दूसरा खण्ड
शब्द-विचार
पहला अध्याय
शब्दों का वर्गीकरण
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एक या अनेक वर्णों से मिलकर बनी हुई सार्थक ध्वनियों को शब्द कहते हैं. जैसे-आ, घोड़ा। ध्वनियाँ निरर्थक भी होती हैं,जैसे-'-टैं - टैं', 'कडकड,साधारणतः इन्हें भी शब्द कहते हैं। पर भाषाशास्त्रानुसार ये ध्वनियाँ ही हैं, इन्हें शब्द नहीं कहा जा सकता। जब ये ध्वनियाँ भी वाक्य में किसी विशेष अर्थ को प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होती हैं तब शब्द कहलाती हैं जैसे-"बहुत हैं मत कर नहीं तो दो-चार हाथ जमा दूंगा।" "यह रात-दिन की कड़कड़ कौन सह सकता है?" इन वाक्यों में '-टैं - टैं और 'कंकड़ शब्द आशय-विशेष को प्रकट करते हैं, अत: सार्थक होने के कारण यहाँ ये शब्द कहलायेंगे ।
कुछ ध्वनियाँ ऐसी भी हैं जो स्वयं सार्थक नहीं होतीं, पर जब वे दूसरे शब्दों के साथ जोड़ी जाती हैं तब सार्थक हो जाती है ऐसी परतन्त्र ध्वनियों को शब्द नहीं वरन् शब्दांश (Affix) कहते हैं। जैसे-'कुछ','निर', 'वाला' आदि का कुछ अर्थ नहीं, पर 'पुत्र', 'निराधार' और 'दूधवाला' में ये ध्वनियाँ सार्थक हो गई हैं। जो शब्दांश शब्द के पहले लगते हैं, वे उपसर्ग (Prefix) कहाते हैं तथा जो पीछे लगते हैं, वे प्रत्यय (Suffix)। इन शब्दांशों-उपसर्ग तथा प्रत्ययों-का वर्णन विस्तार से आगे पृथक् अध्याय में किया जायेगा।
शब्दों से ही फिर वाक्य तथा वाक्यांश बनते हैं। जो शब्द-समूह सार्थक हो और पूरी बात को प्रकट करें वह वाक्य और जो शब्द समूह सार्थक हो पर पूरी बात न बताये वह वाक्यांश कहलायेगा। 'पुस्तक' शब्द है, पर अकेला 'पुस्तक शब्द कोई बात नहीं बताता-'पुस्तक का मूल्य में तीन शब्द जुड़े हैं, ऐसा करने से कुछ भाव तो पता लगता है तो भी पूरा-पूरा आशय समझ में नहीं आता, के मूल्य के सम्बन्ध में कुछ वक्तव्य और शेष हैं। पर जब इसके साथ 'पाँच रुपये है जोड़ दें अर्थात् क्रिया का कर्ता के साथ मेल कर दें तो बात पूरी हो जाती है। अतः 'पुस्तक का मूल्य पाँच रुपये है' वाक्य है. पर 'पुस्तक का मूल्य' अथवा 'पुस्तक का मूल्य पाँच रुपये' वाक्यांश है।
व्युत्पत्ति (शब्दों का बनावट) के विचार से शब्द तीन प्रकार के कहे जा सकते
है-1. रूढ़, 2. यौगिक, 3. योगरूढ़।
रूढ़ि वे शब्द हैं जिनके खण्ड का कुछ अर्थ नहीं होता। जैसे-बिल्ली, मेज। मेज के दो खण्ड-में ज, इन खण्डों का कुछ अर्थ नहीं।
यौगिक वे शब्द है जो दो या दो से अधिक शब्दों के योग से अथवा शब्दों और शब्दांशों के योग से बने हों, जैसे-दर्जन (दुर + जन), पाठशाला ( पाठ + शाला) ।
योगरूढ़ि वे शब्द हैं औ यौगिक संज्ञाओं के समान ही दो शब्दों अथवा शब्दों और शब्दांशों के योग से बने हाँ पर साधारण अर्थ को छोड़कर विशेष अर्थ प्रकट करते हों। जैसे-अंगरखा (अंगरखा) का अर्थ है अंगों की रक्षा करने वाला, इसलिए प्रत्येक वस्त्र अंगरखा कहा जा सकता है, पर इसका व्यवहार एक विशेष प्रकार के कपड़े के लिए ही होता है। इसी तरह पंकज (पंक-ज) का यौगिक अर्थ है 'कीचड़ से उत्पन्न' पर उसका विशेष अर्थ है कमल । रूढ़ि यौगिक तथा योग रूही अधिकतर संज्ञा होते हैं, अत: अनेक व्याकरण रूदि, योगिक तथा योगरूढ़ के शब्द के भेद न गिनकर संज्ञा के भेद मानते हैं।
व्याकरण के शब्द-शास्त्र या शब्दानुशासन कहते हैं। भाषा का मुख्य आचार शब्द है, अतएव शब्द से ही भाषा का प्रारम्भ होता है। मनुष्य-जीवन में हम देखते हैं कि बच्चे के मुख से जब सार्थक ध्वनियाँ अर्थात् शब्द निकलने प्रारम्भ होते हैं. तो हम कहते हैं कि अब वह बोलता है और आगे ज्यों-ज्यों वह और शब्द बोलने लगता है तो हम कहते हैं कि अब वह खब बोल लेता है। यही नई, भाषा का विकास और भाषा का जीवन शब्द-वृद्धि पर निर्भर है। जिस भाषा का शब्द-भंडार जितना भरा परा रहता है उतना ही ठस भाषा का महत्व अधिक होता है, उतनी ही वह भाषा उन्नत कहलाती है। उन्नत भाषा में न केवल अपने ही शब्द होते हैं वरन संसर्ग में आने वाली अन्य भाषाओं के शब्दों को भी वह अपना लिया करती है। जिन भाषाओं में पचाने की यह शक्ति अधिक होती है , वे जीवित भाषाएँ कहलाती है। हिन्दी भाषा जीवित भाषा है। उसका शब्द-भ दिन-दिन बढ़ रहा है। संस्कृत से विकसित तथा अविकारी शब्द तो इसके हैं हो आवश्यकतानुसार नये शब्दों के लिए संस्कृत का भण्डार इसके लिए सदा खला रहता है। पर इसके अतिरिक्त भारतीय आर्य भाषाओं तथा स्थानीय बोलियों और अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं के शब्द भी इसमें प्रवेश कर चुके हैं और कर रहे हैं। हिन्दी में प्रचलित इन सब तरह के शब्दों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जाता है-तत्सम, तद्भव, देशज तथा विदेशी।
तत्सम शब्द वे हैं जो संस्कृत के हैं और बिना किसी परिवर्तन के-जैसे के कैसे हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं, जैसे-पिता, मिष्ठान्न ।
तद्भव शब्द वे हैं जो संस्कृत शब्दों से बने हैं पर हिन्दी में जिनका कुछ कुछ परिवर्तन हो गया है। जैसे संस्कृत
संस्कृत हिन्दी
क्षेत्र खेत
अद्य आज
अज्ञ अजान
अंध अंधा
आश्रय आसरा
आम्र आम
उलूक उल्लू
अर्ध आधा
स्वप्न सपना
अग्नि आग
अश्रु आँसू
अष्ट आठ
स्तन थन
कपाट किवाड़
दधि दही
कुठार कुल्हाड़ी
दीपक दीया
कूप कुएं
काष्ठ काठ
पत्र पत्ता
गर्भिणी गाभिन
धूम्र धुओं
कातर कायर
दुग्ध दूध
गर्दभ गधा
प्रस्तर पत्थर
पूर्ण पूरा
घृत घी
वधु बहू
चाँद चन्द्र
भगिनी बहन
चूर्ण चूने, चूरन
भ्राता भाई
जिह्वा जीभ
विवाह व्याह
मस्तक माथा
मूर्ति मूरत
ओष्ठ ओठ
रूक्ष रूखा
ज्येष्ठ जेठा
शय्या सेज
त्वरित तुरत, तुरन्त
सौभाग्य सुहाग
श्याम साँवला
हस्त हाथ
शिक्षा सीख
वत्स बच्छा, बछड़ा
स्वामी साई
सत्य सव
सूर्य सूरज
वे शब्द प्रकार: तत्सम और तद्भव दोनों ही रूपों में लेखकों द्वारा प्रयोग में लाये जाते हैं।
देशज शब्द वे हैं जो संस्कृत शब्दों से नहीं बने अपितु प्राचीन भारतीय अनार्य भाषाओं या तत्कालीन स्थानीय बोलियों से अथवा आवश्यकतानुसार बना लिये गये हैं। जैसे-पेट, गाड़ी, पिल्ला आदि।
आधुनिक प्रान्तीय देश-भाषाओं से हिन्दी में अब तक बहुत कम शब्द आये हैं। पर ज्यों-ज्यों राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का प्रचार भारत भर में होता जाता है, अथवा जब से प्रतिभाशाली प्रान्तीय भाषाओं के लेखकों की कृतियों का हिन्दी में अनुवाद होने लगा है, तब से साहित्यिक हिन्दी में भी प्रान्तीय भाषाओं के कई शब्द अपनाये जाने लगे हैं। जैसे-(बंगला से) गल्प, उपन्यास, रसगुल्ला, दादा (बड़ा भाई), दीदी (बड़ी बहन), सिरहना, देखना, शुभ दृष्टि छैना, रसगुल्ला,(मिठाई), (नवीन मराठी से) चालू लागू।
विदेशी शब्द वे हैं जो भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओं अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि से हिन्दी में लिये गये हैं और जो अब हिन्दी द्वारा
अच्छी तरह अपना लिये गये हैं। जैसे
अरबी-बाग, बाकी, अखबार, अक्सीर, अजब, अदालत, अफवा, अमीर, आज, आफत, इंतजाम, इमारत, कर्ज, कानून, कुर्सी, खराब आदि।
फारसी-बाजार, अंगूर, अनार, अफसोस, उत्तरा, कबूतर, उम्मेदवार ,कमर, कभीना, किनारा, कुछ, खरगोश, खानसामा, खासा, गदा, गरदन, गया, गुस्ताख, चश्मा, चरखा, चालाक, चीन, मैदा, सरताज आदि।
तुर्की-उजबक, काबू, कुलो, गलीचा, बावची, मुचलका, लाश, सौगात, तोप, बेगम, बाबा, बहादुर।
अंग्रेजी-हॉस्पिटल, ऑर्डर, कॉलिज, काँग्रेस, गाई, जेलर, जंपर, ट्रक, टेलीफोन, टेबल, डायरी, हिल, कई, दर्जन, पेटीकोट, प्रोफेसर, प्लेटफार्म, फीस, फैशन, बटन, बैरिस्टर, बोरिंग, मोटर, मेम्बर, रिजल्ट, रसीद, रजिस्टर, नंबर,.लेटर बॉक्स, वालंटियर, सर्कस, सूटकेस, सोडावाटर, हाईकोर्ट, हाईस्कूल, होटल आदि।
पुर्तगाली-कमीज, अलमारी, तौलिया, बिस्कुट, बोतल आदि।
फ्रांसीसी-का, अँगरेजी आदि।
इन विदेशी शब्दों में सबसे अधिक शब्द फारसी के हैं और उसके बाद अंग्रेजी का नंबर आता है। अंग्रेजी के शब्द तो अब हिन्दी में बेहद प्रयुक्त हो रहे हैं और वे केवल शिक्षित समुदाय में ही सीमित नहीं अपितु अनपढ़, गवार लोगों के मुंह पर भी चढ़ रहे हैं। इनमें से बहुत से शब्द तत्सम रूप में अर्थात जिस तरह मूल भाषा में बोले जाते हैं ठीक उसी रूप में तद्भव रूप में हिन्दी में अपनाये जा रहे हैं। जैसे-मेम्बर, वालंटियर आदि अंग्रेजी के तत्सम शब्द हैं और लालटेन (शुद्ध लैंटर्न) आदि तद्भव।
इन विदेशी शब्दों के बहिष्कार का आन्दोलन प्रायः सदा चलता रहा है, फिर भी इनकी संख्या बढ़ती ही जाती है। इसका कारण यह है कि हिन्दी जीवित भाषा है. आवश्यकतानुसार अपना शब्द भण्डार सब ओर से भर रही है और सम्पर्क में आने पर आवश्यक विदेशी शब्दों को अछूत सा मानकर न अपनाना अस्वाभाविक भी है। यत्न करने पर भी यह कभी सम्भव नहीं हो सकता। अनावश्यक विदेशी शब्दों का प्रयोग करना दूसरी अति है। मध्यम मार्ग यह है कि अपनी भाषा के ध्वनि-समूह के आधार पर विदेशी शब्दों के रूप में परिवर्तन करके उन्हें आवश्यकतानुसार अपनी भाषा में सदा मिलाते रहना। इस प्रकार शुद्धि के उपरान्त लिये गये विदेशी शब्द जीवित भाणओं के शब्द भण्डार को बढ़ाने में सहायक होते हैं।
अर्थ की दृष्टि से सार्थक शब्दों के तीन भेद हैं-वाचक, लाक्षणिक तथा व्यंजक या सांकेतिक। जब शब्द ठीक उसी अर्थ में बोला या लिखा जाये जिस के लिए बना है तब उसे 'वाचक' कहते हैं। जैसे-'गधा एक जानवर है', इसमें 'गधा' शब्द वाचक है। जब कोई शब्द नियत अर्थ न बतला कर अपने सादृश्य या गुण का बोध करावे तब वह लाक्षणिक कहलाता है। जैसे-अरे मोहन तू तो निरा गधा है'. यह गधा का अर्थ है मूर्ख। व्यंजक या सांकेतिक शब्द वे हैं जो कपर से और अर्थ प्रकट करें और गढ़ आशय और ही सूचित करें। जैसे-'सूर्यास्त हो गया' में 'सूर्यास्त' शब्द का अर्थ है 'संच्या समय' अथवा 'दीपक जलाने का समय' अत: यह शब्द व्यंजक है।
शब्दों से ही वाक्य बनते हैं वाक्य बनाने के लिए जब शब्द एक दूसरे से मिलते हैं, तो वाक्य के अर्थानुसार इसमें कई शब्दों के रूप बदल जाते हैं और कई शब्द ऐसे भी होते हैं जिनके रूप में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। जैसे-'वह नहीं जाता', 'वे नहीं जाते', 'वह छोटा लड़का पाँच बजे तक यहाँ बैठा रहा', 'वे छोटे लड़के पाँच बजे तक यहाँ बैठे रहे'। इन वाक्यों में अर्थानुसार 'वह', 'जाता', 'लड़का' आदि शब्दों के रूप में कुछ परिवर्तन होता गया है। परन्तु 'नहीं', 'तक', 'यहाँ' आदि में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ। जिन शब्दों के रूप में इस प्रकार परिवर्तन हो जाता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं। और जिनका रूप बिलकुल नहीं बदलता वे शब्द अधिकारी अथवा अव्यय कहलाते हैं।
व्यवहार की दृष्टि से विकारी शब्दों को चार भागों में विभक्त किया जाता है-संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया।
संज्ञा (Noun)-किसी वस्तु, स्थान, भाव या मनुष्य के नाम बताने वाले शब्द संज्ञा कहलाते हैं। जैसे-घोड़ा, दिल्ली, मिठाई, मोहन आदि।
सर्वनाम (Pronoun)-संज्ञा के बदले प्रयुक्त होने वाले शब्द को सर्वनाम अथवा प्रतिनिधि शब्द कहते हैं। जैसे- यह, म, त, आप, कोई आदि।
विशेषण (Adjective) -संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता प्रकट करने वाले शब्द को 'विशेषण' कहते हैं।'अरबी घोड़ा', 'धार्मिक क्रिया', 'सुन्दर रंग' तथा
'मीठी गंध में 'अरबी', 'धार्मिक', 'सुन्दर' और 'मीठी' शब्द विशेषण हैं।
क्रिया (Verb)-जिससे किसी बात का करना या होना पाया जाये उसे क्रिया' अथवा 'विधायक' शब्द कहते हैं। जैसे 'लिखता हूँ', 'खाएँगे' आदि।
क्रिया-विशेषण (Adverb)-जो शब्द किसी क्रिया की विशेषता बताएं वे क्रिया-विशेषण कहलाते हैं, जल्दी चलो' और 'अभी नहीं आया' में जल्दी और 'अभी नहीं' क्रिया-विशेषण है।
सम्बन्ध-बोधक (Preposition)-जो शब्द संज्ञा या सर्वनाम के साथ आकर उसका वाक्य के दूसरे शब्दों के साथ सम्बन्ध बताये वे सम्बन्ध-बोधक अव्यय कहलाते हैं-भीतर, पीछे, तक आदि। जैसे-घर भीतर मकान के पीछे।
योजक (Conjunction)-दो शब्दों या वाक्यों को जोड़ने वाले शब्द- और, पर आदि-योजक कहलाते हैं। जैसे-मैं और तू, थोड़ा खाओ पर चबाओ खूब।
विस्मयादिबोधक (Interjection)-जिनसे बोलने वाले के मन के आकस्मिक भाव जाने जायें। जैसे-अहा! हाय! साधु!
https://youtu.be/jdkp-QXHdnc
धन्यवाद !
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