भारतीय संस्कृति का
सामाजिक स्वरूप
आज की भारतीय संस्कृति का सामाजिक स्वरूप वस्तुतः भारत का सामाजिक स्वरूप है। प्रागैतिहासिक काल में आर्य आए, पारसी आए। हजारों वर्ष बाद मुस्लिम आए, पिर यूरोप से ईसाई धर्मावलंबी आए। वे अपने साथ अपनी-अपनी संस्कृतियाँ लाए। भारतीय समाज ने उनकी संस्कृतियों में से बहुत कुछ लेकर भी अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखी।
ऋग्वेदकालीन सामाजिक व्यवस्था
ऋग्वेदकाल की संस्कृति और सभ्यता की जानकारी ऋग्वेद में वर्णित तथ्यों के आधार पर मिलती है।
ऋग्वैदिक युग में समाज की इकाई था। उस युग में सम्मिलित परिवार होता था । परिवार में व्यक्ति की पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ, पुत्र-वधुएँ तथा पौत्र, प्रपौत्र सभी एक साथ रहते थे। सर्वाधिक आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। जिसके आदेशों का पालन परिवार के अन्य सभी सदस्य करते ये। आदेश पालन न करने की स्थिति में 'मुखिया' उसे दंडित करता था परिवार का मुखिया गृहपति कहलाता था। मुखिया की पत्नी की भी परिवार में सर्वोच्च प्रतिष्ठा होती थी।
गृहपति अपने परिवार के सभी सदस्यों के हित में कार्य करता था। कहा भी गया है -
मुखिया मुख सो चाहिए
खान-पान में एक,
पाले-पोसे सकल अंग
तुलसी सहित विवेक।
अर्थात् मुखिया (head of the family) मुँह की तरह हो। मुँह खाता है परंतु उस भोजन से शरीर के सभी अंगों का उचित पालन-पोषण करता है।
ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि आर्य पंजाब में बसे थे। इसमें पंजाब की नदियों का उल्लेख मिलता है। वेदों की रचना कई ऋषि-मुनियों ने की। शनैः-शनैः इनमें ऋचाएँ समाविष्ट होती गई। इस समय के रचनाकारों में कई विदुषी महिलाएं भी यीं। इससे यह बात सिद्ध होती है कि महिलाओं को अध्ययन अध्यापन, यज-पूजा, हवन कार्यों में पुरुषों के समान अधिकार थे। गार्गी मैत्रेयी, घोषा. लोपामुद्रा, विश्वंभरा आदि विदुषी स्त्रियों के नाम आदरपूर्वक लिए जाते हैं। सामान्य सामाजिक व गृहस्य जीवन में भी लड़कियों को ललित कलाओं, रणकौशल, आखेट कुश्ती, घुड़दौड़ आदि की शिक्षा दी जाती थी। आर्य परिवार में पुत्र व पुत्री दोनों का उपनयन संस्कार होता था ।
महिलाओं के समान अधिकार की चर्चा उठी है तो कुछ और तथ्यों का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है - उस समय महिलाओं को अपना जीवन साथी अर्थात् पति चुनने का अधिकार या. जिसने बाद में स्वयंवर का रूप लिया था। इससे यह तथ्य भी उभरकर आता है कि बाल-विवाह की बात सोची भी नहीं जाती थी। शिक्षा-दीक्षा के पश्चात् परिपक्व अवस्था में आने पर ही स्वयंवर की बात सोची जा सकती है। सती प्रथा नहीं थी। इन सभी बातों से यह सिद्ध होता है कि महिलाओं का दर्जा पुरुषों के बराबर या। वे पति के साथ यज्ञ में भाग लेती थी। युदध-क्षेत्रों में भी जाती थीं। मनोविनोद, आखेट आदि में भी साथ रहती थी।
ऋग्वेद के प्रारंभिक नौ मंडलों में दो ही वर्ग के लोगों का उल्लेख मिलता है - आर्य और अनार्य। आर्य वे माने गए जिनका वर्ण गोरा और शरीर मजबूत, कद ऊँचा होता था। साँवले लोग अनार्य थे। वे सांवले और कद में प्रायः छोटे होते थे।
वर्ण व्यवस्था का उल्लेख मंडलों में मिलता है। इन मंडलों की रचना अपेक्षाकृत काफी समय बाद हुई। यह वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के कर्म विशेष पर आधारित थी जन्म पर नहीं। जिनकी रुचि विद्याप्य्यन, पठन-पाठन, मनन-चिंतन, यज्ञ कर्मों में रहती और तदनुकूल कार्य करते, वे ब्राह्मण कहलाए।
युद्ध कला, शस्त्रास्त्रचालन, राष्ट्र और जन-धन की रक्षा हेतु शस्त्र उठाने वाले प्रायः प्रशासकीय कार्यों में संलग्न रहते वे 'क्षत्रिय कहे जाते थे।
जो वाणिज्य-व्यवसाय, कृषि कार्य या पशुपालन में संलग्न रहते थे वे 'वैश्य कहे जाते थे।
युद्ध में पराजित वर्ग में से कुछेक लोग जो आर्यों के सेवाकार्य में संलग्न रहते थे वे 'दास' या शूद कहलाए।
आर्यों के बीच यह वर्ण व्यवस्था बड़ी ही शिथिल थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य अपना व्यवसाय बदलकर दूसरे वर्ण में सम्मिलित हो सकते थे।
सभ्यता को जब हम मानव का बाह्य गोचर भौतिक व्यवहार अथवा उपकरण मानते हैं तो इसके अंतर्गत उसका रहन-सहन, आवास, वस्त्र-आभूषण, खान-पान बाह्य आचरण, साज-सज्जा औद्योगिक विकास, राजनैतिक व्यवस्था आदि आते हैं। ये मानव संस्कृति के परिचायक ही हैं - संस्कृति के अंतर्गत मानव की आंतरिक अयदा मानसिक विचारधारा, चिंतन जिसकी परिणति साहित्य, ललित कला, ज्ञान- विज्ञान, दर्शन, आध्यात्मिक चिंतन में है, सभी समाविष्ट हैं ।
मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था
इस युग में भारतीय समाज की संरचना में बदलाव आया। क्षत्रिय राजाओं का आधिपत्य छोटे छोटे कई राज्यों में बना रहा। ब्राह्मणवाद समानांतर रूप से पनप रहा था। गुण-कर्म आश्रित वर्ण व्यवस्व के स्थान पर जाति-प्रया का विस्तार हुआ अर्थात् गुण-कर्म मूलक वर्ण व्यवस्था ने विकृत होकर जन्म-मूलक जाति व्यवस्था का रूप धारण कर लिया। जातियाँ तथा उपजातियाँ बनती गई। कर्मकांड की व्यवस्था ने भारतीय समाज की संरचना को खडित कर दिया।
महिलाओं की स्वतंत्रता छिन गई। गृहस्वामिनी के स्थान पर वह लगभग दासी बन गई। स्त्री शिक्षा पर प्रतिबंध-सा लग गया। पर्दा प्रथा आई और सती प्रथा ने तो मानो नारी-समाज को नरक में टकेल दिया।
निम्न कही जाने वाले जातियों के लोग अत्याचार, शोषण, बेकारी के शिकार थे। राजा निरंकुश अत्याचारी, विलासी हो गए थे। राजाओं में वैमनस्य, दंभ की पराकाष्ठा थी। आपस में लड़ना, दूसरों को नीचा दिखाना उनका स्वभाव बन गया था। जनता करों के बोझ से पिसी जा रही थी पहले मुस्लिम और फिर अंग्रेज आए और यहाँ के शासक बन गए।
आधुनिककालीन सामाजिक व्यवस्था
भारतीय समाज में अंग्रेजों के आगमन के बाद कई परिवर्तन हुए। अग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई। अंग्रेज भारतीयों को इतना दबाना चाहते थे कि वे कभी सिर न उठा सके और अंग्रेजी सत्ता को चुनौती न दे सकें।
अंग्रेजी शिक्षा ने दोहरा कार्य किया। एक ओर गुलाम मानसिकता लाने का प्रयत्न किया गया। अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार इस उद्देश्य से किया गया कि भारतीय लोग कार्यालय में बाबुओं का पद संभालें और अंग्रेज शासकों और शासित भारतीयों के बीच कड़ी (मध्यस्थ) की भूमिका निभाएँ।
दूसरा कार्य का - नव जागरण की प्रवृत्ति का विकास| लोगों ने जागरूकता फैलाने, भारतीयों की जड़ता मिटाने, समाज में फैली कुरीतियाँ मिटाने का बीड़ा उठाया। इस युग में राजा राममोहन राय ने सती प्रथा, बाल-विवाह जैसी कई कुरीतियों पर कठोर प्रहार किया। उन्होंने विधवा-पुनर्विवाह की दिशा में कार्य किया। ईश्वर चंद्र विद्यासागर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानद, स्वामी दयानंद सरस्वती, सर सैयद अहमद खाँ, एनिबेस्सेंट ने समाज सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। महात्मा गाँधी ने अछूतोद्धार, तथाकथित हरिजनों का मंदिरों में प्रवेश और समाज में उनको यथोचित स्थान दिलाने का प्रयत्न किया और उन्हें सफलता भी मिली।
अंग्रेजों ने अपने व्यापारिक लाभ के लिए यातायात तथा संचार साधनों का विस्तार किया,जिससे भारतीय समाज को भी लाभ हुआ।
आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण, नगरीय सभ्यता का उत्तरोत्तर विकास हुआ।
समाज में स्त्रियों का सशक्तीकरण हुआ जिससे पुरुषों के समान अधिकार, उच्चशिक्षा क्षेत्र में प्रवेश, ऊँचे पर्दो पर नियुक्ति, अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह आदि को बढ़ावा मिला। विशेषकर स्त्रियों और दलितों के सशक्तीकरण के लिए प्रयत्न किए गए। आज भारतीय समाज की धारा काफी बदल गई है, उसका स्वरूप बदल गया है।
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