नाटक के तत्वों के आधार पर यह सिद्ध कीजिये कि
'स्वर्ग की झलक' एक उत्कृष्ट नाटक है।
प्रस्तावना
जय पराजय को छोड़कर अश्क के सब नाटक सामाजिक हैं। उनके ये सब नाटक जीवन की यथार्थ समस्याओं से संबंधित है। उनके ऐसे उच्च कोटि के नाटकों में स्वर्ग की झलक भी एक है। नाटक के तत्व साधारणतः छे माने जाते हैं। वे है 1. कथावस्तु 2. पात्र व चरित्र चित्रण 3. कथोपकथन 4. भाषा व शैली 5 देशकाल वातावरण 6. उद्देश्य। इन के साथ शीर्षक और रंगमचीयता को मिलाकर आठ भी हो सकते हैं। अब हम देखें कि स्वर्ग की झलक नाटक इन तत्वों के आधार पर कितना खरा उतरता है।
1. कथावस्तु
यह नाटक मध्य वर्गीय अप-टु-डेट नारियों के अस्त-व्यस्त जीवन पर व्यंग्य है। साथ ही यह व्यंग्य उन आत्म भीरु मध्य वर्गीय नवयुवकों पर भी है जो इन आधुनिकाओं की दायित्वहीनता और दिखावटी शिष्टाचार से घबराकर या तो उनके सामने आत्म समर्पण कर देते हैं या एकदम शिक्षित नारियों से ही दूर भागने लगते हैं। इस प्रकार इस नाटक में संक्रांति कालीन समाज की विवाह और प्रेम की समस्या के एक पहलू का यथार्थ चित्रण भी किया गया है। इस नाटक की कथा संक्षेप में यो है।
रघु अट्ठाईस साल का नवयुवक है तथा एक अंग्रेजी समाचार है। पत्र टुडे का नाइट-संपादक। उसकी पहली पत्नी विमला का देहात हो चुका है। उससे उसका एक बच्चा भी है। उसके बड़े भाई साहब औरउसकी शादी उसकी साली रक्षा से करवाना चाहते हैं। लेकिन रख अपने मित्रों की पत्नियाँ जैसी सुशिक्षित और अप-टू-डेट आधुनिका से विवाह करना चाहता है। भाभी उसके इस विचार से सहमत हो जाती है। इसलिए वह रघु की शादी प्रोफसर राजलाल की बेटी उमा से करना चाहती है। उमा सुन्दर है, ग्राजुवेट है और नृत्य कला प्रवीणा है। यहीं पर नाटक का पहला अंक, कथावस्तु की नाटकीय भूमिका प्रस्तुत करके समाप्त हो जाता है।
दूसरे अंक में रघु अपने मित्र अशोक से दावत का निमंत्रण पाकर उसका घर जाता है। अशोक की पत्नी सीता एक सुशिक्षित अप-टू-डेट नारी है। वह घर का काम-काज खुद करना नहीं चाहती। हरेक काम के लिए नौकर रखना चाहती है। लेकिन अशोक की आर्थिक स्थिति उसे ऐसा न करने देती, इसलिए वह दावत की तैयारी में सहयोग करना नहीं चाहती। वह सिरदर्द का बहाना करके लेट जाती है। अशोक खुद खीर बनाता है। सिर्फ रोटी सेंकने का आग्रह पत्नी से करता है जिसे वह इनकार कर देती है। अशोक की स्थिति इस कारण से, बड़ी दयनीय हो जाती है। लेकिन रघु के आते ही अशोक इन सब पर परदा डालना चाहता है जिसमें उसे सफलता नहीं मिलती। रघु वहाँ का सब हाल समझकर भूखा ही अपने दूसरे मित्र राजेन्द्र के घर में खाना खाने के उद्देश्य से वहाँ से रवाना हो जाता है।
तीसरे अंक में रघु के श्रीमती राजेन्द्र की पारिवारिक दायित्वहीनता और इस कारण राजेन्द्र के दुख भरे पारिवारिक जीवन का परिचय प्राप्त होता है। राजेन्द्र का बच्चा बीमार है। उसकी देखभाल करते करने राजेन्द्र बिना कुछ खाये-पिये उपवास रखता है। लेकिन श्रीमती राजेन्द्र को उनकी परवाह कुछ भी नहीं। वह तो एस. आर. सभा के चैरिटी कसर्ट के प्रबंध में व्यस्त है। उसे पति और पुत्र से अधिक बाहरी प्रदर्शन की ही चिंता है। रघु वहाँ से निराश होकर निकलता है।
चौथे अंक में रघु कंसर्ट में जाकर श्रीमती राजेन्द्र और उमा का नृत्य देखता है। नृत्य की समाप्ति पर उमा से मिलता है। बातचीत में वह उमा की "पति-पत्नी अलग - अलग हस्तियाँ वाली राय को जान लेता है जो रघु को अच्छा नहीं लगता। अपने दो मित्रो के कौटुबिक जीवन की दयनीय स्थिति और उमा के पति-पत्नी रिश्ते के विचार से घबराकर उसका इरादा बदल जाता है। वह भाभी और भाई से रक्षा से विवाह करने का अपना निर्णय सुनाता है। यहीं नाटक की समाप्ति होती है।
2. पात्र और चरित्र चित्रण
नाटक के प्रमुख पात्रों में रघुनन्दन, अशोक, राजेन्द्र, भाई साहब, प्रो० राजलाल आदि पुरुष पात्र, भाभी, सीता, श्रीमती राजेन्द्र, उमा, प्रोफसराइन आदि स्त्री पात्र है। रघु का चरित्र चित्रण एक मध्य वर्गीय भीरु नवयुवक के रूप में हुआ है जो तीन शिक्षित औरतो के कुसंस्कार, दायित्ववहीनता और गलत विचार का परिचय पाकर शिक्षित नारियों से दूर भागता है। अशोक और राजेन्द्र तो ऐसे नव युवक हैं जो शिक्षित आधुनिकाओं से ब्याह करके उनके असहयोग और दायित्वहीनता सहन करके उनके सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं। श्रीमती अशोक और श्रीमती राजेन्द्र तो ऐसी शिक्षित नारियाँ है जिन्हें परिवार, पति और बीमार बच्चे तक की कुछ चिंता नहीं। लेकिन नाब प्रदर्शन के पीछे जान देने को तैयार है। भाभी और भाई साहब आदर्श दम्पति के रूप में चित्रित है। भाई साहब पुराने विचारो के हैं तो भाभी पुरानी और नई विचार धाराओं का समन्वय है। उमा नो श्रीमती अशोक और श्रीमती राजेन्द्र के दाम्पत्य जीवन को 'स्वर्ग' कहकर उन्हीं को अपना आदर्श मानती है, जिसके कारण रघु उससे शादी करने से घबरा जाता है। प्रो० राजलाल और उनकी पत्नी में अपनी बेटी के लिये रघु जैसे अच्छे वर को पाने की आतुरता है।
3. कथोपकथन - नाटक में संवादों का अधिक महत्व है। कथा का विकास नाटक में संवाद के द्वारा ही किया जाता है। संवादों द्वारा नाटक में प्रस्तुत होनेवाली घटनाओं का विवरण तथा पात्रों के चरित्र का आभास भी हमें मालूम हो जाता है।
(अ) हुई घटना
भाई साहब "तुम्हारी पत्नी का देहान्त हुए आज दो वर्ष हो चुके हैं।"
(आ) विवाह समस्या की प्रस्तुति
भाई साहब - "तुम्हारी साली को तुम्हारे बच्चे से जो प्यार हो सकता है, वह किसी दूसरी लड़की से नहीं हो सकता। मेरे विचार में यदि तुम्हें विवाह करना है तो रक्षा से! रघु - " रक्षा से विवाह हरगिज़ नहीं ... मैं रसोइन या दरजिन नहीं चाहता।
इन कथनों से हमें समस्था का ही नहीं, बल्कि भाई साहब और रघु के चरित्रों का भी आभास मिलता है।
इ. एक पात्र के मन की बात दूसरे पात्र के कथन के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
भाभी "भाई, हमारे देवर को तो ऐसी लड़की चाहिए जो श्रीमती अशोक की तरह डेढ़ दर्जन ढंग से बाल बना सके।"
इस कथन द्वारा रघु के मन की बात भाभी द्वारा व्यक्त किया पात्रों के कथोपकथन द्वारा समाज पर पड़े कुप्रभावों की यथार्थता
जाता है।
आसानी से दिखायी जाती है
राजेन्द्र (रघु से)
"आदमी को किसी पल चैन नहीं। पत्नी अशिक्षित थी तो रोते थे, शिक्षित है तो रोते हैं।
"मैं सोचता हूँ शिक्षा का जो घातक प्रभाव हमारे यहाँ की औरतों पर दिनो दिन पड़ रहा है यह उन्हें किधर ले जायगा और उनके साथ हम गरीबों को भी"
इस तरह, संवादो से समस्या की प्रस्तुति, कथावस्तु का विकास, पात्रों का चरित्र चित्रण, समाज पर पड़े कुप्रभाव व कुरीतियां की यथार्थता का प्रदर्शन आदि कार्य इस नाटक में सुचारुता से संपन्न किया गया है।
4. भाषा व शैली
इस नाटक की भाषा मुहावरेदार व सरल है। शब्दों में दुरूहता या क्लिष्टता कहीं नहीं। नाटक की भाषा शिक्षित लोगों की होने के कारण, 'कालेज', 'फिट', 'नाइट', 'काऊच', 'प्रोफसर', 'ऐस्पिन' "कोनीन' आदि अंग्रेजी शब्द अनिवार्य रूप से आ गये हैं।
अश्क की शैली का बड़ा गुण उनकी प्रतीकात्मता और सांकेतिकता है। संकेतों और प्रतीकों के सहारे वे वातावरण उपस्थित करने में सिद्धहस्त हैं। उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जीवन-वैविध्य के अनुभव से प्राप्त वस्तु-सत्यों को वे रंगमंच पर अपने शिल्प चातुर्य के बल पर यथार्थ रूप से प्रस्तुत करते हैं। साथ ही शैली में वस्तु-चयन, वस्तु-विन्यास, भाव प्रवहमानता और एक्सालीपन आदि का बड़ा हाथ है।
5. देशकाल वातावरण
इस नाटक में हमारे देश के संक्रांति काल के मध्यवर्गीय परिवारों का सजीव चित्रण है। आज के मध्यवर्ग के परिवारों की आर्थिकता, मानसिक भावना व द्वन्द्व, बाहरी दिखावे के प्रति मोह आदि का सजीव वर्णन इस नाटक में है। साथ ही समय, स्थान और संपादन की एकता का समुचित निर्वाह भी किया गया है।
6. उद्देश्य
इस नाटक की भूमिका में अश्क ने 'स्वर्ग की झलक" के उद्देश्य को यो प्रकट किया है।
"नाटक का उद्देश्य शिक्षा अथवा आधुनिक नारी के विरुद्ध न होकर उस मनोवृत्ति का विरोध करना है, जो हमारे यहाँ की शिक्षित लड़कियों में पैदा होती जा रही है कि वे सब उदार विचारों के, शिक्षित और धनी पति चाहती हैं और अपना बाहर संवारने के जोश में घर बिगाड़ती जाती हैं।
श्रीमती अशोक, श्रीमती राजेन्द्र और उमा के पात्रो की राशि द्वारा उन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति की है। साथ ही रघुनन्दन के पात्र चित्रण में मध्य वर्ग के भीरु युवक की अस्थिर चिंता पर भी व्याय है। वह शिक्षित नारी की ओर बढ़ता भी है और उसकी दायित्व हीनता और कुसंस्कार देखकर डरकर पीछे लौटता है।
7. रंग मंचीयता
पाश्चात्य नाटको के तत्वों को लेकर भारतीय रंगमंच को घष्टि में रखकर नाटक की रचना की है। यह एक छोटा नाटक है जिस में चार ही अंक हैं। पहले तीन अंको में दृश्य विभाजन नही। सिर्फ चतुर्थ अंक में चार दृश्य हैं। मुख्य पात्र कम है। रंगमंच के निर्देश खूबी से दिये गये हैं। साधारण घर के ही 'सेट' है। साज-सज्जा में दिक्कत नहीं होती। ज्यादा पट-परिवर्तन करने की जरूरत भी नहीं होती। इसलिये यह एक सफल अभिनेय नाटक है।
8. शीर्षक
शीर्षक का उल्लेख नाटक में ही दो संदर्भों मे आता है। दूसरे अंक में अशोक अपनी लिखी पुस्तक 'स्वर्ग की झलक' का जिक्र अपनी पत्नी और रघु से करता है और चौथे अंक के तीसरे दृश्य में उमा इसका जिक्र कर उसकी प्रशंसा करती है।
अशोक तथा राजेन्द्र शिक्षित पत्नियों से विवाह करके अपने दाम्पत्य जीवन में स्वर्गानुभव पाना चाहते हैं। लेकिन उनको वांछित स्वर्ग की झलक नहीं मिलती। रघु भी उनके घर की इस 'अवांछित 'स्वर्ग की झलक' को देखकर शिक्षित लड़की से व्याह करने का अपना इरादा बदल लेता है। उसको यह बात बिदित होती है किउसके बोझ को हलका करनेवाली संगिनी के रूप में प्राप्त पत्नी के का जीवन ही "स्वर्ग की झलक है। इस प्रकार इस नाटक का शीर्षक उपयुक्त और सार्थक बना हैं।
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