3. कारक (Case)
संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका सम्बन्ध वाक्य के किसी दूसरे शब्द के साथ प्रकट होता है उस रूप का कारक कहते हैं।
जैसे-'राम श्याम को उसकी पुस्तक पढ़ा रहा है।' इस वाक्य में 'राम' 'श्याम' को' पुस्तक' ये सब संज्ञाओं के रूपान्तर हैं और 'उसकी' सर्वनाम का। इन रूपान्तरों द्वारा इन संज्ञाओं का परस्पर और 'पढ़ा रहा है' इस क्रिया के साथ सम्बन्ध प्रकट होता है। इसलिए ये कारक है। कारक को प्रकट करने के लिए संज्ञा या सर्वनाम के साथ को' 'ने' आदि जो चिह्न लगाये जाते हैं , उन्हें विभक्ति कहते हैं।
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हिन्दी में आठ कारक हैं-
कारक विभक्ति (चिह्न)
(1) कर्ता ০ , ने
(2) कर्म ০, को
(3) करण से
(4) संप्रदाय को
(5) अपादान से
(6) सम्बन्ध का, के, की
(7) अधिकरण में, पर
(৪) संबोधन हे, अरे, अभी, अहो
(हे, हरे आदि संबोधन-द्योतक अव्यय हैं, विभक्तियाँ नहीं।)
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कारकों के लक्षण आगे दिये जाते हैं-
(1) कर्त्ता कारक (Nominative)
संज्ञा या सर्वनाम के रूप से क्रिया करने वाले का बोध होता है उसे कर्त्ता कारक कहते हैं। इसमें 'ने'
विभक्ति लगती है, कभी-कभी विभक्ति नहीं भी लगती। 'श्याम गया', 'राम ने खाया' इनमें 'श्याम' और 'राम ने' कत्त्त कारक है, क्योंकि इनसे जाने वाले और
खाने वाले का बोध होता है।
(2) कर्म कारक (Accusative)
जिस वस्तु पर क्रिया के व्यापार का फल पड़ता है उसे साबित करने वाले संज्ञा के रूप को कर्म कारक कहते हैं। इसकी विभक्ति 'को' है, पर कभी-कभी 'को' का लोप हो जाता है। जैसे- "मैंने पत्र लिखा", "कृष्ण ने कंस को मारा।" इन वाक्यों में लिखने का फल 'पत्र' है
और मारने की क्रिया 'कंस' पर की गई है; अत: 'पत्र' और 'कंस को' कर्म कारक हैं। कहना धातु के साथ 'को' के स्थान में 'से' लगता है। जैसे-हरि से कहो ।
(3) करण कारक (Instrumental)
क्रिया के साधन का बोध करने वाले संज्ञा के रूप को करण कहते हैं । इसकी विभक्ति 'से' है। "राम कलम से पत्र लिखता है।" इस वाक्य में 'कलम से' करण कारक है; क्योंकि लिखने की क्रिया कलम द्वारा हो रही है।
साधन के अतिरिक्त नीचे अर्थों में भी करण कारक प्रयुक्त होता है --
(क) हेत या विशेषता अर्थ में-भूख से व्याकुल, रोग से पीडित, गुणों पूज्य।
(ख) विकार जताने के लिए विकृत अंग के साथ-आँखों से अन्धा।
(ग) कर्म वाच्य में कर्ता के अर्थ में- राम से रावण मारा गया।
यथा-सुखेन (सुख से), कृपया (कृपा करके), मनसा वाचा कर्मणा (मन. वचन और कर्म से), येन केन प्रकारेण (जिस किसी तरह)।
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(4) सम्प्रदान (Dative)
जिसे कुछ दिया जाये या जिसके लिए कछ
किया जाये उसे बोध कराने वाले संज्ञा के रूप को सम्प्रदान कहते हैं। इसकी विभक्ति भी 'क' है। संसार की भलाई करने को ही महापुरुषों का आगमन
होता है। लड़का पढ़ने को गया। मैंने राम को पाँच रुपये दिये। इन वाक्यों में 'भलाई करने को', 'पढ़ने को', और 'राम को' सम्प्रदान कारक हैं।
(5) अपादान कारक (Ablative)-
संज्ञा के उस रूप को जिससे पृथकत्व का बोध होता है अपादान कारक कहते हैं। कारण की तरह इसकी
भी 'से' विभक्ति है। अभी स्कूल से आ रहा हूँ' इस वाक्य में स्कूल से' अपादान कारक है क्योंकि यह स्कूल से पृथकत्व प्रकट करता है।
अपादान कारक का प्रयोग निम्नलिखित अर्थों में भी होता है
(क) जहाँ से कोई क्रिया आरम्भ की जाए। जैसे-आज से स्कूल बन्द है।
(ख) तुलना प्रकट करने में। जैसे-भरत राम से छोटे थे ।
(ग) जिससे पढ़ा जाये, जिससे लज्जा आए, जिससे उत्पत्ति हो, जिससे माँगा जाये तथा जिससे डरा जाये, ये सभी अपादान कारक में प्रयुक्त होते हैं। यथा-मैं
गुरुजी से पढ़ता हूँ। तुम्हारी पत्नी मुझसे लज्जा करती है, गंगा हिमालय से निकलती है, तुमसे प्रतिदिन यही माँगता हूँ, मैं शेर से डरता हूँ।
करण कारक की 'से' विभक्ति साधन-सूचक होती है पर अपादान की 'से विभक्ति पृथकत्व-सूचक होती है। जैसे-चाकू से (करण) काटा। स्कूल से (अपादान) आ रहा हूँ।
(6) सम्बन्ध करण कारक (Genitive)
संज्ञा का जिस रूप से किसी वस्तु का दूसरी वस्तु से सम्बन्ध प्रकट हो वह सम्बन्ध कारक है। इस कारक की विभक्ति 'का' है। पर 'का' रूप वाच्य वस्त के लिंग और वचन के अनुसार बदल जाता है-अर्थात् जब वाच्य पुल्लिंग और बहुवचन में होगा 'का' की जगह 'के' हो जायेगा और जब स्त्रीलिंग होगा तो दोनों वचनों में 'का' की जगह 'की' हो जायेगा।
जैसे-देवदत्त का लोटा, देवदत्त के लोटे, देवदत्त की
पुस्तक, देवदत्त की पुस्तकें।
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(7) अधिकरण कारक (Locative)
संज्ञा का वह रूप जिससे क्रिया के आधार का बोध होता है अधिकरण कारक कहलाता है। इस कारक की विभक्तियाँ 'में' और 'पर', हैं ।
जैसे-आसन पर विराजिये।
अधिकरण तीन प्रकार के हैं-
कालाधिकरण, भावाधिकरण और स्थानाधिकरण।
जिस काल में क्रिया का व्यापार होता है उसे कालाधिकरण कहते हैं।
जैसे-दस मिनट में आता हूँ।
गर्मियों में दिन में नींद आती है।
क्रियाओं के भाव के प्रयोग में भावाधिकरण होता है।
जैसे-वहाँ तक जाने से तुम्हारा क्या बिगड़ता है?
जिस स्थान पर क्रिया होती है उसे स्थानाधिकरण कहते हैं।
जैसे-पुस्तक मेज पर रखी है। देवदत्त घर में है।
कालवाचक और स्थानवाचक अधिकरणों के साथ कभी-कभी विभक्ति चिह्न नहीं भी लगता।
जैसे-कल रात क्या वर्षा हुई थी?
अर्थात् कल रात में क्या वर्षा हुई थी?
शाम तक मैं घर ही रहूँगा अर्थात् शाम तक मैं घर में ही रहूँगा।
(8) सम्बोधन (Vocative)
संज्ञा के जिस रूप से किसी को चेतावनी
या पुकारना सूचित होता है उसे सम्बोधन कहते हैं।
जैसे-हे प्रभो! आप हमें बुद्धि प्रदान करें।
अरे छोकरे! तू कहाँ नौकरी करता है?
संबोधन कारक की कोई विभक्ति (प्रत्यय) नहीं है, उसको प्रकट करने के लिए 'हे' आदि अव्यय शब्द से पूर्व लगाये जाते हैं।
कभी-कभी संस्कृत के संबोधन हिन्दी में ज्यों के त्यों प्रयुक्त होते हैं।
श्रीमान् जननि सीते आशे
महात्मन् देवि राधे गंगे
राजन् माता हरे प्रभो
भगवन् प्रिये लक्ष्मीपते साधो
स्वामिन् मानिनि सखे कविते
कारक-संबंधी कुछ विशेष बातें
(1) संस्कृत में विभक्तियाँ शब्दों से मिली रहती हैं, पर हिन्दी में प्रायःपृथक् रहती हैं, कोई-कोई लेखक मिलाकर भी लिखते हैं।
जैसे-'भाग्यका' या 'भाग्य का निर्णय ईश्वर ही करते हैं।
(2) विभक्ति साधारणतया अन्तिम प्रत्यय है अर्थात् इनके पश्चात् दूसरे प्रत्यय नहीं आते, तो भी हिन्दी में अधिकरण कारक की विभक्तियाँ भी प्रयुक्त होती हैं।
जैसे-घड़े में का पानी, पंजे में से निकल गया।
(3) संज्ञा या सर्वनाम का जो सम्बन्ध विभक्तियों के द्वारा क्रिया या दूसरे शब्दों के साथ प्रकट होता है वही सम्बन्ध कभी-कभी सम्बन्ध-सूचक अव्ययों के द्वारा भी प्रकट होता है। जैसे-मोहन 'पढ़ने को' गया है या 'पढ़ने के लिए' गया है। भिन्न-भिन्न कारकों के लिए भिन्न-भिन्न सम्बन्ध-सूचक अव्यय आते हैं।
(क) कर्म कारक-प्रति, तईं ।
राम ने सीता के प्रति (तईं) कहा।
(ख) कारण कारक-द्वारा, कारण, मारे, जरिये, करके।
तेज चाकू द्वारा इस सब को काट लो।
भूख के कारण मरा जा रहा हूँ।
धूप के मारे सब सूख गये हैं।
डाक के जरिये यह पत्र अभी भेज दो।
बहुत विनती करके मैं उसको पा सका।
(ग) संप्रदान कारक-लिए, हेतु, निमित्त, भ्रमण अर्थ, वास्ते।
राम ने भरत के लिए राज्य छोड़ा।
गोपाल ने राम के हेतु अपना हिस्सा छोड़ दिया।
वह उदर भरने के निमित्त स्वांग रचता फिरता है।
भ्रमण अर्थ श्याम निकल गया।
तुम्हारे वास्ते मुझे इतनी झिड़कियाँ सहनी पड़ी।
(घ) अपादान कारक-अपेक्षा, सामने, बाद।
भरत राम की अपेक्षा छोटे थे।
मुझे गुरुजनों के सामने लज्जा आती है।
आज के बाद मैं तुमसे बोल भी जाऊँ तो मेरा नाम बदल लेना।
(ङ) अधिकरण- बीच, भीतर, अन्दर, ऊपर,
दस सेकेण्ड के बीच वह घटना हो गई
घर के अन्दर (भीतर) कौन है?
छत के ऊपर कौन बैठा है?
पर इन सम्बन्ध-सूचक अव्ययों को विभक्ति नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये स्वतन्त्र शब्द हैं।
धन्यवाद!
हिन्दी में आठ कारक हैं-
कारक विभक्ति (चिह्न)
(1) कर्ता ০ , ने
(2) कर्म ০, को
(3) करण से
(4) संप्रदाय को
(5) अपादान से
(6) सम्बन्ध का, के, की
(7) अधिकरण में, पर
(৪) संबोधन हे, अरे, अभी, अहो
(हे, हरे आदि संबोधन-द्योतक अव्यय हैं, विभक्तियाँ नहीं।)
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कारकों के लक्षण आगे दिये जाते हैं-
(1) कर्त्ता कारक (Nominative)
संज्ञा या सर्वनाम के रूप से क्रिया करने वाले का बोध होता है उसे कर्त्ता कारक कहते हैं। इसमें 'ने'
विभक्ति लगती है, कभी-कभी विभक्ति नहीं भी लगती। 'श्याम गया', 'राम ने खाया' इनमें 'श्याम' और 'राम ने' कत्त्त कारक है, क्योंकि इनसे जाने वाले और
खाने वाले का बोध होता है।
(2) कर्म कारक (Accusative)
जिस वस्तु पर क्रिया के व्यापार का फल पड़ता है उसे साबित करने वाले संज्ञा के रूप को कर्म कारक कहते हैं। इसकी विभक्ति 'को' है, पर कभी-कभी 'को' का लोप हो जाता है। जैसे- "मैंने पत्र लिखा", "कृष्ण ने कंस को मारा।" इन वाक्यों में लिखने का फल 'पत्र' है
और मारने की क्रिया 'कंस' पर की गई है; अत: 'पत्र' और 'कंस को' कर्म कारक हैं। कहना धातु के साथ 'को' के स्थान में 'से' लगता है। जैसे-हरि से कहो ।
(3) करण कारक (Instrumental)
क्रिया के साधन का बोध करने वाले संज्ञा के रूप को करण कहते हैं । इसकी विभक्ति 'से' है। "राम कलम से पत्र लिखता है।" इस वाक्य में 'कलम से' करण कारक है; क्योंकि लिखने की क्रिया कलम द्वारा हो रही है।
साधन के अतिरिक्त नीचे अर्थों में भी करण कारक प्रयुक्त होता है --
(क) हेत या विशेषता अर्थ में-भूख से व्याकुल, रोग से पीडित, गुणों पूज्य।
(ख) विकार जताने के लिए विकृत अंग के साथ-आँखों से अन्धा।
(ग) कर्म वाच्य में कर्ता के अर्थ में- राम से रावण मारा गया।
यथा-सुखेन (सुख से), कृपया (कृपा करके), मनसा वाचा कर्मणा (मन. वचन और कर्म से), येन केन प्रकारेण (जिस किसी तरह)।
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(4) सम्प्रदान (Dative)
जिसे कुछ दिया जाये या जिसके लिए कछ
किया जाये उसे बोध कराने वाले संज्ञा के रूप को सम्प्रदान कहते हैं। इसकी विभक्ति भी 'क' है। संसार की भलाई करने को ही महापुरुषों का आगमन
होता है। लड़का पढ़ने को गया। मैंने राम को पाँच रुपये दिये। इन वाक्यों में 'भलाई करने को', 'पढ़ने को', और 'राम को' सम्प्रदान कारक हैं।
(5) अपादान कारक (Ablative)-
संज्ञा के उस रूप को जिससे पृथकत्व का बोध होता है अपादान कारक कहते हैं। कारण की तरह इसकी
भी 'से' विभक्ति है। अभी स्कूल से आ रहा हूँ' इस वाक्य में स्कूल से' अपादान कारक है क्योंकि यह स्कूल से पृथकत्व प्रकट करता है।
अपादान कारक का प्रयोग निम्नलिखित अर्थों में भी होता है
(क) जहाँ से कोई क्रिया आरम्भ की जाए। जैसे-आज से स्कूल बन्द है।
(ख) तुलना प्रकट करने में। जैसे-भरत राम से छोटे थे ।
(ग) जिससे पढ़ा जाये, जिससे लज्जा आए, जिससे उत्पत्ति हो, जिससे माँगा जाये तथा जिससे डरा जाये, ये सभी अपादान कारक में प्रयुक्त होते हैं। यथा-मैं
गुरुजी से पढ़ता हूँ। तुम्हारी पत्नी मुझसे लज्जा करती है, गंगा हिमालय से निकलती है, तुमसे प्रतिदिन यही माँगता हूँ, मैं शेर से डरता हूँ।
करण कारक की 'से' विभक्ति साधन-सूचक होती है पर अपादान की 'से विभक्ति पृथकत्व-सूचक होती है। जैसे-चाकू से (करण) काटा। स्कूल से (अपादान) आ रहा हूँ।
(6) सम्बन्ध करण कारक (Genitive)
संज्ञा का जिस रूप से किसी वस्तु का दूसरी वस्तु से सम्बन्ध प्रकट हो वह सम्बन्ध कारक है। इस कारक की विभक्ति 'का' है। पर 'का' रूप वाच्य वस्त के लिंग और वचन के अनुसार बदल जाता है-अर्थात् जब वाच्य पुल्लिंग और बहुवचन में होगा 'का' की जगह 'के' हो जायेगा और जब स्त्रीलिंग होगा तो दोनों वचनों में 'का' की जगह 'की' हो जायेगा।
जैसे-देवदत्त का लोटा, देवदत्त के लोटे, देवदत्त की
पुस्तक, देवदत्त की पुस्तकें।
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(7) अधिकरण कारक (Locative)
संज्ञा का वह रूप जिससे क्रिया के आधार का बोध होता है अधिकरण कारक कहलाता है। इस कारक की विभक्तियाँ 'में' और 'पर', हैं ।
जैसे-आसन पर विराजिये।
अधिकरण तीन प्रकार के हैं-
कालाधिकरण, भावाधिकरण और स्थानाधिकरण।
जिस काल में क्रिया का व्यापार होता है उसे कालाधिकरण कहते हैं।
जैसे-दस मिनट में आता हूँ।
गर्मियों में दिन में नींद आती है।
क्रियाओं के भाव के प्रयोग में भावाधिकरण होता है।
जैसे-वहाँ तक जाने से तुम्हारा क्या बिगड़ता है?
जिस स्थान पर क्रिया होती है उसे स्थानाधिकरण कहते हैं।
जैसे-पुस्तक मेज पर रखी है। देवदत्त घर में है।
कालवाचक और स्थानवाचक अधिकरणों के साथ कभी-कभी विभक्ति चिह्न नहीं भी लगता।
जैसे-कल रात क्या वर्षा हुई थी?
अर्थात् कल रात में क्या वर्षा हुई थी?
शाम तक मैं घर ही रहूँगा अर्थात् शाम तक मैं घर में ही रहूँगा।
(8) सम्बोधन (Vocative)
संज्ञा के जिस रूप से किसी को चेतावनी
या पुकारना सूचित होता है उसे सम्बोधन कहते हैं।
जैसे-हे प्रभो! आप हमें बुद्धि प्रदान करें।
अरे छोकरे! तू कहाँ नौकरी करता है?
संबोधन कारक की कोई विभक्ति (प्रत्यय) नहीं है, उसको प्रकट करने के लिए 'हे' आदि अव्यय शब्द से पूर्व लगाये जाते हैं।
कभी-कभी संस्कृत के संबोधन हिन्दी में ज्यों के त्यों प्रयुक्त होते हैं।
श्रीमान् जननि सीते आशे
महात्मन् देवि राधे गंगे
राजन् माता हरे प्रभो
भगवन् प्रिये लक्ष्मीपते साधो
स्वामिन् मानिनि सखे कविते
कारक-संबंधी कुछ विशेष बातें
(1) संस्कृत में विभक्तियाँ शब्दों से मिली रहती हैं, पर हिन्दी में प्रायःपृथक् रहती हैं, कोई-कोई लेखक मिलाकर भी लिखते हैं।
जैसे-'भाग्यका' या 'भाग्य का निर्णय ईश्वर ही करते हैं।
(2) विभक्ति साधारणतया अन्तिम प्रत्यय है अर्थात् इनके पश्चात् दूसरे प्रत्यय नहीं आते, तो भी हिन्दी में अधिकरण कारक की विभक्तियाँ भी प्रयुक्त होती हैं।
जैसे-घड़े में का पानी, पंजे में से निकल गया।
(3) संज्ञा या सर्वनाम का जो सम्बन्ध विभक्तियों के द्वारा क्रिया या दूसरे शब्दों के साथ प्रकट होता है वही सम्बन्ध कभी-कभी सम्बन्ध-सूचक अव्ययों के द्वारा भी प्रकट होता है। जैसे-मोहन 'पढ़ने को' गया है या 'पढ़ने के लिए' गया है। भिन्न-भिन्न कारकों के लिए भिन्न-भिन्न सम्बन्ध-सूचक अव्यय आते हैं।
(क) कर्म कारक-प्रति, तईं ।
राम ने सीता के प्रति (तईं) कहा।
(ख) कारण कारक-द्वारा, कारण, मारे, जरिये, करके।
तेज चाकू द्वारा इस सब को काट लो।
भूख के कारण मरा जा रहा हूँ।
धूप के मारे सब सूख गये हैं।
डाक के जरिये यह पत्र अभी भेज दो।
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(ग) संप्रदान कारक-लिए, हेतु, निमित्त, भ्रमण अर्थ, वास्ते।
राम ने भरत के लिए राज्य छोड़ा।
गोपाल ने राम के हेतु अपना हिस्सा छोड़ दिया।
वह उदर भरने के निमित्त स्वांग रचता फिरता है।
भ्रमण अर्थ श्याम निकल गया।
तुम्हारे वास्ते मुझे इतनी झिड़कियाँ सहनी पड़ी।
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भरत राम की अपेक्षा छोटे थे।
मुझे गुरुजनों के सामने लज्जा आती है।
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दस सेकेण्ड के बीच वह घटना हो गई
घर के अन्दर (भीतर) कौन है?
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धन्यवाद!
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