Thursday, April 1, 2021

कोटर और कुटीर - सियारामशरण गुप्त

 

           कोटर और कुटीर

          - सियारामशरण गुप्त

          

              कोटर

             दोपहरी का समय था । सूर्य अग्नि-शलाकाओं से पृथ्वी का शरीर दग्ध कर रहा था । वृक्षों के पत्ते निस्पंद थे। मानो किसी और भयंकर कांड की आशंका से साँस-सी साधे खड़े हैं । इसी समय अपने छोटे से कोटर के भीतर बैठे हुए चातक पुत्र ने कहा, "पिता!"

       बाहर की सहज स्निग्ध वनस्थली के वर्तमान रूखेपन की तरह ही वह स्वर कुछ नीरस था। चातक ने अपनी चोंच कुमार की पीठ पर फेरते हुए प्यार से कहा, "क्या है बेटा ?"

      "है और क्या?" प्यास के मारे चोंच तक प्राण आ गये हैं।"

       "बेटा, अधीर न हो । समय सदा एक-सा नहीं रहता।"

        "तो यही तो मैं भी कहता हूँ- समय सदा एक-सा नहीं रहता । पुरानी बातें पुराने समय के लिए थी। आप  अब भी उन्हें इस तरह छाती से चिपकाये हुए हैं जिस तरह बानरी मरे बच्चे को चिपकाए रहती है। घनश्याम की वाट आप जोहते रहिए । अब मुझसे यह नहीं सध सकता।"

        "घनश्याम के सिवा हम और किसी का जल ग्रहण नहीं करते । यही हमारे कुल का व्रत है । इस व्रत के कारण अपने गोत्र में न तो किसी की मृत्यु हुई और न कोई दूसरा अनर्थ ।”

         "आप कहते हैं, कोई अनर्थ नहीं हुआ, मैं कहता हूँ, प्यास की इस यंत्रणा से बढ़कर और अनर्थ क्या होगा? जहाँ से भी होगा, मैं जल ग्रहण करूँगा ही।"

        चातक सिहरकर पंख फड़फड़ाने लगा। मानो उसने उन अश्रव्य वचनों और कानों के बीच में कोलाहल की परिखा-सी खड़ी कर देनी चाही। थोड़ी देर तक चुप रहकर वह बोला, "बेटा धैर्य रख । अपने इस व्रत के कारण ही पानी बरसता है और धरती माता की गोद हरी-भरी होती है। यह व्रत इस तरह नष्ट कर देने की वस्तु नहीं।"

        लाड़ले लड़के ने कहा, “व्रत-पालन करते हुए इतने दिन तो हो गये, पानी का कहीं चिह्न तक नहीं है। गरमी ऐसी पड़ रही है कि धरती के नदी-नाले सब सूख गये। फिर सूर्य के और निकट रहनेवाले आकाश के मेघो में पानी टिक ही कैसे सकता है?"

       "बेटा, पृथ्वी का यह निर्जल उपवास है। इसी पुण्य से उसे जीवनदान मिलेगा । भोजन का पूरा स्वाद और पूरी तृप्ति पाने के लिए थोड़ी-सी क्षुधा सहन करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।"

        "पिताजी, मैं थोड़ी-सी क्षुधा से नहीं डरता। परंतु यह भी नहीं चाहता कि क्षुधा-ही-क्षुधा सहन करता रहूँ । मैं ऐसा व्रत व्यर्थ समझता हूँ । देवताओं का अभिशाप लेकर भी मैं इसे तोडूँगा। घनश्याम को भी तो सोचना चाहिए था कि उनके बिना किसी के प्राण निकल रहे हैं। आदमी ने मेघों पर अविश्वास करके कृषि की रक्षा के लिए नहर, तालाब और कुओं का बंदोबस्त कर लिया है । कृषि ने आपकी तरह सिर नहीं हिलाया कि मैं तो घनश्याम के सिवा और किसी का जल नहीं छुऊंगी। मम्मी क्यों इस तरह कष्ट सहें ? आप चाहें रखें या छोड़ें, मैं यह झंझट न मानूंगा।"

         चातक ने देखा मामला बेढव हुआ जा रहा है। यह इस तरह न मानेगा कहा, "यह यताओ, तुम जल कहाँ से ग्रहण करोगे?"

         चातक-पुत्र चुप । उसने अभी तक इस बात पर विचार ही नहीं किया था । वह सोचता था, जिस प्रकार लाखों जीव-जंतु जल पीते हैं उसी प्रकार मैं भी पिऊँगा । परंतु वह प्रकार कैसा है, यह उसकी समझ में न आया था।

         लड़के को चुप देखकर पिता ने समझा कि कमज़ोरी यहीं है। वह जानता था कि कमज़ोरी के ऊपर से ही आक्रमण करना विजय की पहली सीढ़ी है । बोला, “चुप कैसे रह गये ? बताओ, तुम जल कहाँ से ग्रहण करोगे "

         हिचकिचा कर अपनी बात स्वयं ही खंड-खंड करते हुए लड़के ने कहा, "जहाँ से और दूसरे ग्रहण करते हैं, वहीं से मैं भी करूँगा।"

          पिता ने कहा- "पड़ोस में वह पोखरी है। अनेक पशु-पक्षी और आदमी भी वहाँ जल पीते हैं । तुम वहाँ जल पी सकोगे? बोलो, है हिम्मत?"

          चातक-पुत्र को उस पोखरी के स्मरण से ही फुरहरी आ गयी। अह, उसमें कितनी गंदगी है! सूखे पत्ते, डंठल आदि गिरकर उसमें सड़ते रहते हैं । कीड़े कुलबुलाते हुए उसमें साफ़ दिखाई दे सकते हैं । लोग उसमें कपड़े निखारने आते है, या गंदे करने, कई बार सोचने पर भी वह समझ न सका था। एक बार एक आदमी को अँजुली से पानी पीते देख उसने पिता से कहा था- "देखो पिताजी, ये कैसे घृणित जीव है!" अवश्य ही उसने अपने व्रत का जिक्र उस समय नहीं किया था, परंतु उसके मन में उसी का गर्व छलक उठा था अब इस समय वह पिता से कैसे कहे कि मैं उस पोखरी का पानी पिऊँगा?

         चातक बोला, "बेटा, अभी तुम नासमझ हो! चाहे जहाँ से पानी ग्रहण करना इस समय तुम आसान समझ रहे हो, परंतु जब इसके लिये बाहर निकलोगे तब तुम्हें मालूम पड़ेगा। हमारी प्यास के साथ करोड़ों की प्यास है और तृप्ति के साथ करोड़ों की तृप्ति । तुझसे अकेले तृप्त होते कैसे बनेगा ?"

         चातक-पुत्र इस समय अपने हठ को पुष्ट करनेवाली कोई युक्ति सोच रहा था। पिता की बात बिना सुने वह बोल उठा, "मैं गंगा जल ग्रहण करूँगा।"

          चातक ने कहा, “गंगाजी तो यहाँ से पाँच दिन की उड़ान पर हैं। तू नहीं मानता तो जा । परंतु यदि तूने और कहीं एक बूँद भी ली, तो हमें मुँह न दिखाना ।"

         चातक-पुत्र प्रणाम करके फुर्र से उड़ गया।


                     कुटीर

         बुद्धन का कच्चा खपरैल का घर था। छोटी-छोटी दो कोठरियाँ, फिर उन्हीं के अनुरूप आँगन और उसके आगे पौर । पुराना छप्पर नीचे झुककर घर के भीतर आश्रय लेने की वात सोच रहा था । जीर्ण-शीर्ण दीवारें रोशनदान न होने की साध दरारों के "दत्तक" से पूरी किया चाहती थीं।

         उस घर में और कुछ हो या न हो, आँगन के बीच, चातक-पुत्र के विश्राम करने योग्य नीम का एक वृक्ष था। तीसरी उड़ान की थकान मिटाने के लिए वह उसी पर उतरा।

         नीम की स्निग्धता तथा सघनता ने चातक-पुत्र को अपने निजी सहकार की याद दिला दी। विश्राम पाकर भी उसके मन में एक प्रकार की व्याकुलता उत्पन्न हो गयी । पकी निबोरी की तरह उस वेदना में भी कुछ माधुर्य था।

          नीचे वृक्ष की छाया में बुद्धन लेटा हुआ था । अवस्था उसकी पचास के ऊपर थी । फिर भी अभी कुछ दिन पहले तक, उसके पैरों में जीवन यात्रा की इतनी ही मंजिल तय करने योग्य शक्ति और मालूम होती थी। एक दिन एकाएक पक्षाघात ने उसे अचल कर दिया । जीवन और मृत्यु ने आपस में सुलह करके मानो आधे-आधे शरीर का बँटवारा कर लिया । स्त्री पहले ही दिवंगत हो चुकी थी। घर में 15-16 वर्ष का एक मात्र पुत्र, गोकुल ही अवशिष्ट था। उसी के सहारे उसके दिन पूरे हो रहे थे ।

         गोकुल एक जगह काम पर जाता था। काम करके प्रतिदिन संध्या-समय तक लौट आता था। आज अभी तक नहीं आया था, इसलिए बुद्धन उसके लिए छटपटा रहा था। ऊपर आकाश में तारे छिटक आये थे। इधर-उधर चारों ओर सन्नाटा था और घर में अकेला बुद्धन । यद्यपि उसमें खाट के नीचे उतरने तक की शक्ति नहीं थी, तो भी उसका मन न जाने कहाँ-कहाँ चौकड़ी भर रहा था । गोकुल सवेरे थोड़े-से चने खाकर काम पर गया था । बुद्धन के लिए भी कुछ चने और पीने का पानी यथास्थान रख गया था । आज खाने के लिए घर में और कुछ था ही नहीं । कहा गया था, शाम को मजूरी के पैसों का आटा लाकर रोटी बनाऊँगा। परंतु आज वह अभी तक नहीं आया था। अनेक आशंकाओं से बुद्धन का मन चंचल था। जो समय आनंद की स्निग्ध शीतल छाया में, शीतकाल के दिन की तरह मालूम भी नहीं होने पाता और निकल जाता है, वही दुख की दाहक ज्वाला में निदाघ के दीर्घ दिनों की भाँति अकाट्य हो उठता है। रात बहुत नहीं बीती थी, परंतु बुद्धन को मालूम हो रहा था कि बरसों का समय हो गया। बार-बार अपने कान खड़े करके रात के उस सन्नाटे में वह गोकुल के पद शब्द सुनने का प्रयत्न कर रहा था।

        बड़ी देर के बाद उसकी प्रतीक्षा सफल हुई। किवाड़ खुलने की आवाज़ सुनकर वह चौंका । वास्तव में यह गोकुल ही था । उसने कहा, ,"कौन गोकुल! बेटा आज बड़ी देर लगायी ।"

       गोकुल धीरे से पिता की खाट के पास आकर रोने लगा।

       बुद्धन ने घबड़ाकर पूछा, "क्या हुआ, बेटा क्या हुआ?"

       "आज मजूरी नहीं मिली। अब कैसे चलेगा?"

       "ऐं, मजूरी नहीं मिली । फिर इतनी देर क्यों हुई?" 

          प्रकृतिस्थ होकर गोकुल ने उसे अपना हाल सुनाया ।

सवेरे घर से निकलते ही गोकुल को सामने खाली घड़ा मिला? देखकर उसके पैर ढीले पड़ गये सोचा- आज भगवान ही मालिक है। काम पर पहुंचकर उसने देखा-ओवरसियर साहब आज कुछ ज़्यादा खफ़ा है। इंजीनियर साहब काम देखने आये थे। जान पड़ता है, काम देखने की जगह वे ओवरसियर साहब को ही देख गये थे। अन्याय का यह बोझ उन्होंने दिन भर मज़दूरों पर अच्छी तरह उतारा । शाम को मज़दूरी देने के समय साफ़ इनकार कर दिया- आज दाम नहीं दिये जाएँगे। उस अदालत के फ़ैसले की तरह, जिसकी कहीं अपील नहीं हो सकती, ओवरसियर साहब का हुक्म मानकर मज़दूर अपने-अपने घर लौट गये ।


गोकुल लौटा चला आ रहा था कि एक जगह उसे रास्ते में कुछ पड़ा हुआ दिखाई दिया। पास पहुँचने पर मालूम हुआ, रुपये-पैसे रखने का बटुआ है। उठाकर देखा तो काफ़ी वज़नदार था । वह सोच में पड़ गया- इसे खोल कर देखना चाहिए या नहीं । न देखने का निश्चय ही उसे दृढ करना पड़ा । कौतूहल-निवृत्ति करने के लिए उसने उसे टटोला । टटोलने पर मालूम हुआ रुपये हैं और बहुत कम भी नहीं । थोड़ी देर तक वह वहीं खड़ा-खड़ा सोचता रहा। इसका क्या करूँ? उसके पिता ने उसे अब तक जो कुछ सिखाया था, उसने उसे इस बात के सोचने का अवसर ही नहीं दिया कि बटुआ अपने पास रख ले । वह यही सोच रहा था कि यह बटुआ किसका है? जब उसे मालूम होगा कि उसका बटुआ खो गया है तब उसकी क्या दशा होगी? रुपये-पैसे का क्या मूल्य है, यह बात वह कुछ दिनों में ही अच्छी तरह जान गया था। उस व्यक्ति की उस समय की दशा का विचार करके वह इस प्रकार सिहर उठा, मानो उसी का बटुआ खो गया हो।

            उसे ध्यान आया कि कुछ दूर उसने एक गाड़ी जाती हुई देखी थी उस पर कान में मोती- पिरोई सोने की बाली पहने हुए एक महतो बैठे थे । संभव है यह बटुआ उन्हीं का हो। और किसी के पास इतने रुपये होना आसान भी नहीं है। यहाँ कुएँ पर गाड़ी रोककर उन्होंने पानी पिया होगा और आग जलाकर तमाखू भरी होगी। एक जगह आग जलाई जाने के चिह्न मौजूद थे। उसने इस बात पर विचार ही नहीं किया कि गाड़ी तक जाने में कितना समय लगेगा और वह दौड़ पड़ा।

           लगभग आधे घंटे के परिश्रम से वह उस गाड़ी के पास पहुँच गया। गोकुल ने हॉफते-हाँफते पूछा, "महतो तुम्हारा कुछ खो तो नहीं गया?"

          महतो ने चौंककर गाड़ी में इधर-उधर देखा । साथ ही ज़ेब पर हाथ रखा तो पाषाण की तरह निस्पंद हो गये । गोकुल से महतो की वह अवस्था देखी न गयी । बटुआ दिखाकर उसने झट से प्रश्न कर दिया, "यह तुम्हारा है?"

         एक क्षण में ही जीवन और मृत्यु का द्वंद्व-सा हो गया। मानो बिजली के खटके ने प्रकाश बुझाकर फिर से उद्दीप्त कर दिया हो । महतो ने कहा, "भगवान तुझे सुखी रखें भैया! इसे कहाँ पाया?"

        "रास्ते में पड़ा था। इसमें कितने रुपये हैं?"

         महतो ने हिसाब लगाकर बताया, "बयालीस रुपये, एक अठन्नी, एक घिसी हुई बेकाम दुअन्नी, दस या बारह आने पैसे, एक कागज़, एक चाँदी का छल्ला....

           गोकुल ने बटुआ खोल कर रुपये गिने । सब ठीक निकले। बटुआ हाथ में लेकर महतो की आँखों में आँस भर आए। बोले, "इतनी बड़ी रकम पाकर भी जिसे उसका लोभ न हो, भैया, मैंने ऐसा आदमी आज तक नहीं देखा। यदि किसी और को यह बटुआ मिलता तो मेरा मरण हो जाता। मेरा रोम-रोम असीस रहा है, भगवान् तुम्हें सदा सुखी रखें...." यह कहकर महतो ने बटुए से निकालकर गोकुल को दो रुपये देने चाहे । उसने सिर हिलाकर कहा, "मेरे बप्पा ने किसी से भीख लेने के लिए मुझे मना कर दिया है। मुफ़्त के रुपये मैं न लूँगा ।"

          महतो के सजल नेत्र विस्मय से खुले ही रह गये । गोकुल थोड़ी ही देर में उस अंधकार में उनकी आँखों से ओझल हो गया।

         सब वृत्तांत सुनाकर गोकुल अपराधी की भाँति खड़ा-खड़ा बोला, "बप्पा, आज खाने के लिए कुछ नहीं है महतो से कुछ उधार माँग लाता, तो सब ठीक हो जाता | मेरी समझ में यह बात उस समय आयी ही नहीं।"

        बुद्धन की आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे। गोकुल को अपनी दोनों भुजाओं में भरकर उसने छाती से लगा लिया । आनंदातिरेक ने उसका कंठावरोध कर दिया । उसे मालूम हुआ कि उसके क्षुधित और निर्जीव शरीर में प्राणों का संचार हो गया है। उसे जिस तृप्ति का अनुभव होने लगा वह दो-एक दिन की तो बात ही क्या जीवन भर की क्षुधा शांत कर सकती है। धन-संपत्ति, मान और बड़ाई सब उसे तुच्छ से प्रतीत होने लगे । मानो एकाएक उसके सब दुःख रोग दूर हो गये हैं। अब वह बिना किसी चिंता के मृत्यु का आंलिगन इसी क्षण कर सकता है।

          बड़ी देर में अपने को सँभालकर बुद्धन बोला, "अच्छा ही किया बेटा, जो तू महतो से रुपये उधार नहीं लाया । यह उधार माँगना भी एक तरह का माँगना ही होता । भगवान ने तुझे ऐसी बुद्धि दी है, मैं तो यही देखकर निहाल हो गया। दो-एक दिन की भूख हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती । जिस तरह चातक अपने प्राण देकर भी मेघ के सिवा किसी दूसरे का जल लेने का व्रत नहीं तोड़ता, उसी तरह तू भी ईमानदारी की टेक न छोड़ना । मुझे मालम हो गया, यह तू मुझसे भी अच्छी तरह जानता है। फिर भी कहता हूँ । सदा ऐसी ही मति रखना । चाहे जितनी बड़ी विपत्ति पड़े, अपनी नीयत न डुलाना ।"

         ऊपर चातक-पुत्र सुन रहा था। उसकी आँखों से भी झर-झर आँसू झरने लगे। बड़ी कठिनता से वह रात = बिता सका । पौ फटते ही बड़े सवेरे वह फिर उड़ा । परंतु आज वह विपरीत दिशा को चला, उसी दिशा को, जिधर से वह आया था। उसकी उड़ान पहले से तेज़ हो गयी थी। फिर भी अपने कोटर तक पहुॅँचने में उसे चार दिन की जगह सात दिन लग गये। दूसरे दिन से ही मेघों ने उठकर ऐसी झड़ी लगा दी कि बीच-बीच में कई जगह रुककर ही वह वहाँ तक पहुँच सका ।


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