रूप में इतने बड़े क्षेत्र के निवासियों की बौद्धिक, भावात्मक एवं सामाजिक रचना तथा उनके जीवन के विविध क्रिया-कलापों की भाषा है तो दूसरी ओर अहिन्दी भाषा-भाषियों के लिए द्वितीय भाषा के रूप में सम्पूर्ण भारत के साथ सम्बन्ध स्थापना की भाषा है।
सामान्यतः हिन्दी भाषा का महत्त्व उसके निम्नांकित उपयोगों के आधार पर प्रतिपादित किया जाता है।
(1) हिन्दी भाषा भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति का साधन है ।
(2) हिन्दी भाषा भावों एवं विचारों के उद्रेक का मूल उत्स भी है ।
(3) हिन्दी भाषा मनुष्य के भावात्मक विकास का साधन है।
(4) हिन्दी भाषा हमारी सृजनात्मक शक्ति के विकास का साधन है।
(5) हिन्दी भाषा हमारे बौद्धिक विकास, ज्ञानार्जन एवं चिन्तन का उत्कृष्ट साधन है।
(6) हिन्दी सामाजिक रचना एवं सामाजिक क्रिया-कलापों का आधार भाषा है।
(7) हिन्दी सांस्कृतिक जीवन एवं संस्कृति का आधार भाषा ही है।
हिन्दी भाषा की उपर्युक्त उपयोगिताओं पर विचार करते समय स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि मानव जीवन की इन समस्त उपलब्धियों की सर्वाधिक स्वाभाविक माध्यम भाषा कौन है ? सबसे सरल, स्वाभाविक और स्पष्ट उत्तर है-हिन्दी भाषा । अतः यह विचार करना सर्वथा समीचीन है कि उपर्युक्त उपयोगिताओं की दृष्टि से हिन्दी भाषा का क्या महत्त्व है ?
(1) भावाभिव्यक्ति की स्वाभाविक भाषा हिन्दी ही है -
हिन्दी भाषा की दक्षता एक विशिष्ट सूक्ष्मता और सहज प्रक्रिया के द्वारा उत्पन्न होती है और फिर उसका व्यवहार भी व्यक्ति अनवरत अभ्यास के द्वारा सीख लेता है। हिन्दी भाषा सीख लेने की साहजिक प्रक्रिया ही भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से उसे अन्य भाषा' की अपेक्षा अधिक सहज और स्वभावजन्य भाषा बना देती है। इसी कारण भाव एवं विचार हिन्दी भाषा में अपने-आप स्फुटित होते, बनते और व्यक्त होते हैं । हिन्दी भाषा बालक के शारीरिक एवं मानसिक विकास के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वत: आत्मसात होती जाती है और इस कारण वह उसकी नैसर्गिक भाषा बन जावी है।
भावाभिव्यक्ति का उपयोग सामाजिक स्तर पर अधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति-व्यक्ति का सम्बन्ध भाषा द्वारा ही सम्भव है। परस्पर वार्तालाप, शिष्टाचार प्रदर्शन, काव्यशास्त्र विनोद, विचार-विमर्श, शास्त्रार्थ आदि हिन्दी के माध्यम से ही सम्भव हैं और ये क्रियाएँ अपने भाषा-भाषियों के बीच जितने स्वाभाविक रूप में मातृभाषा के माध्यम से सम्पन्न हो सकती है उतनी और किसी भाषा के माध्यम से नहीं। इसी कारण एक हिन्दी भाषी जब अंग्रेजी में कुशल-क्षेम पूछते या वार्तालाप करते हैं तो बड़ी कृत्रिमता आ जाती है।
भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से हिन्दी भाषा का महत्त्व विशिष्ट अवसरों पर और भी परिलक्षित होता है। जब हम व्यक्ति या समुदाय विशेष में कोई भाव जगाना चाहते हैं, उसे किसी कार्य के लिए प्रोत्साहित, उत्तेजित या उत्प्रेरित करना चाहते हैं तो हिन्दी भाषा का महत्व अपने-आप स्पष्ट हो जाता है। राजनैतिक नेता, धर्मोपदेशक, समाजसुधारक, प्रवचक आदि मातृभाषा के इस प्रेरणात्मक रूप से खूब अपना काम बनाते हैं। किसी भाव-विशेष को संचरित करने का सर्वोत्तम साधन हिन्दी ही है। इसी कारण स्वतन्त्रता-संग्राम के समय जन-जागरण के लिए हमारे देश के नेताओं ने हिन्दी को ही चुना था और अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दी को वह स्थान मिला था।
(2) भावों एवं विचारों के उद्रेक का मूल उत्स मातृभाषा है-
हिन्दी का महत्त्व केवल भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति के सहज माध्यम की ही दृष्टि से नहीं बल्कि इस दृष्टि से भी है कि वही भावों एवं विचारों की ठद्भाविका शक्ति भी है। भावोद्रेक का मूल उत्स हिन्दी में हो है।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
No comments:
Post a Comment
thaks for visiting my website