हिन्दी गद्य साहित्य की विकास-यात्रा
हिन्दी साहित्य के इतिहास का संक्षिप्त परिचय यहाँ भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। हिन्दी गद्य-साहित्य के विकास को जानने से पूर्व ऐतिहासिक काल-विभाजन और साहित्य की प्रवृत्तियों का अवलोकन अप्रासंगिक नहीं होगा।
आदिकालः
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल आदिकाल अथवा वीरगाथा-काल की अवधि, संवत् 1050 से लेकर 1375 तक मानी जाती है। 'वीरगाथा' शब्द से ही उस काल- गत काव्य की प्रमुख विशेषता का बोध हो जाता है। यद्यपि भक्ति, श्रृंगार, सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी कविगण अपनी रचनाएँ करते रहे, फिर भी साहित्य के समग्र रूप का आकलन करते समय युद्ध- साहित्य, युद्ध के वर्णन की प्रधानता के कारण यह नामकरण सर्वमान्य रहा। इस काल की रचनाओं में विजयपालरासो, हम्मीररासो, कीर्तिलता और कीर्तिपताका को अपभ्रंश-साहित्य मानते हुए गिनती में नहीं लिया गया। खुमानरासो, बीसलदेवरासो, पृथ्वीराजरासो, जयचंद प्रकाश, जयमयंक जसचंद्रिका, परमालरासो, खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली प्रमुख मानी जाती हैं।
इसी युग के अंतर्गत नाथ-सिद्ध-साहित्य भी समाविष्ट है। जैन मुनियों का विशाल धार्मिक साहित्य भी उपलब्ध है। कवि अब्दुर रहमान का 'संदेश रासक' इसी युग की अत्यंत रमणीय कृति है। विषय-वस्तु की दृष्टि से स्पष्ट है कि इस कालखण्ड में वीरगाथात्मक रचनाएँ ही नहीं, बल्कि विभिन्न रसों की साहित्यिक कृतियाँ भी समाविष्ट की गई हैं।
भक्तिकालः
संवत् 1375 से लेकर 1700 तक का समय भक्ति काल माना जाता है। नामकरण की समस्या ने इस कालखण्ड को भी अछूता नहीं छोड़ा है। भक्ति-काल, जो कि पूर्व मध्यकाल भी कहलाता है, के दौरान भक्ति की भावधारा ने ही साहित्य को समृद्ध बनाया है; यों कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। इस काल में भक्ति की भी विभिन्न शाखाएँ और धारणाएँ प्रचलन में रहीं। पं. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार भक्ति- आन्दोलन भारतीय चिंतन का ही स्वाभाविक विकास है।
नाथ-सिद्धों की साधना, अवतारवाद, लीलावाद आदि प्रवृत्तियाँ दक्षिण भारत से आकर, इस धारा में घुलमिल गयीं। यह आन्दोलन और साहित्य लोकोन्मुख और मानवीय करुणा के महान् आदर्श से युक्त था। भक्ति की ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी रूपी दो शाखाएँ निकल पड़ी। हिन्दु-मुस्लिम संप्रदाय के समन्वय की प्रवृत्ति को लेकर ज्ञानाश्रयी शाखा का कबीर ने नेतृत्व किया तो सूफ़ी संप्रदाय के अनुयायी प्रेमाश्रयी पंथ पर चल पड़े।
निर्गुण धाराः- भक्ति-काल के प्रारंभ की संत काव्य-परंपरा अत्यंत महत्व रखती है। कबीरदास के पहले भी यद्यपि निर्गुणोपासक भक्त संत कवि के रूप में प्रसिद्ध रहे तथापि कबीर के समय से ही इस काव्य धारा को स्थायित्व प्राप्त हुआ। संत काव्य की अनेक विशेषताएँ हैं।
कवि निराकार ब्रह्म का वर्णन करते हैं, उनके साथ साक्षात्कार और मिलन की अनुभूति प्रकट करते हैं। निर्गुण साहित्य में अंतर्निहित रहस्यवाद इसी अनुभूति की उपज है।
इस धारा के कवि समाज-सुधारक भी थे। जाति-भेद, वर्ण-भेद, शोषण आदि का खंडन इनके काव्य के माध्यम से लक्षित होता है। गुरु की महिमा, बाह्याडंबर एवं रूढ़िवाद का खंडन, इनकी अन्य विशेषताएँ हैं। संत रैदास, धरमदास, दादूदयाल, सुंदरदास, मलूकदास आदि अन्य प्रमुख कवि हैं। ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में इस पंथ के कवि लिखा करते थे। इन कवियों की भाषा आम तौर पर सधुक्कड़ी मानी जाती है।
उदाहरण के लिए कबीरदास का दोहा इस प्रकार है-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोइ ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ें सु पंडित होइ ।।
मलूकदास की रचना का उदाहरण देखें:-
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम ।
दास मलूका कहि गये, सबके दाता राम ।।
गुरुनानक जैसे पंजाब के संत कवि ने भी इसी पंथ को अपनाया था।
प्रेमाख्यान परंपरा के अंतर्गत दो प्रकार के प्रेमाख्यान मिल रहे हैं। आध्यात्मिक प्रेमपरक काव्य और विशुद्ध लौकिक प्रेमगाथा काव्य । मुसलमान सूफी कवियों के द्वारा तथा हिन्दू भक्त कवियों के द्वारा विरचित प्रेमाख्यानों में कुतुबन का "मृगावती", मंझन का "मधुमालती" जैसे काव्य प्रसिद्ध हैं। मलिक मुहम्मद जायसी, जो प्रसिद्ध सूफी संत थे, के पद्मावत काव्य ने हिन्दी प्रेमकाव्य परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। सूफ़ी कवियों की रचनाएँ प्रायः कल्पना पर आधारित हुआ करती थीं, पर जायसी ने कल्पना के साथ-साथ इतिहास का भी समावेश किया।
सूफ़ी शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। ज्ञानी के अर्थ में प्रचलित यूनानी शब्द सूफ़ी से संबंध जोड़ा जाता है। दूसरी राय के अनुसार सूफ़ - अर्थात् पवित्रता के आधार पर परमात्मा से जुड़कर, सादा और पवित्र जीवन जीनेवाले सूफी संत कहलाये।
सगुणधारा
सगुण भक्तिधारा के अंतर्गत रामभक्ति और कृष्णभक्ति के नाम से दो शाखाएँ प्रचलन में आयीं। रामचरितमानस और अन्य विशिष्ट कृतियों के रचयिता के रूप में गोस्वामी तुलसीदास ने इस शाखा का नेतृत्व किया। कृष्णभक्ति शाखा को वल्लभाचार्य ने और उनके शिष्यों, जिन्हें "अष्टछाप" के नाम से जाना जाता है - ने अपने साहित्य से पुष्ट किया।
रामभक्ति शाखा
रामभक्ति शाखां के श्रेष्ठ कवि हैं गोस्वामी तुलसीदास। उन्होंने रामचरितमानस के माध्यम से हिन्दी को प्रौढ़तम साहित्य दिया है। रामचरितमानस के अलावा आपके "कवितावली" रामलीला नहछु, वरवै रामायण, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, गीतावली, वैराग्य सन्दीपनी, कृष्ण गीतावली, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली और विनय पत्रिका आदि ग्रंथ प्रामाणिक माने गये हैं।
नाभादास, प्राणचन्द्र चौहान, हृदयराम आदि रामभक्ति शाखा के अन्य कवि हैं।
कृष्णभक्ति शाखा
कृष्णभक्ति शाखा के सबसे प्रसिद्ध कवि सूरदास हुए। सूरसागर, सूर-सारावली और साहित्यलहरी इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में "हमारे जाने हुए साहित्य में इतनी तत्परता, मनोहारिता और सरलता के साथ लिखी हुई बाललीला अलभ्य है। बाल लीला की प्रत्येक चेष्टा के चित्रण में कवि कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देता है। न उसे शब्दों की कमी है, न अलंकारों की, न भावों की, न भाषा की।"
मीराबाई के अलावा घनानन्द और रसखान जैसे मुसलमान कवियों ने भी कृष्णभक्ति साहित्य को अपना योगदान दिया है। सूर, तुलसी, मीराबाई जैसे महान् भक्त कवियों के साहित्य की उत्कृष्टता और विलक्षणता के कारण भक्ति काल को "स्वर्ण काल" भी कहा गया है।
रीतिकालः-
संवत् 1700 से 1900 तक का समय रीतिकाल के नाम से जाना जाता है। रीतिकाल के साहित्य में श्रृंगार रस की प्रधानता है। रीतिकाल के कवि काव्य को ही सब कुछ मानते थे। काव्य के बाह्य रूप को सँवारने में अपनी शक्ति लगाते थे। कविगण अपने अधिक से अधिक श्रृंगारपूर्ण काव्यों द्वारा अपने आश्रयदाताओं का मनोरंजन करने लगे।
पहले लक्ष्य-ग्रन्थ लिखे गये और बाद लक्षण ग्रंथ - इस प्रकार से रीति ग्रंथों की रचना इस कालखण्ड की विशेषता रही।
काव्य-शास्त्र के अनेक संप्रदाय बने। भरतमुनि का रस संप्रदाय, कुन्तल का वक्रोक्ति संप्रदाय, भामह, दण्डी और रुद्रट का अलंकार सम्प्रदाय, बामन का रीति-सम्प्रदाय और आनन्द वर्द्धन का ध्वनि संप्रदाय प्रमुख हैं। साहित्य शास्त्र का विधिवत् विवेचन केशवदास ने प्रारंभ किया।
लौकिक शृंगारिकता, लक्षण ग्रन्थों का निर्माण, अलंकारिकता, ब्रजभाषा की प्रमुखता, मुक्तक-काव्य शैली की प्रधानता, भक्ति और नीति साहित्य, प्रकृति का उद्दीपन रूप नारी-वर्णन इस काल के साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ मानी जाती हैं।
इस काल में केशवदास, बिहारी, चिन्तामणित्रिपाठी, मतिराम, ललित ललाम आदि प्रमुख कवि हुए हैं।
आधुनिक हिन्दी साहित्य का आरम्भः
आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ सन् 1868 ई0 से मानना उचित होगा। आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु ने अपने अद्भुत प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व से हिन्दी-साहित्य का नेतृत्व अपने हाथों में लिया था। इसके पूर्व का 70-80 वर्षों का समय आधुनिक हिन्दी-साहित्य के मुख्य माध्यम, अर्थात् खड़ी बोली के, साहित्य-क्षेत्र में अधिकार जमाने का समय था; वह भूमिका-स्वरूप था।
इतिहासज्ञों ने आधुनिक हिन्दी साहित्य के सन् 1868 से लेकर आज तक के समय को चार चरणों में विभक्त किया है। सन् 1868 से 1893 ई0 तक के प्रथम चरण को भारतेन्दु-युग भी कहते है। सन् 1896 से 1918 तक का समय द्वितीय चरण अथवा द्विवेदी-युग के नाम से प्रसिद्ध ल है। सन् 1918 से 1936 तक को तृतीय चरण या छायावाद-युग के नाम से अभिहित करते है। सन् 1936 से लेकर आज तक का समय चतुर्थ उत्थान अथवा प्रगतिशील युग के नाम से चल रहा है। प्रत्येक उत्थान की साहित्यिक, कलात्मक और भाषा-सम्बन्धी उपलब्धियों का मूल्यांकन संक्षेप में निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
🔴 प्रथम चरणः भारतेन्दु-युग:-
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जब हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में पदार्पण किया, उस समय तक यद्यपि खड़ी बोली, गद्य के माध्यम के रूप में, अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित कर चुकी थी तो भी राजनैतिक एवं सामाजिक विचार- भेदों के कारण हिन्दी के मार्ग में रोड़े बहुत थे और उर्दू का प्रभाव भी फैलता जा रहा था। परन्तु "भारतेन्दु" के उदय के साथ "सितारेहिन्द" की आभा मन्द हो चली। प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, जगमोहन सिंह, श्रीनिवासदास, बदरीनारायण चौधरी, राधाकृष्णदास, कार्तिकप्रसाद खत्री, रामकृष्ण वर्मा आदि तेजस्वी व्यक्तित्ववाले लेखकों के सामर्थ्यवान् गुट का सक्रिय सहयोग प्राप्त कर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी के मार्ग की सारी बाधाएँ दूर कर उसका भविष्य सदा के लिए निष्कंटक बना दिया। खड़ी बोली हिन्दी में गद्य रचना का अटूट क्रम चल निकला। भारतेन्दु-युग की भाषा- सम्बन्धी यह उपलब्धि हिन्दी के लोगों द्वारा सदैव स्मरण की जायेगी।
खड़ी बोली को गद्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने के साथ भारतेन्दु-वर्ग के लेखकों ने जो दूसरा महान् कांर्य किया वह है तत्कालीन नवीन विचारों से उद्वेलित राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को साहित्य में प्रतिमूर्त करने का। इस प्रकार उन्होंने साहित्य को जीवन के प्रसंग में लाकर खड़ा किया। भारतेन्दु और उनके साथियों ने मिलकर साहित्य के क्षेत्र से रीतिकालीन प्रवृत्तियों को जड़-मूल से निकाला और उनके स्थान में नवीन भावनाओं, विचारधाराओं और चेतना को स्थापित किया। यह इस युग की दूसरी महान् उपलब्धि है।
साहित्य-भण्डार की पूर्ति की दृष्टि से भारतेन्दु-युग में यों तो साहित्य के अनेक ग्रंथों पर ध्यान गया, पर नाटक और निबन्ध उस युग की विशेष देन है। नाटककारों में स्वयं भारतेन्दु का नाम सर्वश्रेष्ठ है। निबन्ध- लेखकों में भारतेन्दु के अतिरिक्त प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि लेखक उल्लेख्य हैं। उपन्यास-लेखन की ओर भी प्रवृत्ति लक्षित होती है। हिन्दी का प्रथम उपन्यास 'परीक्षा-गुरु' इसी काल में लिखा गया। पर मौलिक उपन्यासों की अपेक्षा अंग्रेज़ी, बंगला, संस्कृत से अनुवादों की संख्या अधिक थी। इतिहास और जीवन-वृत्त लेखन का भी श्रीगणेश इसी युग में हो गया था। भारतेन्दु-लिखित 'इतिहास-तिमिर-नाशक' और जयदेव का 'जीवन-वृत्त' प्रसिद्ध हैं।
भारतेन्दु-युग में काव्य की भाषा ब्रजभाषा ही रही। ब्रजभाषा की काव्य-परम्पराएँ भी बहुत कुछ पुरानी बनी रहीं। परन्तु देश-भक्ति, लोक- हित, समाज-सुधार, मातृ-भाषा-प्रेम जैसे नए विषयों के समावेश द्वारा उसमें भी नए वातावरण की सृष्टि हुई और रीतिकालीन नायिका-भेद, नख-शिख-वर्णन के स्थान पर नई काव्यधारा का प्रवर्त्तन हुआ। अतः काव्य के क्षेत्र में भी भारतेन्दु-युग की अपनी उपलब्धि है।
🔴 द्वितीय चरणः द्विवेदी-युग:-
भारतेन्दु का अवसान उनकी 35 वर्ष की आयु में सन् 1885 में हुआ। उनके वर्ग के अन्य अवशिष्ट लेखक बहुत समय बाद तक साहित्य- सेवा करते रहे। आधुनिक हिन्दी-साहित्य के द्वितीय उत्थान का आरम्भ सन् 1893 से माना जाता है। यह तिथि सुविधाजनक इसलिए है कि इसी वर्ष 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई, जो सचमुच ही हिन्दी-साहित्य-जगत की चिर-स्मरणीय घटना है। इसके कुछ ही समय बाद 'सरस्वती' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ, जिसके सम्पादक के रूप में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का आगमन सन् 1900 ई. में हुआ। द्विवेदी जी ने एक पूरे युग पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ी, जिसके फलस्वरूप वह युग ही द्विवेदी-युग कहा जाता है।
भारतेन्दु और उनके सहयोगियों ने जिस खड़ीबोली की गद्य के लिए, प्रतिष्ठा की थी उसमें शक्ति थी, ओज था, भाव-प्रकाशन की क्षमता थी, पर उस काल के लेखकों का ध्यान व्याकरण की शुद्धता और भाषा के रूप की स्थिरता पर उतना नहीं गया था; उनके वाक्य-विन्यास में भी प्रायः शैथिल्य दिखाई पड़ता था। इन कमियों को द्विवेदी जी ने दूर किया। इसी से वे हमारी साहित्य-वाटिका के माली के नाम से विख्यात हैं।
गद्य के क्षेत्र में द्विवेदी-युग में कथा-साहित्य की विशेष प्रगति हुई। मौलिक उपन्यास लिखे जाने लगे। जैसे काव्य में गुप्त जी, वैसे ही उपन्यास में प्रेमचन्द जी की प्रतिभा का प्रस्फुटन यहीं से आरम्भ हुआ। इनका पूर्ण विकास हम आगे के युग में देखते हैं। इस युग के अन्य प्रतिनिधि कथाकार गुलेरी, कौशिक, सुदर्शन और ज्वालादत्त शर्मा है। अन्य भाषाओं से अनुवाद का क्रम पहले युग जैसा ही चलता रहा।
भारतेन्दु-युग में जिन दो साहित्यांगों, नाटक और निवन्ध की उन्नति हुई थी, द्विवेदी-युग में वह रुक-सी गई। उपन्यासों के प्रति वढ़ती हुई रुचि के कारण नाटक की प्रगति विशेष रूप से अवरुद्ध प्रतीत होती है।
साहित्य-समालोचना की वास्तविक नींव इसी युग में पड़ी, यद्यपि नाम के लिए इस विषय में थोड़ा कार्य भारतेन्दु-युग में हो गया था। द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' में नवीन पुस्तकों की 'समीक्षा' के रूप में यह कार्य आरम्भ किया। फिर 'हिन्दी कालिदास की आलोचना', 'विक्रमांक देव चरित चर्चा', 'नैषध- चरित-चर्चा', 'कालिदास की निरंकुशता' आदि आलोचनात्मक पुस्तकों द्वारा उन्होंने अपने साहित्य के इस विशेष अंग की पूर्ति की। मिश्रबन्धुओं ने ऐतिहासिक आलोचना की पद्धति 'नवरत्न' लिखकर चलाई। पद्मसिंह शर्मा, कृष्ण विहारी मिश्र और लाला भगवानदीन ने बिहारी और देव को लेकर हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना को जन्म दिया।
साहित्यिक दृष्टि से जीवन चरित लिखने का काम पंडित माधवप्रसाद मिश्र ने 'स्वामी विशुद्धानन्द' लिखकर आरम्भ किया। फिर बाबू शिवनन्दन सहाय ने हरिश्चन्द्र, गोस्वामी तुलसीदास और चैतन्य महाप्रभु की जीवनियाँ लिखीं।
ऊपर जिन साहित्यांगों का वर्णन हुआ है उनका आरम्भ किसी-न- किसी रूप में भारतेन्दु-युग में हो चुका था। जिस साहित्य-अवयव का आरम्भ द्विवेदी-युग में सर्वथा नया हुआ वह है कहानी। हिन्दी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी पंडित किशोरीलाल गोस्वामी लिखित 'इन्दुमती' है जो 1900 में 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई थी। 'प्रसाद', 'कौशिक, जी.पी. श्रीवास्तव, ज्वालादत्त शर्मा, राधिकारमणसिंह, गुलेरी आदि कलाकारों ने द्वितीय उत्थान में कहानियाँ लिखकर कहानी-कला का रूप हिन्दी में स्थिर किया; परन्तु उसका पूर्ण उत्कर्ष तृतीय उत्थान में देखने को मिलता है।
🔴 तृतीय चरण: छायावाद युग:-
सन् 1918 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के साहित्य से संयास ग्रहण करते-करते देश की परिस्थितियों में बड़ा भारी परिवर्तन संघटित हुआ। इसी समय प्रथम महायुद्ध की समाप्ति हुई, जिससे भारतीयों ने बहुत अधिक राजनैतिक आशा लगी रखी थी, पर जिसका परिणाम उन्हें जलियाँ वालाबाग के भीषण नर-हत्याकांड के रूप में भुगतना पड़ा। देश में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विक्षोभ की लहर दौड़ने लगी जिसका सक्रिय रूप गांधी जी के नेतृत्व में 1921 के असहयोग आन्दोलन में देखने को मिला। युद्ध के फलस्वरूप जीवन की आवश्यक वस्तुओ के अभाव में होड़-सी मच गई। आर्थिक विषमता का विकराल रूप दिखाई पड़ने लगा। इनका प्रभाव साहित्य पर होना अनिवार्य था।
द्विवेदी-युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध भी प्रतिक्रिया आरम्भ हो गई थी। सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों में द्विवेदी-युग 'यथा-स्थिति' का समर्थक था, जिसका तात्पर्य, दूसरे शब्दों में, यह है कि वह प्रगति का विरोधी था। साहित्य में उसकी इतिवृत्तात्मकता, नीरस भावाभिव्यक्ति-शैली और पुराण-पंथी आदतों से लोगों को ऊब हो चली थी। अंग्रेज़ी और बँगला के प्रभावों से हिन्दी साहित्य की नई प्रतिभाएँ नई दिशा की खोज में लग गई थीं।
तृतीय चरण में हिन्दी-काव्य का क्षेत्र नवीन परिस्थितियों का सबसे अधिक प्रतिविम्बित करने वाला हुआ। भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से ने इसने इतनी अधिक महत्ता अर्जित की कि पूरे युग को यह अपना नाम दे गया। 1928 ई. से 1936 ई. तक के समय को 'छायावाद-युग' के नाम से अभिहित करने का मुख्य कारण यही है कि इस युग में काव्य की छायावादी प्रवृत्ति प्रधान रही।
द्विवेदी-युग से बिल्कुल स्वतंत्र नया वस्तु- विधान, नई अभिव्यंजना-शैली, नया छन्द-विधान, गीति, कल्पना, लाक्षणिकता, प्रगल्भता, व्यक्ति-स्वातन्त्र्य-उद्घोष, प्रकृति-प्रेम आदि इस नवीन प्रवृत्ति की कुछ उल्लेख्य विशेषताएँ हैं। 'प्रसाद', 'पंत', 'निराला' छायावाद के प्रवर्त्तक हैं। बाद में महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा आदि कवियों ने इस धारा को अग्रसर करने में सहायता की। पचासों नाम इस सम्बन्ध में और गिनाए जा सकते हैं।
छायावादी काव्य के अतिरिक्त तृतीय चरण की मुख्य सफलता उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में रही। प्रेमचन्द ने 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि', 'गवन', 'निर्मला', 'प्रेमाश्रम' आदि उपन्यासों द्वारा गांधी जी की राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा का साहित्य में प्रतिनिधित्व किया और साथ ही मानव-प्रकृति का निरूपण भी भली-भाँति कर दिखाया। वृन्दावनलाल वर्मा ने 'गढ़-कुँडार' और 'बिराटा की पद्मिनी' लिखकर ऐतिहासिक उपन्यास का मार्ग प्रशस्त किया। उपन्यासों से भी प्रचुर विकास छोटी कहानियों का हुआ। यहाँ भी प्रेमचन्द ने ही मार्ग-प्रदर्शन किया। उपन्यास- कहानी के क्षेत्र में इस युग में जितने लेखक हुए उनकी संख्या छायावादी कवियों से कम कदापि न होगी।
तीसरा साहित्यांग जो इस युग में समृद्धि को प्राप्त हुआ वह नाटक है। दूसरे उत्थान में इसकी गति अवरुद्ध थी। इस तीसरे उत्थान में पहुँचकर यह नई उमंग से आगे बढ़ा। प्राचीनता का आवरण छोड़कर इसने नवीन अथवा पाश्चात्य रूप उत्तरोत्तर अपनाया। 'प्रसाद' और 'प्रेमी' ने ऐतिहासिक नाटकों से हिन्दी को उपकृत किया तो उदयशंकर भट्ट ने पौराणिक कथावस्तु को अपनाया।
सेठ गोविन्ददास ने वर्तमान जीवन से सम्बन्धित राजनीतिक और सामाजिक पक्षों को लिया तो लक्ष्मीनारायण मिश्र ने 'समस्या' नाटक लिखे। 'उग्र', पंत आदि जाने कितने नाटककार इस तृतीय उत्थान में उत्पन्न हुए, जिनकी रचनाओं से साहित्य की श्रीवृद्धि हुई।
निबन्ध-लेखकों में प्रमुख नाम पंडित रामचन्द्र शुक्ल का है, और यह एक अकेला नाम ही हिन्दी निबन्ध-साहित्य की गरिमा का घोष करने के लिए पर्याप्त है। 'चिन्तामणि' हिन्दी का गौरव-ग्रन्थ है। गद्य-काव्य नाम का नया साहित्यांग इस चरण में उद्भूत होकर पल्लवित हुआ। गद्य-काव्य ग्रन्थों के प्रणेता कई हुए जिनमें चतुरसेन शास्त्री, वियोगी हरि, राय कृष्णदास, रघुवीर सिंह प्रमुख हैं।
साहित्य के इतिहास-लेखन का कार्य भी इसी युग में वैज्ञानिक ढंग से हुआ। आचार्य शुक्ल का 'हिन्दी साहित्य का इतिहास', आचार्य श्यामसुन्दरदास का 'हिन्दी भाषा और साहित्य', रामकुमार वर्मा का 'विवेचनात्मक इतिहास' आदि इसी युग में प्रकाशित हुए।
इस तृतीय चरण में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अन्तःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। आचार्य शुक्ल द्वारा लिखित सूर, तुलसी और जायसी पर आलोचनाएँ इस दिशा को बताने वाली हुई। फिर तो 'कलाओं' और 'साधनाओं' का ताँता बँध गया। पचासों की संख्या में प्राचीन और अर्वाचीन कवियों की 'कला' और 'काव्य-साधना' पर पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनसे हमारा समीक्षा-साहित्य समृद्ध वना।
कृष्णशंकर शुक्ल की 'केशव की काव्य-कला', सत्येन्द्र की 'गुप्त जी की कला' जनार्दन झा द्विज की 'प्रेमचन्द की उपन्यास-कला', अखौरी गंगाप्रसादसिंह की 'पद्माकर की काव्य-साधना', सुमन-कृत 'प्रसाद की काव्य-साधना', भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र-कृत 'मीरा की प्रेम-साधना' आदि केवल पहले खेमे की रचनाएँ हैं। बाद में कितने ही और एक-से-एक बढ़कर सफल समालोचना-ग्रन्थ प्रकाशित हुए। विशेष कवियों की आलोचना के अतिरिक्त साहित्य-समीक्षा-सिद्धान्त पर भी पुस्तकें लिखी गई और कला के सम्बन्ध में सोच-विचार हुआ।
🔴 चतुर्थ चरण - प्रगतिवाद-युगः
1936 के आस-पास विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी अपनी चरम सीमा को पहुँच गई। वस्तुओं के मूल्य में अकल्पनीय ह्रास हुआ; परिणामस्वरूप उनके उत्पादक कृषक और मज़दूर आर्थिक विषमता की चक्की में बुरी तरह पिसे। प्रथम महायुद्ध के प्रतिक्रिया के रूप में यह मन्दी शुरू हुई थी। उसे रोकने का प्रयत्न तो दूर रहा, संसार की महान् शक्तियाँ दूसरे महायुद्ध की तैयारी में जी-जान से लग गई थीं। संसार मानो गोले-बारूद के ढेर पर बैठा था। भारतीय समाज में भी त्राहि-त्राहि मची थी। देश के स्वातन्त्र्य युद्ध की धार जितनी ही तेज हो गई थी, आर्थिक दशा उतनी ही क्षीण थी। शासकों का अत्याचार, निहित स्वार्थों का शोषण अपनी सीमा पर था। ऐसे ही समय में सुमित्रानन्दन पंत का 'युगान्त' प्रकाशित हुआ और युग की प्रवृत्तियों का दर्पण 'साहित्य' मानो एक नए युग में प्रविष्ट हुआ। जब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया शुरू हो गई हो तो कैसे सम्भव था कि हिन्दी साहित्य 'छायावाद' की छाया-सदृश कोमल भाव-भूमि पर विचरण करता रहता। उसे वहाँ से उतर कर यथार्थवाद की कठोर भूमि पर आना ही था।
चतुर्थ चरण का जो दूसरा नाम प्रगतिशील-युग है उसका कारण यही है कि इस युग में किसानों, मजदूरों और शोषितों के उद्धार की ओर कवियों और लेखकों का ध्यान गया है। गद्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द ने प्रगति का मार्ग वताया। 1936 में हुए 'प्रगतिशील लेखक संघ' के प्रथम अधिवेशन का सभापतित्व उन्हीं के द्वारा हुआ। 'गांधीवाद' से आस्था हटाकर यथार्थवादी बनकर वह कहीं और जा रहे थे, इसका पक्का प्रमाण वह 'गोदान' में मरते-मरते दे गए। काव्य के क्षेत्र में नवीन प्रवृत्ति का सृजन पंत जी के द्वारा हुआ, इसका संकेत हमने ऊपर किया है।
हम हिन्दी साहित्य के चतुर्थ चरण के मध्य से निकल रहे हैं, अतः उसकी उपलब्धियों पर कुछ कह सकना कठिन है। प्रत्यक्ष देखने में यह आ रहा है कि यह चरण 'वादों' का है। काव्य के क्षेत्र में न केवल 'प्रगतिवाद' का वोलवाला है, वरन् प्रतीकवाद और प्रयोगवाद का भी ज़ोर है। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का भी प्रभाव कम नहीं है। साम्यवाद और समाजवाद प्रगतिवाद के मुख से बोल रहे हैं। काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना सभी क्षेत्रों में सम्प्रति प्रगति हो रही है, पर किसी न किसी 'वाद' की छाया में। यह खटके की बात भी है।
🍁 हिन्दी गद्य साहित्य की आधुनिक विधाएँ:-
नाटक:- गद्य की यह प्राचीन विधा है। इसके रचना-विधान में पद्य का भी प्रयोग किया जाता है। प्राचीन काल में नाटक को रूपक का एक भेद माना जाता था। आजकल रूपक के अर्थ में नाटक का प्रयोग शामिल हो गया है। नाटक में दो विपरीत समस्याओं या स्थितियों का संवादों के माध्यम से द्वन्द्वात्मक प्रस्तुतीकरण होता है। भारतेन्दु, प्रसाद, हरिकृष्ण प्रेमी, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल आदि प्रसिद्ध नाटककार हैं। नाटक की एक विधा एकांकी है। रेडियो नाटक भी इसी वर्ग में आते हैं। एकांकी नाटककारों में रामकुमार वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर ग आदि प्रमुख हैं।
उपन्यासः- मध्यवर्गीय यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए गद्य की व्यापक ने विधा उपन्यास का विकास पश्चिम के नॉवेल की प्रेरणा से हुआ है। साहित्य समाज का दर्पण है, यह उक्ति उपन्यास के लिए सबसे अधिक चरितार्थ होती है। मानव-चरित्र के व्यापक क्षेत्र से सम्बद्ध यह विधा महाकाव्य का विकल्प बनती जा रही है। कुछ उपन्यासों के लिए महाकाव्यात्मक विशेषण प्रयुक्त होने लगा है। प्रेमचन्द, भगवतीचरण वर्मा, जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, अश्क आदि उपन्यासकारों ने इस विधा को समृद्ध किया है।
कहानी:- जीवन के किसी एक प्रसंग या स्थिति या अनुभव को कलात्मक कसावट के साथ एक निश्चित आयाम और शिल्प में प्रस्तुत करने वाली गद्य विधा को कहानी कहते हैं। उपन्यास में जीवन की विविध घटनाओं को व्यापक रूप से ग्रहण किया जाता है, किन्तु कहानी में कोई एक मार्मिक घटना या प्रसंग होता है। कहानी का विकास तेजी से चरम सीमा की ओर होता है, चरम सीमा पर ही उसकी समाप्ति हो जाती है। इसमें निश्चित परिणति या फलागम का आग्रह नहीं रहता। प्रेमचन्द, प्रसाद, अज्ञेय, जैनेन्द्र, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी शिवानी आदि हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार हैं।
निवन्धः- निबन्ध गद्य की अन्य विधाओं की तुलना में आधुनिक विधा है। इसमें किसी विषय का आत्मिक स्वच्छन्दता, स्वनिर्मित अनुशासन के साथ एक निश्चित सीमा के अन्तर्गत विवेचन किया जाता है। इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्तित्व की छाप रहती है। वर्णनात्मक, विवरणात्मक, विचारात्मक और भावात्मक इसके कई भेद हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, शांतिप्रिय द्विवेदी, वासुदेवशरण अग्रवाल, गुलाबराय, कुबेरनाथ राय, आदि हिन्दी के श्रेष्ठ निबंधकार हैं।
आलोचना:- किसी साहित्यिक कृति का सम्यक् रूप से परीक्षण, विश्लेषण एवं विवेचन को आलोचना कहते हैं। समीक्षा, अनुशीलन समालोचना आदि अन्य इसके पर्याय हैं। आलोचना के क्षेत्र में शुक्लजी के अतिरिक्त नंददुलारे वाजपेयी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, डा. नगेन्द्र, डा. रामविलास शर्मा आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
जीवनी:- इस विधा में किसी लेखक या महापुरुष के जीवन की घटनाओं, क्रिया-कलापों तथा अन्य गुणों का वर्णन बड़ी आत्मीयता के साथ गम्भीर एवं व्यवस्थित ढंग से किया जाता है। जीवनी लेखक व्यक्ति विशेष के जीवन की उन घटनाओं को विशेष रूप से उजागर करता है जो पाठकों के लिए प्रेरणादायक होती हैं। गुलाबराय, रामविलास शर्मा, अमृतराय आदि ने हिन्दी के जीवनी साहित्य को विकसित किया है।
आत्मकथा:- यह भी एक तरह की जीवनी है। आत्मकथा में व्यक्ति अपने विषय में स्वयं लिखता है, जब कि जीवनी भिन्न व्यक्ति के द्वारा लिखी जाती है। श्यामसुंदरदास, सेठ गोवनिद दास, डा. राजेन्द्र प्रसाद, बच्चन आदि ने प्रेरक आत्मकथाएँ लिखी हैं।
रेखाचित्र:- चित्रकला के आधार पर 'रेखाचित्र' वस्तुतः अंग्रेज़ी के 'स्केच' Sketch और "पोट्रेट पेंटिंग" Portrait painting के समान है। 'रेखाचित्र' अथवा 'शब्दचित्र' वाली विधा अधिक प्रचलन में आयी है। जिस प्रकार कुछ थोड़ी-सी रेखाओं का प्रयोग करके चित्रकार किसी व्यक्ति या वस्तु की मूलभूत विशेषता को उभार देता है, उसी प्रकार कुछ थोड़े शब्दों में साहित्यकार किसी व्यक्ति या वस्तु की विशेषता को सजीव कर देता है। महादेवी वर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी, श्रीराम शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि ने उत्कृष्ट रेखाचित्रों का सृजन किया है।
संस्मरण:- संस्मरण का अर्थ है सम्यकु स्मरण करना। इसमें लेखक किसी घटना या वस्तु या व्यक्ति से जुड़े हुए अनुभवों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। स्मरणीय व्यक्ति कोई महापुरुष ही होता है। इसमें तथ्य परकता अधिक होती है। यशपाल, रामवृक्ष बेनीपुरी, महादेवी वर्मा आदि अनेक लेखकों ने महापुरुषों से सम्बद्ध अपने संस्मरण लिखे हैं।
यात्रा साहित्य:- इसमें यात्रा सम्बन्धी वृत्तांत होता है। यह साहित्य रोचक और मनोरंजक विधा है। यात्रा साहित्य के प्रमुख लेखकों में अज्ञेय, राहुल सांकृत्यायन, दिनकर, प्रभाकर माचवे आदि के नाम लिये जा सकते हैं।
पत्र-साहित्य:- साहित्यकारों तथा चिन्तकों द्वारा लिखित पत्रों को भाषा की साहित्यिकता तथा विचारात्मकता के कारण साहित्य की कोटि में रखा जाता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी के पत्रों को द्विवेदी पत्रावली, प्रेमचन्द के पत्रों को चिट्ठी-पत्री के नाम से संकलित किया गया है।
डायरी:- साहित्यकार नित्य प्रति के अनुभवों को मानसिक प्रतिक्रिया के साथ अपनी डायरी में नोट कर लेते हैं। कतिपय दृष्टियों से इनका भी साहित्यिक महत्व माना जाता है। देवराज ने 'अजय की डायरी' नाम से डायरी शैली में एक उपन्यास भी लिखा है।
रिपोर्ताज:- किसी घटना को अपने मूल्यों और आदर्शों के अनुसार प्रस्तुत करना रिपोर्ताज कहलाता है। रांगेय राघव रचित "तूफानों के बीच" और रघुवीर सहाय की 'सीढ़ियों पर धूप में' इसी तरह की रचनाएँ हैं।
इंटरव्यू:- श्रेष्ठ साहित्यकार, राजनेता, कलाकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि से किसी विषय से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर का प्रस्तुतीकरण इन्टरव्यू कहलाता है। पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो व दूरदर्शन में इस विधा का पर्याप्त विकास देखने में आता है। डॉ. पद्मसिंह शर्मा कमलेश, देवेन्द्र सत्यार्थी, रणवीर रांग्रा आदि ने इस विधा के माध्यम से अनेक हस्तियों का परिचय दिया है।
केरीकेचरः- स्वभाव, शारीरिक अंग, चित्र, नाटक आदि से अत्युक्तिपूर्ण व्यंग्यात्मक या विकृत चित्रण जो हास्य उत्पन्न करे, उसे केरीकेचर कहते हैं। धर्मवीर भारती का 'ठेले पर हिमालय' ऐसी ही रचना है।
धन्यवाद 🙏🙂
No comments:
Post a Comment
thaks for visiting my website