कवयित्री
सुभद्रा कुमारी चौहान
जन्म : सन् 1904 निधन : 1948
रचनाएँ : -
मुकुल, बिखरे मोती, उन्मादिनी, त्रिधारा, सभा के खेल और सीधे-सादे चित्र
जीवन ईश्वर का वरदान है। इस जीवन को सफल, सार्थक एवं सरस बनाना मनुष्य के हाथों में हैं। इस दुनिया में अनेकानेक लोग जन्म लेते हैं और मर भी जाते हैं। लेकिन जिन्होंने अपना नाम अमर करके स्वर्ग सिधारा उन्होंने सदैव जन-मन में अमिट स्थान पाया । भारतियार बहुत कम उम्र में स्वर्ग सिधारे । स्वामी विवेकानन्द ने भी कम उम्र में ही महासमाधि ग्रहण कर ली। सुप्रसिद्ध नेता राजीव गाँधी को भी कम उम्र में इस जगत को छोडना पडा। इनकी सूची में, इन्हीं का अनुकरण करते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी अपनी 44 साल की अवस्था में ही मोटर दुर्घटना के कारण मोक्ष प्राप्त की थी। जीवन की लम्बी यात्रा रुक जाने के कारण इनकी काव्य-यात्रा भी काल का ग्रास बन गयी थी। इनके जीवनकाल में 'त्रिधारा' और 'मुकुल' सिर्फ दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुकी थी । बाकी उनके निधन के बाद जन-मन में स्थान लेने लगीं ।
श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म सन् 1904 ई. में इलाहाबाद के निहालपुर गाँव में हुआ था। इनका बचपन काफी सुखमय रहा । इनके पिताजी ठाकुर रामनाथ सिंह भजन गाने के अत्यन्त प्रेमी थे । बचपन में अपने पिता के साथ यह भी गाया करती थीं। गेयता इनको विरासत में मिली थी। इनके पिता शिक्षा-प्रेमी भी थे । इसलिए इनमें भी शिक्षा के प्रति असीम रुचि बनी रही ।
महादेवी वर्मा की तरह इनकी भी शिक्षा प्रयाग के क्रास्थवेट कॉलेज में हुई थी। बचपन से चंचल, नटखट, गीत-प्रिय सुभद्रा कुमारी चौहान कॉलेज के अनेक उत्सवों में स्वलिखित कविताएँ की प्रस्तुती करती थीं। शैशव इनका मधुरमय होने के कारण यह उसे कभी भूल नहीं पाती थी। अपनी पंक्तियों में वे कहती हैं -
"बार-बार आती है मधुर याद बचपन तेरी गया ले
गया तू जीवन की मस्त खुशियाँ मेरी ।"
वात्सल्य भरी कविताएँ लिखने में महाकवि सूरदास के बाद सुभद्रा कुमारी चौहान का स्थान स्तुत्य है। निम्नलिखित पंक्तियाँ उनकी मातृत्व का चिन्ह है ।
"कृष्ण चंद्र की क्रीडाओं का
अपने आँगन में देखो
कौशल्या के मातृमोद को
अपने ही मन में लेखा ।"
एक और ज्वलंत प्रतीक है -
"मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी ।
नन्दन वन सी फूल उठी यह छोटी से कुटिया मेरी ॥"
माँ के दिल तथा ममता के बारे में उनका विचार है -
"परिचय पूछ रहे हो मुझसे, कैसे परिचय दूँ इसका
वही जान सकता है इसको, माता का दिल है जिसका ।"
बच्चों के साथ बच्चा बनने में बडों को पूर्ण आनन्द मिलता है । पण्डित जवहरलाल नेहरू बच्चों को बहुत चाहते थे । आज के हमारे वैज्ञानिक राष्ट्रपति बच्चों के साथ समय बिताने में अत्यन्त आनन्द का अनुभव करते हैं। बच्चों के साथ बच्चा बन जाने से ही वात्सल्य रस का परिपूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकते हैं । वात्सल्य रस का सुन्दर, सहज, सजीव, यथार्थ एवं सशक्त वर्णन सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं में मिलता है
"मैं भी उसकी साथ खेलती, खाती हूँ, तुतलाती हूँ ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ ।"
वात्सल्य रस का एक और उदाहरण देखिए । माँ बच्चे के पास आकर उसे उठने को कहती है, और बच्चा धीर गंभीर मुख-मुद्रा से माँ से कहता है -
तुम लिखती हो, हम आते हैंतब तुम होती हो नाराज
मैं भी तो लिखने बैठा हूँ
कैसे बोल रही हो आज
क्या तुम भूल गयीं माँ
पढ़ते समय दूर रहना चहिए
लिखते समय किसी से कोई
वैवाहिक जीवन इनका काफी सुखमय रहा । इनका विवाह ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ हुआ । ठाकुर लक्ष्मण सिंह के पिता इनके वचपन में ही तीन छोटे बच्चों और निराधार पत्नी को छोड स्वर्ग सिधार चुके थे । उनकी माँ ने ही कठिन परिश्रम के साथ बच्चों का पालन- पोषण किया । शिक्षा के प्रति ठाकुर लक्ष्मण सिंह की रुचि एवं क्षमता को देखकर प. माखनलाल चतुर्वेदी जो उनके गुरु तथा अभिभावक तुल्य थे उन्होंने इनकी मदद की थी ।
ठाकुर लक्ष्मण सिंह, सुभद्रा कुमारी चौहान के छोटे भाई के मित्रों में से एक थे । ठाकुर लक्षमण सिंह चौहान सुशिक्षित व्यक्ति ही नहीं बल्कि साहित्य के प्रति पूर्ण रुचि रखनेवाले सज्जन थे । इसी कारण शादी के बाद भी सुभद्रा कुमारी चौहान को पढ़ने का मौका मिला था । ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान वकालत की परीक्षा पास किये हुए थे । पं. माखनलाल चतुर्वेदी के साथ कर्मवीर के संपादन करते भी थे । अपनी सुप्रसिद्ध कविता “ठुकरा दो या प्यार करो" में कवयित्री लिखती हैं.
"मैं उन्मत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आई हूँ
जो कुछ है, बस यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूँ
चरणों पर अर्पित है इसको चाहे तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो ।"
ठाकुर लक्ष्मण सिंह परम उदार विचारोंवाले एक सहृदय सज्जन थे । इसलिए सुभद्रा कुमारी चौहान का वैवाहिक जीवन काफी सुखमय था । वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी के बीचे में सही समझ एवं कुछ भी नहीं छिपाने के उत्तम गुण के होने की जरूरत पर प्रकाश डालते हुए लिखती हैं -
"बहुत दिनों की हुई परीक्षा, अब रूखा व्यवहार न हो ।
अजी बोल तो लिया करो तुम चाहे मुझपर प्यार न हो ।"
अपने पति के वियोग में, उन्हें चंद दिनों के लिए, देश के लिए अपने से बिछुडते वक्त, पति के जेल मार्ग लेने पर वे लिखती हैं -
"मैं सदा रूठती आयी, प्रिय ! तुम्हें न मैंने पहचाना ।
वह मान बाण-सा चुभता है अब देख तुम्हारा यह जाना ।"
देश भक्ति सुभद्रा कुमारी चौहान तथा ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान दोनों में कूट-कूटकर भरी पडी थी । दोनों ने असहयोग आंदोलन में पूर्ण रूप से भाग लिया । 'बारिस्ट्री' में उत्तीर्ण होने पर भी ठाकुर लक्ष्मण सिंह 'बारिस्ट्री' नहीं किये । प्रयाग के कॉलेज में श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान पढ रही थी । असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी । ठाकुर लक्ष्मण सिंह अनेक बार जेल गये थे ।
राजनीति में सक्रिय भाग लेने के कारण सुभद्रा कुमारी को भी अनेक बार जेल जाना पडा । श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की "झाँसी रानी" कविता जन-मन सब में नयी क्रांति पैदा करने में सफल सिद्ध हुई थी । इस कविता के हर शब्दों में मुर्दों में जान फूंकने की शक्ति थी ।
"चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बूढे भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबके मन में ठानी थी
बुन्देले हर बोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मरदानी थी । वह झाँसी की रानी थी ।"
देश भक्ति, नारी मुक्ति तथा नारी-शक्ति पर जोर डालनेवाली पंक्तियों से अपने आपको सुभद्रा कुमारी चौहान उन्नत शिखरों पर पहुँचा चुकी थीं ।
“तुम्हारे देश बंधु यदि कभी डरें, कायर हो पीछे हटें बन्धु !
दो बहनों को वरदान, युद्ध में वे निर्भय मर मिटें ।"
सामान्य जनता में, खासकर महिलाओं में देशभक्ति जगाने में सुभद्रा कुमारी चौहान का काम सचमुच सराहनीय है । निहालपुर के मुहल्ले में दोपहर के समय पर सुभद्रा स्त्रियों की सभा करती थीं । इस सभा में उस मुहल्ले की ज्यादातर स्त्रियाँ भाग लेती थीं । उन सभाओं में सुभद्रा कुमारी चौहान सबके मन में देश भक्ति तथा नारी शक्ति जगाती थीं ।
विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, स्त्री शिक्षा की आवश्यकता, पर्दा से बाहर आने की प्रेरणा आदि बातों पर जोर देने के साथ उस मुहल्ले की औरतों में आत्मविश्वास भी भराने का संराहनीय काम करती थीं ।
नारी की शक्ति पर प्रकाश डालने के साथ देश-प्रेम से भरी पंक्तियाँ उनकी मनोभावना को साफ-साफ प्रकट करती हैं ।
"सबल पुरुष यदि भीरु बने तो इनको दे वरदान सखी ।
अबलाएँ उठ पडे देश में करें युद्ध घमसान सखी ।
पन्द्रह-कोटि असहयोगिनियाँ दहला दें ब्रह्माण्ड सखी ।
भारत-लक्ष्मी लौटाने को दें लंका-काण्ड सखी ।"
सुभद्रा कुमारी की जलियाँवाला बाग में वसन्त, राखी, विजय- दशमी, लक्ष्मीबाई की समाधि पर, वीरों का कैसा हो वसन्त आदि कविताएँ देश-भक्ति से ओत-प्रोत हैं । देश के प्रति इनकी भक्ति की साक्षी हैं। “वीरों का कैसा हो वसन्त" में सुभद्रा कुमारी यह विचार व्यक्त करती है कि सरसों के पीले फूलों ने वसुधा रूपी वधु के अंग-अंग को पुलकित कर दिया है, किन्तु उसके क्रन्त वीर वेश में हैं - वीरों का वसन्त कैसा होता है ?
शिवाजी के दरबार के जोशीले कवि भूषण नहीं हैं और उनके युद्ध का वर्णन करनेवाले, उनके उत्साह को बढानेवाले कवि चन्द ही हैं और इस समय अनेक साहित्यकारों की कलम बंधी गयी है, उनकी कलमों में विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, इस स्थिति में हमें कौन बताये कि वीरों का वसन्त कैसा हो ? राजनैतिक पराधीनता के विरुद्ध इन्होंने अनेक जोशीली कविताएँ लिखी हैं । अपने इस महान कार्य के कारण ही ये बाद में विधान सभा की सदस्या निर्वाचित हुईं ।
सुभद्रा कुमारी की "आहत की अभिलाषा" कविता परमात्मा या भगवान के प्रति उनकी भक्ति पर प्रकाश डालती है । इस कविता में कवयित्री परमात्मा पर अपने प्रेम को व्यक्त करती है । वे बताती हैं -
"मैंने अपने सारे जीवन को अर्पण करके सभी सुखों को तुच्छ समझा । मैंने सब कुछ त्याग कर मेरे सर्वस्व को तुममें देखा ।"
भगवान पर अपने आपको समर्पित करने की भावना इस कविता में मुखरित है ।
श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान एक सफल कहानीकार भी हैं - - 'बिखरे मोती', जन्मादिनी और सीधे-सादे चित्र में उनकी कहानियाँ संग्रहित हैं। बच्चों के लिए, गेयता सहित उनसे लिखी गयी कविताएँ "सभा का खेल” पुस्तक में संग्रहित है । 'त्रिधारा' में पं. माखनलाल चतुर्वेदी और प. केशवप्रसाद पाठक की कविताओं के साथ इनकी कविताएँ भी स्थान पाती हैं । “मुकुल" कविता संग्रह के लिए इन्हें 'सेक्सरिया' पुरस्कार मिला है । 'मुकुल' में देश भक्ति तथा परिवारिक प्रेम स्थान पाते हैं ।
छायावाद-युग की कवयित्रियों में सुभद्रा कुमारी चौहान का प्रमुख स्थान है । इनकी कविताओं वीरता, धीरता और ओज के साथ-साथ कोमलता, भावुकता तथा मधुरता को भी यथार्थ स्थान मिला है । इनकी रचनाओं में मीठी कल्पनाएँ तथा कला की झलक मिलती हैं । भाव व कला पक्ष दोनों तरफ से इनकी रचनाओं का अपना अलग पहचान है । अपनी अनुभूतियों को उचित शब्दों से, उन्नत रूप से प्रकट करने में सुभद्रा कुमारी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है । इनकी रचनाओं से यह बात स्पष्ट मालूम होती है कि सुभद्रा कुमारी चौहान सचमुच जन्मजात कवयित्री हैं ।
सुभद्रा कुमारी चौहान के आत्मविश्वास का सही उदाहरण है उनसे लिखी गयी यह पंक्तियाँ :-
मैं जिधर निकल जाती हूँ मधुमास उतर आता है ।
नीरस जग के जीवन में रस घोल-घोल जाता है ।
यथार्थता की अधिकता होने के कारण इन्हें यथार्थवादी कवयित्री कहना सर्वोचित होगा । इनकी सभी कविताओं में भावों की प्रधानता होती है। श्रृंगार, वीर रस के साथ 'वात्सल्य' को भी इनकी रचनाओं में उचित स्थान मिला है । सब प्रकार का वर्णन स्पष्ट एवं सहज हैं । सुभद्रा कुमारी चौहान खडीबोली भाषा में लिखा करती थी । संस्कृत के तत्सम शब्द और फारसी के एकाध शब्दों का उपयोग करने पर भी प्रवाह में कोई रुकावट या बाधा नहीं है । वीरता के बारे में लिखते वक्त ओज के साथ उत्साह तथा वात्सल्य या श्रृंगार के बारे में लिखते वक्त मधुरता एवं आकर्षण इनकी रचनाओं की विशेषता है ।
भाषा सरल, सहज, सुबोध होने के साथ-साथ व्यवहारिक है । मुहावरों का उचित प्रयोग रचनाओं को और भी आकर्षक बना दिया है । अभिव्यंजना शिल्प में इनकी रचनाएँ द्विवेदी युगीन कवियों के मेल में है । अधिकांश कविताओं में "राष्ट्र-प्रेम" की भावना इनको देश-भक्त साबित करती हैं । इनकी "झाँसी रानी" शीर्षक की कविता घर-घर में, जन-जन में बडी उत्सुकता तथा तन्मयता के साथ गायी गयी है । सुभद्रा कुमारी को व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचाने में इस कविता का योगदान प्रशंसनीय है ।
सुभद्रा कुमारी की मानवता एवं महानता के बारे में मुक्तिबोध लिखते हैं - "व्यक्तिगत भावों को निर्वैयक्तिकता कई प्रकार से प्रदान की जाती है । भावों को बहुत गहरे रंगों में उभार कर रखने से भी, उनकी व्यक्ति-मूलक सीमायें टूट जाती हैं और वह अन्य व्यक्ति के द्वारा सहज सम्वेद्य हो जाता है । सुभद्रा जी ने ऐसा नहीं किया है । उनके काव्य की सर्वगम्यता और सहज सम्वेद्यता सीधी अभिव्यक्ति के कारण ही नहीं है, वरन् जीवन प्रसंगों की भूमिका में किसी एक भाव क्षण को उपस्थित करने के कारण उनमें वह गुण उत्पन्न हुआ, जिसे हम मानवीयता कहते हैं।"
जन्मजात कवयित्री, भावुक, राष्ट्र-प्रेम से ओत-प्रोत, असहयोग आंदोलन में सम्पूर्ण रूप से सहयोग देनेवाली, नारी मुक्ति तथा नारी शक्ति पर प्रकाश डालनेवाली, सामाजिक चिंतक, आदर्श पत्नी, अतुलनीय माँ, सराहनीय साहित्यकार श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का निधन सन् 1948 ई. में मोटर दुर्घटना में हो गया था ।
44 के साल में जनता से इन्हें छीनकर काल ने अपना घोर रूप दिखा दिया था । अगर सुभद्रा कुमारी का अनेक साल हमारे साथ रहने का सौभाग्य भारतीय जनता को प्राप्त होता तो हिन्दी साहित्य सागर उनकी सृजन-वर्षा से भर जाता । साहित्य के क्षेत्र में इनकी रचनाओं की संख्या कम होने पर भी, उनकी श्रेष्ठता एवं काव्यात्मक विशेषताओं के कारण इनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य बन गया है । सुभद्रा कुमारी चौहान सब हिन्दी प्रेमियों के मन में सम्माननीय स्थान पाकर आज तक अमर रही हैं ।
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