भाषा सीखने की स्वाभाविक अध्ययन शक्तियाँ
शिक्षण की दृष्टि से पाल्य विषयों को सामान्यतः दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता (1) ज्ञानप्रधान विषय, जैसे, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान आदि, जिनके शिक्षण का है आधार मुख्यतः सूचनात्मक, तथ्यात्मक एवं बौद्धिक होता है (2) क्रिया प्रधान विषय, जैसे, शिल्प कला, भाषा तथा वे विषय जिनके सीखने का आधार क्रियात्मक अर्थात् प्रयोग, आवृत्ति एवं अभ्यास होता है। पर भाषा एक सूक्ष्म क्रियात्मक विषय है जिसमें निरन्तर प्रयोग एवं अभ्यास के साथ सैद्धान्तिक पक्ष के अध्यपन का भी महत्त्व बना रहता है। अत:ठसके शिक्षण में ज्ञान और क्रिया दोनों पक्ष महत्त्वपूर्ण है, पर प्रधानता क्रिया पक्ष की है। भाषा सीखने की स्वाभाविक अध्ययन शक्तियों का विवेचन इस प्रकार है
(1) भाषा सीखने की स्वाभाविक एवं स्वतः
स्फूर्त शक्ति-आत्माभिव्यक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो मनुष्य को भाषा सीखने के लिए उत्प्रेरित करती है और वह अनुकरण की स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा अपने परिवार एवं परिवेश को भाषा (मातृभाषा) सहज ही सीख लेता है। प्रसिद्ध भाषा शास्त्री गेट नबी का कहना है कि अनुकरण की प्रकृति भाषा सीखने में अत्यन्त सहायक होती है और अनुकूल वातावरण मिलने पर बालक मातृभाषा ही नहीं परिवेश की अन्य भाषाएं (यदि पास-पड़ोस में अन्य भाषा-भाषी रहते हैं) भी सीख लेता है। अन्य विषय बिना विधिवत शिक्षा के बालक नहीं सीख सकता पर भाषा अनजाने हो मानस-पटल पर अंकित हो जाती है। बातावरण में प्रयुक्त होने वाले ध्वनि-संकेत अपने-आप अनुकरण, ग्रहण एवं भाषण द्वारा उसकी सम्पत्ति बन जाते हैं। भाषा सीखने के लिए मनुष्य को यह प्रकृति-प्रदत्त शक्ति उपलब्ध है। का लाभ उठाने के लिए अनुकूल वातावरण अर्थात् भाषा सुनने और बोलने का पर्याप्त अवसर मिलना ही चाहिए। प्रसिद्ध भाषाविद हेराल्ड ई, पामर ने अपनी पुस्तक "प्रिसिपल्स ऑफ लैंग्वेज स्टडी' में भाषा सीखने की इस स्वाभाविक शक्ति को ध्यान में रखते हुए लिखा है।----
"अधिकतर कलाओं में पारगत होने के लिए हमें अध्ययन करने की आवश्यकता पड़ती है अर्थात धैर्य और परिश्रम के साथ सचेत प्रयास करना पड़ता है और बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है, पर एक ऐसी भी सूक्ष्म कला है जिसे हम सभी बिना किसी ऐसे सचेत प्रयास और बुद्धि प्रयोग के जान जाते हैं वह है बोलने की कला । बोलना सीखने और उसे आत्मसात कर लेने की प्रकृति-प्रदत्त शक्ति बालक को उपलब्ध है, जिसके कारण प्रत्येक बालक अपनी मातृभाषा सहज ही सीख लेता है, बल्कि उस शक्ति के द्वारा वह अन्य भाषाजों के सम्पर्क में आने पर उन्हें भी सीख लेता है। छोटे बत्त्चों में यह शक्ति अधिक सक्रिय रहती है और फलत: बह मातृ-भाषा की ही भाँति विशेष सम्पर्क में रहने पर दूसरी तीसरी भाषाएँ भी सीख लेता है। प्रौढ़ व्यक्तियों में यह शक्ति प्रयोग न करने के कारण कुण्ठित और मच्छल-सी पड़ी रहती है,पर यदि चाहे तो इस शक्ति को सक्रिय बनाये रणा सकता है। जो भौछ व्यक्ति इन शक्तियों को सक्रिय बनाये रखते हैं, वे कई भाषाओं में पारंगत हो जाते हैं।"
मनोवैज्ञानिकों ने शिराओं द्वारा भाषा सीखने की इस स्वाभाविक विधि का अध्ययन किया है और इस प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गै कि शिशु किस प्रकार प्वनियों को सुनका उन्हें उच्चरित करने का प्रयास करता है । छ: महीने के बाद यह कुछ प्वनियों का उच्चारण करने लगता है। वह पापा, मामा, बाबा आदि ध्यान-समूहों का बार-बार उच्चारण करता है। इसके बाद उसका शब्दभण्डार तेजी से बढ़ता है।
इसके दो कारण हैं-
(1) उसकी वागीन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का परिपक्व होते जाना और (2) बालक द्वारा भाषा की सामाजिक उपयोगिता को समझने लगना इसी कारण प्रारम्भिक अवस्था की भाषा को 'युक्ति भाषा (ट्रिक लैंग्वेज) कहा गया है। यह एक प्रकार से शिशु की चाल है जिसका प्रयोग वह अपना काम निकालने के लिए करता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक का शब्दभण्डार बढ़ता जाता है।
6 वर्ष की आयु तक बालक अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा लगभग ढाई हजार शब्द जान जाता है। विधिवत् शिक्षा प्रारम्भ होने पर यह गति और भी बढ़ जाती है। भाषाविदों के अनुसार 6 से 9 की तक उसका কা জय शब्दभण्डार 5000 हो जाता है ।
(2) भाषा सीखने की अध्ययनात्मक शक्ति-
यद्यपि बालक में भाषा सीखने की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति और शक्ति होती है और वह सुनकर समझना तथा बोलना सीख भी लेता है, पर उतने से ही वह भाषा के सभी कौशल और रूप नहीं सीख सकता । इन कौशल और रूपों को सीखने के लिए विधिवत शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। इसे पामर ने भाषा सीखने की सीखने अध्ययनात्मक शक्ति कहा है। पढ़ना, लिखना सीखने तथा भाषा के साहित्यिक रूपों को के लिए अध्ययनात्मक शक्ति का प्रयोग आवश्यक है। इस शक्ति के प्रयोग को সयास (विश्लेषण एवं संश्लेयणो पुरवं रूपांतर की मक्रिया-लिखित भाषा को उच्च हम सचेत ित भाषा में व्यक्त करना (व्यक्त या सस्वर पाठ), उच्चरित भाषा को लिखित भाषा में बदलना (श्रुतलेख), भाषा की वाक्य रचना में विविध परिवर्तन, एक भाषा से दूसरों भाषा में अनुवाद आदि कहते हैं भाषा सीखने के लिए आवश्यक वे सभी अभ्यास जिसमें बुद्धि द्वारा सचेत प्रयास की आवश्यकता पड़ती है और हाथ, आँख, कान का प्रयोग करना पड़ता है, अध्ययनात्मक शक्ति के अन्तर्गत आते हैं।
भाषा सीखने की उपर्युक्त दोनों शक्तियों का अपना महत्व है । इनमें से केवल एक के द्वारा भाषा पर अधिकार नहीं हो सकता । स्वाभाविक शक्ति हमें दैनिक व्यवहार की, बोलचाल की भाषा सिखा देती है पर साहित्यिक भाषा एवं उसके रचनात्मक रूपों को सीखने के लिए अध्ययनात्मक शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है।
(3) भाषा सीखना एक आदत बनने की प्रक्रिया है और इस दृष्टि से बाल्यावस्था का विशेष महत्व है-
हम देख चुके हैं कि भाषा सीखने की स्वाभाविक एवं स्वतः स्फूर्ति शक्ति बाल्यावस्था में विशेष सक्रिय एवं जागरूक रहती है। इस समय की सौखौ हुई भाषा में सहज प्रवाह पाया जाता है। बालक इस भाषा को सोचकर नहीं बोलता, बल्कि अभ्यास एवं आदत के कारण भाषा उसके कण्ठ से स्वतः स्फूर्त हो उठती है।
भाषा सीखना निश्चित ही एक आदत बनने की प्रक्रिया है और आदत बनने की दृष्टि से बाल्यावस्था का विशेष महत्त्व है। यदि इस अवस्था में अशुद्ध भाषा उच्चारण-दोष, वर्तनी दोष, शब्द प्रयोग एवं वाक्य रचना सम्बन्धी दोग आदि की आदत पड़ गयी तो उसका संशोधन कठिन तो जाता है और भाषा शिक्षण की दृष्टि से और भी कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं। अतः बाल्यावस्था में ही भाषा सीखने को आदते पड़ जानी चाहिए। पापा ने ठीक ही लिखा कि "यदि गम भाषा सिखाने में प्रारीभक अवस्था का ध्यान रख लें तो आगे की अवस्था स्वयं ही अपना ध्यान रख लेगी ।"
भाषा सीखने की प्रक्रिया बहुत कुछ वैसी है जैसे कोई कौशल या हुनर सीखना । जैसे माइफिल चलाने या तैरना सीखने में तर्क और ज्ञान की अपेक्षा प्रयोग, आवृति और अभ्यास का अधिक महत्व है, उसी प्रकार भाषा सीखने में भी सतत् प्रयोग, आवृति एवं अभ्यास का अधिक महत्व होता है । साइकिल सीख लेने पर उसका बलाना यंत्रवत् (भेकेनिकल) सा हो जाता है, उसी प्रकार भाषा सम्बन्धी कौशलों की भी ऐसी आदत पड़नी चाहिए कि उनका प्रयोग यंत्रवत् हो जाय । इसी दृष्टि से भाषा को अचेतन मस्तिष्क का विषय कहा गया है जिसके प्रयोग में सचेत प्रयास न करना पड़े ।
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