Friday, December 27, 2019

हिन्दी व्याकरण तीसरा अध्याय लिपि

व्याकरण

तीसरा अध्याय

लिपि

वर्ग-विन्यास अथवा वर्णों के लिखने की प्रणाली को लिपि कहते हैं। भाषाओं की तरह लिपियाँ भी अनेक हैं यद्यपि हिन्दी भाषा कहीं-कहीं रोमन, कैथी, मुंडिया आदि लिपियों में लिखी जाती है, किन्तु देवनागरी लिपि का स्थान सर्वोपरि है। लिखने के अतिरिक्त छपाई में तो प्रायः एकमात्र इसी लिपि का व्यवहार होता है।

इस लिपि का नाम देवनागरी लिपि क्यों पड़ा, इस विषय में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वान इसका सम्बन्ध 'नागर' ब्राह्मणों से लगाते हैं। अर्थात् नागर ब्राह्मणों में प्रचलित लिपि नागरी कहलाई। कुछ 'नागर' शब्द से सम्बन्ध जोड़कर इसका.अर्थ 'नागरी' अर्थात् नगरों में प्रचलित लिपि लगाते हैं। एक मत यह भी ईै तांत्रिक मंत्रों में कुछ चिह बनते थे जो देवनागर कहलाते थे इन चिह्नों से मिलते जलते अक्षरों के कारण वह नाम इस लिपि के साथ सम्बद्ध हो गया। पर इस लिपि का नागरी नाम पड़ने का वास्तविक कारण आज तक अनिश्चित है।

देवनागरी लिपि में वर्णों का उच्चारण और नाम तुल्य होने के कारण जब उनका नाम लेने का काम पड़ता है तब अक्षरों के साथ कार जोड़कर उनका नाम
सूचित करते हैं। जैसे-अकार और मकार से क्रमशः: 'अ' और 'म' का बोध होता है।
'र ' को 'रेफ' भी कहते हैं।

मोटे तौर पर हम पहले अध्याय में बता चुके हैं कि हिन्दी वर्णमाला के वर्ण किस प्रकार लिखे जाते हैं।

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जब स्वर व्यंजनों के पीछे आकर उनके साथ मिलते हैं तो इनके और रूप हो जाते हैं। इन नये रूपों को व्याकरण में मात्रा कहते हैं। मात्राएँ ये हैं --

स्वरों के स्वतन्त्र रूप-आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
स्वरों की मात्राएँ
आ ा - काम
इ ि - किसलय
ई ी - खीर
उ ु - गुलाब
ऊ ू - भूल
ऋ ृ - तृण
ए े - केश
ऐ ै - है
ओ ो - चोर
औ ौ - चौखट
क् के साथ इन मात्राओं को जोड़ने से ये रूप हो जाएंगे।
का कि की कु कू के कै को की

इन मात्राओं में से व्यंजन के पीछे लगती हैं, पहले ऊपर और तथा ( ृ ) - नीचे लगाई जाती हैं।
 र के साथ     ( ु   ू )   मात्राएँ उसके मध्य में लगती हैं।
जैसे-रु, रू।

जब स्वरों के साथ अनुस्वार अथवा विसर्ग का मेल करना हो तो (चाहे ये स्वर स्वतन्त्र रूप में हो चाहे व्यंजनों के साथ मात्रा रूप में) क्रम से उनके ऊपर
बिदी (ंं) अथवा पीछे दो खड़ी बिन्दियाँ (:) लगा दी जाती हैं। साधारण व्यवहार में कृ को छोड़कर तथा कं क: जोड़कर बारह खड़ी बनाई जाती है।
 पर (ंं) और (:) मात्राएँ नहीं हैं।
 ये व्यंजन के साथ नहीं छोड़ते; प्रयुक्त स्वर के साथ
जुड़ते हैं।
 यथा :-
कं = क. अ+ क:- +अ: ।
मात्राएँ स्वरों की होती हैं, व्यंजनों की नहीं।
यदि स्वर व्यंजनों से पूर्व आवें तो उनका रूप नहीं बदलता,
जैसे-इति (इ + त् + इ) यहाँ जो इ व्यंजन से पूर्व है उसका रूप तो वैसा हो रहा है, जो पीछे है
उसका रूप बदल गया है।

हिन्दी लिपि में सुधार का आन्दोलन चलाने वाले स्वरों के ये रूप मानते हैं-
स, अ, अ, अ, अ, अ, औ, औ।
उनका कहना है कि जब क में मात्रा जोडने से का को और कौ आदि बन सकते हैं तो उसी प्रकार अ में मात्रा जोड़कर अि, औी, अू, अ, अ, औ आदि क्यों न
बनाये जायें। ऐसा करने से हिन्दी के लिखने में सरलता आ जायेगी, ऐसा उनका विचार है।

दो या अधिक व्यंजनों के बीच में स्वर न रहने से उनमें संयोग हो जाता है। जुड़े हुए अक्षर संयुक्त कहाते हैं। पर ऐसे अक्षर स्वर का मेल होने पर ही बोले जाते हैं, जैसे-दिव्य-(दि-व-य-अ) इसमें व और च के बीच में स्वर नहीं है,

अत: व्य संयुक्त हो गया। जब एक ही व्यंजन दो बार आकर संयुक्त हो तो उसे द्वित्व कहते हैं, जैसे-पट्टी में 'ट्ट' द्वित्व है। वर्गों के दूसरे चौथे अक्षर तथा इ्और ज कभी द्वित्व नहीं होते।



व्यंजनों में सहयोग करने की विधि

(1) संयोग में जिस क्रम से व्यंजनों का उच्चारण होता है उसी क्रम से वे लिखे जाते हैं, जैसे-शुक्ल-शु क् ल् अ, शुल्क- शु ल् कृ अः, गुप्त-गु प त् अ,
उत्पत्ति-उ प् अ त् त् ।।

(2) जिन अक्षरों में खड़ी रेखा होती है वे यदि किसी व्यंजन से संयुक्त होते हैं तो उनकी खड़ी रेखा हटा दी जाती है, जैसे-ख्+त-खत (तख्त), प्+त-स
(समाप्त)।

(3) कै, ङ छ, टु, ट्, इ, द्, ह के पीछे आने वाले व्यंजन सिर की रेखा
हटाकर नीचे और कहीं-कहीं साथ लिखे जाते हैं। जैसे
क+व= क्व      (पक्व)
 ङ् + ग = ङ्ग   (गङ्गा)
छ्+ व = छव (उच्छवास)
ट्+ ट = ट् ट (पट्टी)
ड् + ड = ड् ड (टिड्डी)
ठ् + य = ठ् य (पाठ्य)
द् + भ = द् भ (सद्भाव)
ढ् + य = ढ् य (धनाढ्य)
द् + ध =द् ध  (वृद्धि)
ह+ म -ह् म  ( ब्रह्मा)

(4) किसी वर्ग के दूसरे या चौथे अक्षर (महाप्राण) का द्वित्व नहीं बन सकता। ऐसे संयोग में पूर्व वर्ण को क्रम से उसी वर्ग का पहला या तीसरा अक्षर (अल्पप्राण) हो जाता है, जैसे-मक्खी, बग्गी, स्वच्छ, झज्झर, लट्ठा, बुड्ढा । पत्थर, उद्धार, गप्फा, चिभड़।



(5) संयोग में पहले आने वाला र आगे आने वाले वर्ण के ऊपर ( र्ट ) इस
चिह्न में परिवर्तित हो जाता है और पीछे आने वाला र यदि खड़ी पाई वाले व्यंजन के बाद आवे तो उसका रूप खड़ी पाई के नीचे (प्र) इस तरह हो जाता है। अन्य व्यंजनों के बाद उसका (च्र) होकर नीचे लग जाता है, जैसे धर्म, वज्र, राष्ट्र।
जिस अक्षर के ऊपर र चढ़ता है वह विकल्प से द्वित्व हो जाता है,
जैसे-कार्य का कार्य, कर्तव्य या कर्तव्य।

(6) क्ष, त्र, ज्ञ जिन वर्णों के संयोग से बने हैं उनका कुछ भी रूप संयोग में दिखाई नहीं देता। इसलिए कोई-कोई इन्हें व्यंजनों के साथ वर्णमाला के अन्त में
 लिख देते हैं। क्ष्-क्ष, त्र-त्र, ज्+अ-ज्ञ। ये तीनों केवल संस्कृत शब्दों में ही प्रयुक्त होते हैं।

(7) हिन्दी में तीन से अधिक व्यंजनों का संयोग नहीं होता। तीन व्यंजनों के संयोग के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं
-वस्त्र, मत्स्य, महात्म्य, स्वास्थ्य।

कुछ वर्णों के प्रयोग

(1) ऋ ण, ष केवल संस्कृत से आये शब्दों में प्रयुक्त होते हैं,
जैसे-ऋषि,कृपा, पुरुष, मनुष्य, गुण, अग्रगण्य आदि।

(2) ङ और अ स्वतन्त्र रूप में हिन्दी के शब्दों में प्रयुक्त नहीं होते, न ये शब्दों के आदि में आते हैं।
 ण भी आदि में नहीं आता।

(3) विसर्ग प्रायः संस्कृत के शब्दों में ही प्रयुक्त होता है,
यथा- प्रायः, प्रात : काल, अन्त:करण।

धन्यवाद !



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