हिन्दी वयाकरण
दूसरा अध्याय
वर्णों का उच्चारण
वर्णों के उच्चारण-स्थान और प्रयत्न
वर्गों या ध्वनियों का उच्चारण मुख के भिन्न-भिन्न भागों से होता है।
भिन्न-भिन्न भाग उच्चारण-स्थान कहाते है। उच्चारण स्थान छह है
2. तालु, 3. मुरा (तालु के ऊपर का स्थान), 4. दन्त ( दाँत), 5. ओष्ठ, (ऑठ) 6. नासिका (नाक)।
मुख के जिस भाग से जो वर्ण बोला जाता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।
स्थान-भेद वर्णों के निम्नलिखित भेद हैं
कंठ्य-जिनका उच्चारण कंठ से होता है-अ, आ, कवर्ग (क, ख, ग, घ, ड) ह और विसर्ग कंठ्य वर्ण हैं।
तालव्य-जिनका उच्चारण तालु से होता है-इ, ई, चवर्ग (च, छ, ज, झ ,অ) अ और श तालव्य वर्ण है।
मूर्धन्य-जिनका उच्चारण मूर्धा से होता है-ऋ. टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ग), र और स मूर्धन्य वर्ण हैं।
दन्त्य-जिनका उच्चारण दांतों की सहायता से होता है-तवर्ग (त. थ, द, ध, न), ल और स दन्त्य वर्ण हैं।
ओष्ठ-जिनका उच्चारण ओठों से होता है-उ, ऊ और पवर्ग ( प, फ, ब,भ, म), ओष्ठय वर्ण हैं।
अनुनासिक-जिनका उच्चारण मुख और नासिका दोनों से होता है । ड. ण म और अनुस्वार ये अनुनासिक वर्ण हैं। इनके उच्चारण में इनके अपने स्या
के अतिरिक्त नासिका का भी प्रयोग होता है।
कंठतालव्य-जिनका उच्चारण कण्ठ और ओष्ठ दोनों से होता है-ए. और ऐ।
कंठोष्ठ्य-जिनका उच्चारण कण्ठ और ओष्ठ दोनों से होता है-ओ तथा औ।
दन्तोष्ठ्य-जिसका उच्चारण दन्त और ओष्ठ से होता है-व।
प्रयत्न
वों के स्पष्ट उच्चारण में वाणी द्वारा कुछ प्रयत्न होता है। किसी वर्ण के उच्चारण में जो प्रयत्न उच्चारण के आरम्भ में होता है उसे आभ्यन्तर प्रयत्न और जो उच्चारण के अन्त में होता है उसे बाह्य प्रयत्न कहते हैं। आभ्यन्तर प्रयत्नों के भेद निम्नलिखित हैं
1. विवृत-जिनके उच्चारण में वागिन्द्रिय खुली रहती है, अ आदि सभी
विवृत हैं।
2. स्पृष्ट-जिनके उच्चारण में वागिन्द्रिय का द्वार बन्द रहता है, क से लेकर
म तक के व्यंजन स्पृष्ट वर्ण हैं।
3. ईषत् विवृत-जिनके उच्चारण में वागिन्द्रिय थोड़ी खुली रहती है। य,
र, ल, व ईषत् विवृत है।
_4. ईषत्स्पृष्ट-जिनके उच्चारण में वागिन्द्रिय कुछ-कुछ बन्द रहती है।
श, ष, स ईषत्स्पृष्ट हैं।
बाह्य प्रयत्न के अनुसार वर्णों के दो भेद हैं, घोष (Soft Letters) और अघोष
(Hard Consonants) घोष वर्ण के उच्चारण में केवल नाद का उपयोग होता है,
प्रत्येक वर्ग का तीसरा, चौथा और पाँचवाँ अक्षर, सारे स्वर, य, र, ल, ब, ह ये
घोष हैं। अघोष के उच्चारण में केवल श्वास का उपयोग होता है, प्रत्येक वर्ग का
पहला और दूसरा अक्षर श, ष और स ये अघोष हैं। वर्णों के दो भेद और भी हैं।
अल्पप्राण, महाप्राण । महाप्राण के वर्ण हैं जिनके उच्चारण में अधिक श्रम लगे या
जिनमें कुछ-कुछ 'ह' का उच्चारण सम्मिलित हो । स्पर्श व्यंजनों में से प्रत्येक वर्ग
का दूसरा और चौथा अक्षर तथा श, ष, स, ह और विसर्ग महाप्राण हैं। शेष व्यंजन
अल्पप्राण हैं। स्वर भी सब अल्पप्राण हैं।
एक ही स्थान तथा प्रयत्न से उच्चारित होने वाले वर्ण सवर्ण कहलाते
हैं-जैसे इ. ई सवर्ण हैं, इ और उ असवर्ण हैं।
हिन्दी में उच्चारण की कुछ विशेषताएँ
(क) अकारान्त शब्द के अन्त्य 'अ' का उच्चारण प्रायः नहीं होता। जैसे
'राम' का उच्चारण 'राम' के समान होता है। पर यदि अंत्य अ के पहले संयुक्त
व्यंजन आये अथवा य हो और यू से पूर्व इ ई या ऊ हो अथवा 'अ' के पूर्व एक
ही अक्षर हो या वह अकारान्त शब्द कविता में आया हो तो अन्त्य अ का पूरा
उच्चारण होता है। जैसे सत्य, धर्म, द्रव्य, आत्मीय, राजसूय।
(ख) तीन या चार वर्णों के कई शब्दों में बीच के 'अ' का भी उच्चारण नहीं
होता। जैसे भागना' का उच्चारण 'जाना' होता है तथा 'रामदेव' का 'रामदेव'।
(ग) ऋ का उच्चारण 'रि' के समान होता है। जैसे-ऋषि - रिपि। यही
कारण है कि ऋ अक्षर हिन्दी के निजी शब्दों में प्रयुक्त नहीं होता, केवल संस्कृत
से आये हुए शब्दों में प्रयुक्त होता है।
(घ) हिन्दी शब्दों में 'ऐ' और 'औ' का उच्चारण संस् त शब्दों में प्रयुक्त 'ए'
और 'औ' के उच्चारण से भिन्न होता है। जैसे
(संस्कृत) तैल, शैल, औषध, कौतुक आदि।
हिन्दी बैल, ऐसा, और, कौन आदि। पर कौआ में औ का उच्चारण संस्कृत के
समान होता है।
हिन्दी में ऐ और औ का अय और अव के समान उच्चारण होता है। और जय
का उच्चारण हिन्दी में एक-समान होता है।
(ङ) ष और श का उच्चारण एक-समान होता है। प को बहुधा ख भी पढ़ते ।
हैं।
(च) अनुस्वार () केवल नाक से और अनुनासिक मुख तथा नाक से बोला
जाता है। जैसे-शांति, भाँत, चंचल। श, ष, स के पूर्व अनुस्वार का उच्चारण :
जैसा होता है, जैसे प्रशंसा। संस्कृत में अन्य अनुस्वार का उच्चारण म् के स
होता है। जैसे स्वयं, एवं। विसर्ग (:) का उच्चारण 'ह' कि धीमे उच्चारण
समान होता है।
(छ) ज्ञ का उच्चारण ग्या के समान होता है।
स्वराघात
शब्दों का उच्चारण करते समय किसी अक्षर पर जो विशेष जोर पड़ता है उसे
स्वराघात कहते हैं। उसके कुछ नियम यहाँ दिये जाते हैं
(1) संयुक्त व्यंजन के पूर्व जो अक्षर रहता है उसके बोलने में आवाज जरा तन जाती है। इसलिए संयुक्त अक्षर से पूर्व स्वर पर स्वराघात होगा,
जैसे-'अक्षर', 'चिन्ता, 'मुक्का ' में क्रम से अ, चि और मु पर स्वराधात होगा।
(2) जहाँ शब्द के अन्त में या मध्य में अपूर्णोच्चरित अ आवे वहाँ पूर्ववर्ती अक्षर पर स्वराघात होगा,
जैसे-'घर' में 'घ' पर 'चलना' में 'च' पर 'अचकन' में 'अ' और 'क' पर।
(3) जिस अक्षर के आगे विसर्ग हो उस पर, स्वराघात होता है, जैसे 'अंत: करण' में 'त' पर।
(4) इ, उ या ऋ के पूर्ववर्ती स्वर पर भी बोलते समय कुछ जोर पड़ता है, जैसे-कवि, मधु, अमृत।
(5) कई शब्दों के एक ही रूप में जब कई अर्थ निकलते हों तो उनका भेद
एक या दूसरे अक्षर पर स्वराघात करने से स्पष्ट हो जाता है। जैसे-'घड़ा' शब्द के
यदि 'घ' पर स्वराघात हो तो उसका अभिप्राय मिट्टी के बरतन से होगा, यदि 'ड'
पर स्वराघात होगा तो वह घड़ी क्रिया के भूतकाल का रूप होगा।
तीस्रा अध्याय
दूसरा अध्याय
वर्णों का उच्चारण
वर्णों के उच्चारण-स्थान और प्रयत्न
वर्गों या ध्वनियों का उच्चारण मुख के भिन्न-भिन्न भागों से होता है।
भिन्न-भिन्न भाग उच्चारण-स्थान कहाते है। उच्चारण स्थान छह है
2. तालु, 3. मुरा (तालु के ऊपर का स्थान), 4. दन्त ( दाँत), 5. ओष्ठ, (ऑठ) 6. नासिका (नाक)।
मुख के जिस भाग से जो वर्ण बोला जाता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।
स्थान-भेद वर्णों के निम्नलिखित भेद हैं
कंठ्य-जिनका उच्चारण कंठ से होता है-अ, आ, कवर्ग (क, ख, ग, घ, ड) ह और विसर्ग कंठ्य वर्ण हैं।
तालव्य-जिनका उच्चारण तालु से होता है-इ, ई, चवर्ग (च, छ, ज, झ ,অ) अ और श तालव्य वर्ण है।
मूर्धन्य-जिनका उच्चारण मूर्धा से होता है-ऋ. टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ग), र और स मूर्धन्य वर्ण हैं।
दन्त्य-जिनका उच्चारण दांतों की सहायता से होता है-तवर्ग (त. थ, द, ध, न), ल और स दन्त्य वर्ण हैं।
ओष्ठ-जिनका उच्चारण ओठों से होता है-उ, ऊ और पवर्ग ( प, फ, ब,भ, म), ओष्ठय वर्ण हैं।
अनुनासिक-जिनका उच्चारण मुख और नासिका दोनों से होता है । ड. ण म और अनुस्वार ये अनुनासिक वर्ण हैं। इनके उच्चारण में इनके अपने स्या
के अतिरिक्त नासिका का भी प्रयोग होता है।
कंठतालव्य-जिनका उच्चारण कण्ठ और ओष्ठ दोनों से होता है-ए. और ऐ।
कंठोष्ठ्य-जिनका उच्चारण कण्ठ और ओष्ठ दोनों से होता है-ओ तथा औ।
दन्तोष्ठ्य-जिसका उच्चारण दन्त और ओष्ठ से होता है-व।
प्रयत्न
वों के स्पष्ट उच्चारण में वाणी द्वारा कुछ प्रयत्न होता है। किसी वर्ण के उच्चारण में जो प्रयत्न उच्चारण के आरम्भ में होता है उसे आभ्यन्तर प्रयत्न और जो उच्चारण के अन्त में होता है उसे बाह्य प्रयत्न कहते हैं। आभ्यन्तर प्रयत्नों के भेद निम्नलिखित हैं
1. विवृत-जिनके उच्चारण में वागिन्द्रिय खुली रहती है, अ आदि सभी
विवृत हैं।
2. स्पृष्ट-जिनके उच्चारण में वागिन्द्रिय का द्वार बन्द रहता है, क से लेकर
म तक के व्यंजन स्पृष्ट वर्ण हैं।
3. ईषत् विवृत-जिनके उच्चारण में वागिन्द्रिय थोड़ी खुली रहती है। य,
र, ल, व ईषत् विवृत है।
_4. ईषत्स्पृष्ट-जिनके उच्चारण में वागिन्द्रिय कुछ-कुछ बन्द रहती है।
श, ष, स ईषत्स्पृष्ट हैं।
बाह्य प्रयत्न के अनुसार वर्णों के दो भेद हैं, घोष (Soft Letters) और अघोष
(Hard Consonants) घोष वर्ण के उच्चारण में केवल नाद का उपयोग होता है,
प्रत्येक वर्ग का तीसरा, चौथा और पाँचवाँ अक्षर, सारे स्वर, य, र, ल, ब, ह ये
घोष हैं। अघोष के उच्चारण में केवल श्वास का उपयोग होता है, प्रत्येक वर्ग का
पहला और दूसरा अक्षर श, ष और स ये अघोष हैं। वर्णों के दो भेद और भी हैं।
अल्पप्राण, महाप्राण । महाप्राण के वर्ण हैं जिनके उच्चारण में अधिक श्रम लगे या
जिनमें कुछ-कुछ 'ह' का उच्चारण सम्मिलित हो । स्पर्श व्यंजनों में से प्रत्येक वर्ग
का दूसरा और चौथा अक्षर तथा श, ष, स, ह और विसर्ग महाप्राण हैं। शेष व्यंजन
अल्पप्राण हैं। स्वर भी सब अल्पप्राण हैं।
एक ही स्थान तथा प्रयत्न से उच्चारित होने वाले वर्ण सवर्ण कहलाते
हैं-जैसे इ. ई सवर्ण हैं, इ और उ असवर्ण हैं।
हिन्दी में उच्चारण की कुछ विशेषताएँ
(क) अकारान्त शब्द के अन्त्य 'अ' का उच्चारण प्रायः नहीं होता। जैसे
'राम' का उच्चारण 'राम' के समान होता है। पर यदि अंत्य अ के पहले संयुक्त
व्यंजन आये अथवा य हो और यू से पूर्व इ ई या ऊ हो अथवा 'अ' के पूर्व एक
ही अक्षर हो या वह अकारान्त शब्द कविता में आया हो तो अन्त्य अ का पूरा
उच्चारण होता है। जैसे सत्य, धर्म, द्रव्य, आत्मीय, राजसूय।
(ख) तीन या चार वर्णों के कई शब्दों में बीच के 'अ' का भी उच्चारण नहीं
होता। जैसे भागना' का उच्चारण 'जाना' होता है तथा 'रामदेव' का 'रामदेव'।
(ग) ऋ का उच्चारण 'रि' के समान होता है। जैसे-ऋषि - रिपि। यही
कारण है कि ऋ अक्षर हिन्दी के निजी शब्दों में प्रयुक्त नहीं होता, केवल संस्कृत
से आये हुए शब्दों में प्रयुक्त होता है।
(घ) हिन्दी शब्दों में 'ऐ' और 'औ' का उच्चारण संस् त शब्दों में प्रयुक्त 'ए'
और 'औ' के उच्चारण से भिन्न होता है। जैसे
(संस्कृत) तैल, शैल, औषध, कौतुक आदि।
हिन्दी बैल, ऐसा, और, कौन आदि। पर कौआ में औ का उच्चारण संस्कृत के
समान होता है।
हिन्दी में ऐ और औ का अय और अव के समान उच्चारण होता है। और जय
का उच्चारण हिन्दी में एक-समान होता है।
(ङ) ष और श का उच्चारण एक-समान होता है। प को बहुधा ख भी पढ़ते ।
हैं।
(च) अनुस्वार () केवल नाक से और अनुनासिक मुख तथा नाक से बोला
जाता है। जैसे-शांति, भाँत, चंचल। श, ष, स के पूर्व अनुस्वार का उच्चारण :
जैसा होता है, जैसे प्रशंसा। संस्कृत में अन्य अनुस्वार का उच्चारण म् के स
होता है। जैसे स्वयं, एवं। विसर्ग (:) का उच्चारण 'ह' कि धीमे उच्चारण
समान होता है।
(छ) ज्ञ का उच्चारण ग्या के समान होता है।
स्वराघात
शब्दों का उच्चारण करते समय किसी अक्षर पर जो विशेष जोर पड़ता है उसे
स्वराघात कहते हैं। उसके कुछ नियम यहाँ दिये जाते हैं
(1) संयुक्त व्यंजन के पूर्व जो अक्षर रहता है उसके बोलने में आवाज जरा तन जाती है। इसलिए संयुक्त अक्षर से पूर्व स्वर पर स्वराघात होगा,
जैसे-'अक्षर', 'चिन्ता, 'मुक्का ' में क्रम से अ, चि और मु पर स्वराधात होगा।
(2) जहाँ शब्द के अन्त में या मध्य में अपूर्णोच्चरित अ आवे वहाँ पूर्ववर्ती अक्षर पर स्वराघात होगा,
जैसे-'घर' में 'घ' पर 'चलना' में 'च' पर 'अचकन' में 'अ' और 'क' पर।
(3) जिस अक्षर के आगे विसर्ग हो उस पर, स्वराघात होता है, जैसे 'अंत: करण' में 'त' पर।
(4) इ, उ या ऋ के पूर्ववर्ती स्वर पर भी बोलते समय कुछ जोर पड़ता है, जैसे-कवि, मधु, अमृत।
(5) कई शब्दों के एक ही रूप में जब कई अर्थ निकलते हों तो उनका भेद
एक या दूसरे अक्षर पर स्वराघात करने से स्पष्ट हो जाता है। जैसे-'घड़ा' शब्द के
यदि 'घ' पर स्वराघात हो तो उसका अभिप्राय मिट्टी के बरतन से होगा, यदि 'ड'
पर स्वराघात होगा तो वह घड़ी क्रिया के भूतकाल का रूप होगा।
तीस्रा अध्याय
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