Monday, January 25, 2021

1. अनुवाद सिद्धांत -1


   

                                     स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा 

                                P.G. Diploma in Translation

                                               अनुवाद सिद्धांत

       अनुवाद की परिभाषाएं

       (1. अनुवाद की विभिन्न परिभाषाओं का परिचय दीजिये।)

               सृष्टि ध्वनिमूलक है। स्वनि द्वारा विभिन्न जीवराशियों के अस्तित्व का संकेत परस्पर प्राप्त होता है और इसी आधार पर जीवन संबंधी समस्त प्रक्रियाओं का आदान-प्रदान होता है। ध्वनि की सरसता, कर्कशता इत्यादि में विभिन्न भावों का समावेश पाया जाता है। आतकित होने पर एक प्रकार की ध्वनि, आक्रोश में एक अन्य प्रकार की ध्वनि आदि हम जानते ही हैं।

                ध्वनियों से निकट संबंध के सारे संकेत कालांतर में विकसित हुए। निकट संबंध का तात्पर्य है, एक जीव और दूसरे जीव की पूरक शक्तियों का अस्तित्व तथा तज्जन्य प्रसारण आदि। उदाहरण के लिए कोई शिशु यदि रोने लगता है तो उसके रूदन के साथ भूख के आतंक का संकेत है। इसी तरह विभिन्न प्रकार की भाव स्थितियाँ ध्वनियों में रूपांतरित होती है।

                मनुष्य ने इन ध्वनियों के अस्तित्व को तथा इनकी संभावनाओं को पूरी तरह पहचाना और उसके इस पहचान के फलस्वरूप ही भाव सकेतमूलक भाषा स्वरूपों का विकास हुआ। परस्पर विचारों के आदान-प्रदान के लिए आवश्यक विभिन्न साधनों में से सर्वाधिक प्रमुख साधन भाषा है। संसार में विभिन्न स्थानों पर विकास की विभिन्न दशाओं से गुजरकर बस्ती जमानेवाले विभिन्न जाति के लोगों ने अपनी भाषा के स्वरूप को भी काल निर्णय के अनुसार विभिन्न स्तरों में विकसित किया है बाइबल गे "The Tower of Babel" की कथा से जात होता है कि या तो य के परस्पर विद्वेषात्मक मनस्थिति में भाषा स्वरूपों को अलग किया या फिर इस विद्वेष के दण्ड स्वरूप उसे विभिन्न भाषाओं का भार होना पड़ा।

                संसार में कितनी भाषाएं हैं, इसपर प्रसिद्ध भाषाविद "आटो जेसपर्सन" ने कहा कि "उतनी ही भाषाए हैं जितने लोग है" अर्थात प्रत्यक्त व्यक्ति की भाषा अपने में सामान्य होते हुए भी विशिष्ट है। संस्कृत ने भी एक उक्ति है - "गुण्डे मुण्डे मति मंतिः भावन्ति ये जनाः भाषन्ति नते"। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति के विचारों की अपनी विशेषता है और उसकी भाषा भी भिन्न होती है।

                 विभिन्न भाषाओं की अनिवार्य वर्तमानता के कारण तात्पर्य संप्रेषण ३ बाधक स्थितियां हैं। ये स्थितियां चाहें अनुकूल हो या प्रतिकूल, इनके निवारण की बराबर ज़रूरत रहती है। एक प्रश्न यहां दृष्टांत के रूप में हम उठा सकते हैं। जब सिकंदर आक्रामक बनकर पोरस को परास्त किया और पोरस से जब उसने प्रश्न किया कि "मैं आपके साथ कैसे व्यवहार करू", और जब पोरस ने जवाब दिया कि "मेरे साथ एक राजा के अन्य राजा के साथ जो व्यवहार अपेक्षित है वैसा ही होना चाहिए" यह प्रश्नोत्तरी किस भाषा में हुई। हाँ, नि:संदेह कोई दुभाषिया रहा होगा और उसने परस्पर विचारों के आदान-प्रदान में सहायता पहुंचायी होगी। मगर हम आसानी से ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं जब परस्पर अनभिज्ञ भाषा-भाषी अपनी ही भाषा में अपने तात्पर्य को प्रतिपादित करने के लिए एक ही बात को बार-बार शारीरिक संकेत सहित दोहराये हुए होंगे। इसी बार-बार दोहराकर किसी बात को कहने की प्रक्रिया अनुवाद कहा जाता है।

                  अनुवाद की परंपरा काफ़ी प्राचीन है जैसे "चोंमस्की ने कहा "उतनी प्राचीन जितनी कि पुराने पत्थर के औजारों का परिवर्तन नवीन पाषाण युग में (Neo lithic Age) हुआ। उनका कहना है कि पत्थरों की आकृति, नुकीलेपन आदि द्वारा भी भावाभिव्यक्तियां होती थीं और उनको हाथ में पकडते समय जो स्वर बोले जाते थे उनके पुनर्कथन द्वारा तात्पर्य स्वीकृति लक्षित होती थी। प्राचीन मिश्र में जो द्विभाषिक शिलालेख (Rosetta Stone)प्राप्त होते हैं, वही से अनुवाद का स्वरूप हम निर्धारित मान सकते हैं। अनुवाद शब्द का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ है पुनः कथन। "उच्यते प्रत्युच्यते च अर्थ बोधः" के अनुसार किसी बात को दोहराने से अर्थ बोध हो जाता है। अंग्रेजी में अनुवाद के लिए शब्द है "Translation"| इसका तात्पर्य है एक स्थान से स्थानांतर में ले जाना। अन्य शब्द जो अनुवाद के लिए प्रचलित हैं, वे हैं - "भाषान्तर", "रूपांतर", "अनूदित कथन", "तर्जुमा" और "उल्था"। अनुवाद और Translation शब्दों से हमें यह परिचय मिलता है कि किसी अर्थ को सामान्य बनाने के लिए प्रयुक्त एक ध्वन्यात्मक आकृत्ति जो श्रोता के लिए परिचित है। "Translation" शब्द में भी अर्थ के भारवहन का बोध है। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में भी एक ही भाषाके माध्यम में भी कभी-कभी ध्वन्यात्मक प्रयोग संबंधी विशेषताओं के कारण अनुवाद की आवश्यकता पड़ती है। इस संबंध में एक प्रसंग वास्तविक घटना के आधार पर यहाँ देना असमीचीन न होगा।

                   "सर तेज बहादुर राजू ने हाजरा आफ लाओस में पहली बार अंग्रेजी में भाषण दिया था। उनके भाषण की समाप्ति पर हाउस आफ लाईस के अध्यक्ष ने उठकर कहा, अब श्री मिल्लर, मान्य भारतीय सदस्य के भाषण का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत करेंगे। स्पष्ट है कि सापरू साहब की अंग्रेजी हिन्दुस्तानी ढंग की थी जिसको लहजा, उच्चारण आदि के कारण अंग्रेज लोग समझ नहीं सकते थे।

                   अनुवाद के स्वरूप का निर्धारण करते समय हमें यह जानना आवश्यक है कि व्यक्ति के उच्चारण आदि से संबंधित अवयव अपनी विशिष्टताओं में उतनी ही भिन्न है और परस्पर वैषम्य की, विरूप बोध की इतनी संभावनाएं है कि उन्हें अलग तौर से ही पहचानना पड़ता है और एक अनुवाद की प्रक्रिया को व्यवहार में निरायास ही लाना पड़ता है।

                   अनुवाद एक प्रकार का भाषा प्रयोग है, जिसमें किसी कथित का भिन्न ध्वनि चिह्नों में पुन:कथन द्वारा तात्पर्य बोध किया जाता है। भाषा संकेत अनुवाद के लिए आधारभूत है। क्योंकि जैसे चोम्स्की ने कहा अर्थ हिमानी की तरह शब्द में जमे रहते हैं और प्रयोग वह गरमी है जो इस गाने में रूपायतन कर देती है। एक कोटि के संकेतों द्वारा बतायी वात को दूसरी कोटि के संकेतों से दोहराना अनुवाद है। अनुवाद एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसका प्रयोग बिलकुल व्यावहारिक है, कार्यसाधन के लिए है। इसकी परिभाषाएं अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से की है जिनका संक्षेप में निम्न लिखित प्रकार हम जान सकते हैं।





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      1. ग्रेस मेन अनुवाद एक कास्मोस से दूसरे कास्मोस में किसी को पहुंचाने का प्रयास है।

      2.नैडा तथा टेबर मूल भाषा में अभिव्यक्त संदेश को लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करने की

           प्रक्रिया अनुवाद है। इसमें सममूल्य पर अर्थात् अर्थों के समान्तर होने एवं अंदाज

            से बचने पर ध्यान देना है।

      3: न्यूयॉर्क अनुवाद एक शिल्प हैं जिसमें एक भाषा में लिखित संदेश के स्थान पर 

          दूसरी भाषा के माध्यम से उसी संदेश को दोहराकर अर्थबोध करने का प्रयास 

          किया जाता है। 

      4. कैट फोर्ड एक माध्यम में प्रस्तुत पाठ्य को समानार्थक रूप में अन्य भाषा 

           माध्यम में प्रतिस्थापित करना अनुवाद है।

      5. भट्ट नायक अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सार्थक अनुभव को एक 

            भाषा समुदाय से दूसरे समुदाय में संप्रेषित करते हैं।

       6. सुनीति कुमार चैटर्जी ने एक हल्के फुल्के क्षण में कहा अनुवाद सरल को

             जटिल बनाकर, समझ से बेअकली की तरफ़ लोगों को ले जाने का प्रयास है।

             इसी तरह भारत के एक भूतपूर्व विदेशी मंत्री वी.के कृष्ण मेनन ने संयुक्त राष्ट्र 

             संघ में कहा मुझे अनुवाद की ज़रूरत नहीं, मैं खुद ही श्रोता को गुमराह 

             कर सकता हूँ।

            प्रेमचंद ने अपने "उपन्यास" शीर्षक निबंध में कहा था कि विषय जितना सरल होता है परिभाषा उतनी ही कठिन होती है। अनुवाद सरल विषय है। एक ने कहा "किसी भाषा में दूसरे को समझ में न आयी, - एक अन्य ने उसे श्रोता की भाषा में समझाया।" यही अनुवाद है।

        हम अनुवाद की निम्न लिखित परिभाषाएँ भी मान सकते हैं।

          1. बर्न अन्तर्राष्ट्रीय अनुवादक सम्मेलन 1948 में स्वीकृत परिभाषा अनुवाद अर्थ को सार्वभौमिक बनाने की प्रक्रिया है जिसमें भाषागत दीवारों को पार किया जाता है। (Translation implies universal acceptance of an import,

 transcending the boundaries of language).

          2. यूनेस्को द्वारा स्वीकृत परिभाषा भाषा को समझना, अर्थ को समझना, अभिव्यक्ति के परिवेश को समझना और भाषान्तर में प्रस्तुत करना 

              (To know the language, to understand the meaning and to assimilate the expression and present the same in a different language.

           3. अनुवाद एक भाषा के पाठ्य को समार्थक दूसरी भाषा में प्रस्तुत करने की प्रक्रिया है।                (The replacement of textual material in one language by equivalent textual material in another language.)

         4.  अनुषाय का प्रक्रिया है जिसमें किसी भाषा का सन्देश पहले अर्थ और फिर शैली के धरातल पर भाषा में निकटतम, स्वाभाविक तथा तुल्यार्थक उपादान प्रस्तुत करने से मिलता है।

             Translation consists in producing in the receptor language the closest natural equivalent to the message of the source language, first in meaning and secondly in style - EA. Nida.


              (2.स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा से आप क्या समझते हैं?)

स्त्रोत भाषा:

                      भाषा मूलतः मौलिक है। "भाष", "to speak", "बोलना" - इससे भाषा शब्द बना है। "अनया भाव: भास्वरत्वम् उपैति, इति भाष" भी कहा गया है। मात्र मौखिक रूप में भाषा के रहने पर तात्पर्य बोध के लिए शरीर के संकेत या जैसे अंग्रेजी में कहते हैं 'Body language का आश्रय लिया जा सकता है। मगर भाषा जब लिपिबद्ध हो जाती है, उन रेखा संकेतों में गर्भित अर्थों को एक जटिल पद्धति द्वारा ग्रहण करना पड़ता है।

          अनुवाद की आवश्यकता मौखिक भाषा में रहती है, पर लिपिबद्ध भाषा में उसकी आवश्यकता अधिक रहती है। लिपिबद्ध अनुवाद हो या मौखिक अनुवाद, वक्ता और श्रोता के बीच में अथवा लेखक और पाठक के बीच में एक मध्यस्थ चाहिये जिसे हम दुभाषिया या अनुवादक कहते हैं। जिस भाषा से अनुवाद अपेक्षित है, उसे हम मूल भाषा या स्त्रोत भाषा कहते हैं और जिसमें अनुवाद किया जाता है उसे हम लक्ष्य भाषा या अपर भाषा कहते है। स्रोत भाषा का लक्षण यह होता है कि उसमें मूल कथ्य अविकल रहता है और लक्ष्य भाषा का स्वरूप यह होता है कि उसमें अनिवार्यतः एक लचीलापन आ जाता है। अधे के हाथ में लग जानेवाले बटेर की तरह कभी सीधा संप्रेषण सहज हो जाता है। पर जिस तरह कुमारिल्ल भट्ट ने कहा था वाक्वृत्ति अखण्डित आत्मस्वरूप है और उसका प्रसारित होना अक्सर अर्थ तिरस्कार का हेतु बन जाता है। एलेकज़ांडर फ्रेजर टिटलर ने भी कहा है कि स्रोत भाषा में अपेक्षाकृत अधिक अर्थपक्ष अनिवार्यतः रहता है। कारण यह है कि उसमें कहनेवाले की मूल बात का स्वरूप रहता है। टिटलर ने अपने Principles of Translation नामक पुस्तक में मूल भाषा को समृद्धि का लक्षण माना है और लक्ष्य भाषा को प्रसार का लक्षण। शायद उन्होंने व्याख्यात्मक स्वरूप को अनुवाद समझा होगा या उन दिनों अनुवाद का विस्तार व्याख्या में भी निहित माना गया होगा। कुमारिल्ल भट्ट ने वाक्य वृत्ति विस्तार के बारे में लिखा है “अनिहित अन्तर्हितं च वाक्ये श्रद्धया गर्भितं भवेत्' तात्पर्य यह है कि वार और अर्थ के बीच में व्यवधान को उन्होंने माना है । इसलिए खोत भाचत के अकथित को भी कविता के समान ही महत्व रहता है। प्राचीन साल में अनुवाद का क्रम समृद्ध सांस्कृतिक भाषाओं से पामरों में प्रचलित लोक भाषाओ में किया जाता था। मेगस्थनीज ने लिखा है कि संस्कृत में रहनेवाले विधिनिषेधों को जनसामान्य में तथा पंचायतों में सूचित करने के लिए भाषान्तरकार या अनुवादक का आश्रय लिया जाता या और इस तरह का कार्य सामान्य जन द्वारा पंचायतों में निर्धारित विषयों को राजा तक पहुँचाने के लिए भी किया जाता था । चीन से आनेवाले ईसिंह हुआनसुवाग जैसे चीनी बौद्ध भिक्षु भी अनुवाद का एक क्रम लेकर आये। उन्हें मूल भाषा पाली में रहनेवाले हीनयान और महायान के धार्मिक ग्रंथों को चीनी में कर लेना था, जिसके लिये उन्होंने संस्कृत जाननेवाले बौद्ध भिक्षुओं का आश्रय लिया था। कारण यह था कि कई सानाजिक शब्द पाली में तत्सम रूप में ही प्रयुक्त होते थे। इस तरह प्रारंभ काल में किसी भी अनुवाद के लिए संस्कृत का आश्रय लिया जाता था या उसे स्रोत भाषा के रूप में लिया जाता था। योरप में भी हम देखते हैं कि प्लाटो और अरस्तू के दार्शनिक चिंतन को यूनानी भाषा से लैटिन भाषा में अनूदित करने का कार्य यूरिप्डिस' के समय में लिया गया था यद्यपि लैटिन लोकभाषा नहीं थी तथापि दर्शन जैसे गंभीर विषय के लिए लैटीन ही अनुकूल है, यह माना गया। स्रोत भाषा की गरिमा के अनुकूल शब्दों को चुनने का क्रम बराबर प्रचलित रहा।

               अब हम स्रोत भाषा की परिभाषा निम्न लिखित प्रकार कर सकते हैं - "वह भाषा जिसमें उपलब्ध विभिन्न प्रकार की सामग्री को अन्य भाषा में समनुकूल अर्थ बोध के लिए चयन किया जाता है, उस मूल कथ्य गर्भित भाषा को स्रोत भाषा कहते हैं।"

लक्ष्य भाषा का स्वरूप :-

               सैद्धांतिक अध्ययन के लिए अनुवाद को हम स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के दो रूपों में पहचानते हैं। लक्ष्य भाषा से तात्पर्य उस भाषा का है, जिसमें पाठ बोध के लिए अनूदित सामग्री प्रस्तुत की जाती है। जहा स्रोत भाषा प्रायः या तो प्राचीन समृद्ध भाषा अथवा बहु प्रचलित सामयिक भाषा सी है, वहाँ लक्ष्य भाषा बोलचाल की भाषा अथवा अन्य कोई आधुनिक भाषा होती है। डा.भोलानाथ तिवारी ने लिखा है कि लक्ष्य भाषा का मूल भाषा के साथ सामीप्य का संबंध भी होता है, या वैरूपय का संबध भी होता है। उदाहरण के लिए हिन्दी और बंगला भाषा के बीच में यदि स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा का संबंध हो तो वह सामीप्य का संबंध होता है। सामीप्यवाली लक्ष्य भाषा में सोत भाषा की पाब्द संपदा का पूरा उपयोग होता है। उदाहरण के लिए हम हिन्दी के इस पंक्ति को ले सकते हैं।

                    रूपायन प्राय फुल कलिका, राकेंदु विग्बानना 

                    तवंगी कलहासिनी क्रीडा कला पुत्तली थी

                यहां इस पंक्ति को जब हम बांग्ला को लक्ष्य भाषा मानकर अनुवाद करते हैं तो हमें मात्र "थी" शब्द का अनुवाद करना पडता है, अन्य एब्द प्रायः उसी रूप में प्रयुक्त होकर वहीं अर्थ दे सकते हैं ।

                 वैरूप्य वाले लक्ष्य भाषा दो प्रकार के हो सकते हैं। एक में शब्दक्रम, विशेषण, क्रिया विशेषण आदि का क्रम बदलना पडता है। उदाहरण के लिए

                 "इक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने" को अंग्रेजी में अनूदित करें तो उसका रूप होगा | will build a house in front of your house यहाँ हम देख सकते हैं कि शब्दक्रम बिलकुल बदल गया है। दूसरे प्रकार का वैरूप्य वह है जिसमें शब्दार्थों को पूरी तरह अनूदित करना पडता है। जैसे "सिध्दार्थ शुद्धोदन का पुत्र था" का अनुवाद चीनी भाषा में हो तो उसका स्वरूप होगा -

                 "जिसका तात्पर्य निरूपित है वह विशुद्ध अज को पुत्र नामक नरक से उद्धार करनेवाला होगा" यहाँ सिद्धार्थ, शुद्धोदन और पुत्र शब्दों का भी अनुवाद किया गया है। कारण यह है कि लक्ष्य भाषा के रूप में उसमें वैरूप्य की मात्रा अधिक है।

                  स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के बीच में शिष्टाचार संबंधी बातें भी पैदा होती हैं। स्वाहिली (आफ्रिका) भाषा में "मेरे घर" के लिए प्रयुक्त शब्द "स त ज ल" - महल जबकि चीनी भाषा में "यू तु" शब्द का प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है "झपडी" अर्थात् घर के लिए एक भाषा में "महल" अर्थ का बोधक शब्द प्रयुक्त होता है जबकि दूसरी भाषा में "झोपडी" अर्थ बोधक शब्द प्रयुक्त होता है।

                   इस तरह लक्ष्य भाषा की परिभाषा हम कर सकते हैं ।

                 "वह भाषा जिसमें स्रोत भाषा के अर्थ गर्भित शब्दक्रम का समानार्थक 

                    सहज बोध रूप लक्षित होता है।


अनुवाद के प्रकार

     (3. अनुवाद कितने प्रकार के होते हैं संक्षेप में परिचय दीजिये -

           उदाहरण देकर समझाइए।)

            अनुवाद कई प्रकार के होते हैं। प्रधानतः हम शाब्दिक अनुवाद, शब्द प्रति शब्द अनुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद, संकेतानुवाद, सूचनानुवाद, परक्षानुवाद और सारानुवाद भेदों को पहचान, सकते हैं। इनका विस्तृत परिचय निम्नलिखित प्रकार हैं

      1. शाब्दिक अनुवाद:

                 इसे अंग्रेजी में "Literal Translation" कहते हैं। साधारण अभिधामूलक शब्दों के लिए और इस प्रकार से निर्मित वाक्यों के लिए, खासकर सरल वाक्यों के लिए इस अनुवाद की उपादेयता असंदिग्ध है। उदाहरण के लिए "मैं लडका हूँ" वाक्य को ले सकते हैं। जिसका अंग्रेजी अनुवाद "। am a boy"। इसी को तमिल भाषा में जब अनूदित करते हैं तो उसका रूप "नान ओरु पैयन" होता है। अनुवाद के इन दो उदाहरणों में विशेषता यह है कि अंग्रेजी में एक शब्द "ए" जोडा गया है जबकि तमिल भाषा में क्रियापद का लोप है। पर दोनों अनुवाद स्रोत भाषा के तात्पर्य को ही अविकल वाक्य रूप में प्रस्तुत करते हैं। शाब्दिक अनुवाद में यथा साध्य मूल पाठ का अनुगमन किया जाता है। . प्रत्येक शब्द, वाक्यांश, शब्दांश आदि का वाक्य स्थिति में जो विशेषता है, उसपर ध्यान दिया जाता है। किसी भी शब्द की उपेक्षा नहीं की जाती है। जहां नियम आदि को अनूदित करके प्रस्तुत करने का क्रम चलता है वहां इस प्रकार के अनुवाद उपयोगी होते हैं। इस अनुवाद में कुछ न्यूनताएं भी हैं। यह कभी-कभी अभिधामूलक अभिव्यक्ति में भी असमर्थ हो जाता है उदाहरण के लिए "No admission without written permission" को हम हिन्दी में प्रस्तुत करेंगे तो "लिखित अनुमति के बिना प्रवेश नहीं है" कहना होगा, जिसमें प्रवेश के अनुपलब्ध होने का संकेत अभिधा से लक्षणा में आ जाती है। अतः अन्य भाषाभाषी द्वारा अर्थ के वित्त रूप में समझने की संभावना रह जाती है। साहित्य के संदर्भ में शाब्दिक अनुवाद अक्सर असफल ही हो जाता है और अनूदित सामग्री में कृत्रिमता आ जाती है। शाब्दिक अनुवाद लक्ष्य भाषा की गरिमा पर भी स्थित है। चीनी जैसी भाषाओं में शाब्दिक अनुवाद का रूप अक्सर विकल्प बोधक हो जाता है। इसलिए चीनी भाषा में अनुवाद करते समय कभी-कभी चीनी की ही समध्वनि मूलक शब्दों को अपनाकर इस कमी की पूर्ति की जाती है।

   2. भाबानुवावः-

         मूल भाषा में सामग्री प्रस्तुत की जाती है। वह सामग्री काफ़ी जटिल है। 

        जैसे निम्नलिखित सामग्री।

        "एतद्वारा सर्वसंबंधित सज्जनों को सूचित किया जाता है (देवियों भी सम्मिलित है) कि पूर्वनिर्धारित नियमों के अविकल अनुपालनकर्ता को सापेक्षिक रूप में उत्तमता का क्रम प्रदान करके उन्हें पुरस्कारार्ह माना जाएगा। "

          इन पंक्तियों में जो तात्पर्य निहित है वह सहजबोध नहीं है। ऐसे असंख्य उदाहरण हमारे सामने नियमों के रूप में, निर्देशों के रूप में, अथवा विधि निषेधों के रूप में आते रहते हैं। इनमें शब्द रचना, वाक्य विन्यास आदि से संबंधित जटिलताएं हैं, समस्त पदों का प्रयोग है, अर्थ कभी-कभी खींचातानी में बेजान पड़ जाते हैं, ऐसे विषयों का भावानुवाद ही उचित हैं। इसमें मन भाव को ग्रहण कर लिया जाता है और उसको स्रोत भाषा से इतर शब्द शैली में, लक्ष्य भाषा के अनुकूल सप्राणता के साथ प्रस्तुत दिया जाता है। अनुवादक को इसमें काफी आजादी रहती है। अक्सर सार्वजनिक मंचों में विद्वानों के या राजनैतिक नेताओं के भाषणों का अनुवाद करना पड़ता और रफतार को भी बनाए रखना पडता है। तब भावानुवाद का आश्रय अक्सर लिया जाता है। भाव और अनुवाद इन दोनों शब्दों के योग से हम जान सकते हैं कि यह सशरीर त्रिशंकुस्थापन नहीं, बल्कि प्राणमात्र का आरोहण हैं। यहां अनुवादक की व्याख्या भी सम्मिलित हो सकती है और "अनुवाद" शब्द का शब्दार्थ भी स्थापित हो सकता है।

            साहित्य में अक्सर भावानुवाद का आश्रय लिया जाता है। वाल्मीकि रामायण के आधार पर कम्बन ने जब अपनी रामायण प्रस्तुत की तो सभी वर्ण विषयों को तो ले लिया, पर स्थान विशेषों को भी ले लिया, प भूमिका के मूल में बाधा पहुचाए विना भावानुवाद द्वारा प्रस्तुत किया। उमर खैयाम की रुबाइयों का "फिटनेराल्ड" द्वारा अंग्रेजी में अनुवाद का फिटभेराल्डा के अनुताद का हरिवंशराय बचन द्वारा हिन्दी में अनुवाद आदि भावानुवाद के पुष्ट प्रमाण हैं। 

          3. छायानुवादः

           कभी-कभी अनुवाद का विषय इतना स्थानीय और जटिल होता है कि उसका स्वरूप लक्ष्य भाषा में शब्दानुवाद या भावानुवाद में उभरेगा नहीं। उदाहरण के लिए राबर्ट लडलुम के लिखे हुए "The apocalyptic watch नामक उपन्यास से इन पंक्तियों को ले सकते हैं।

            It was all merdie! Monluc was a turn coat a coward and a traitor. He gave lip service to the arrogant fed him insignificant intelligence and lined his own pockets with Nazi Gold and art objects worth millions. And then in the aftermath, le grand charfes in euphoric adulation had pronounced Monluc un bel ami dequele a man to be honoured.

           इन पंक्तियों का केवल भावानुवाद किया जाता है। यहाँ दो फ्रेंच भाषा के पदबंध और अनेक अंग्रेजी मुहावरे आदि हैं जो छायानुवाद में ही ठीक उतरेंगे। अनुवाद होगा

           "मानलूक एक गद्दार था, लोभी था। साथी की सूरत दुश्मन और डी. गाल ने उन्हें पहचाना नहीं, उल्टे उसे देश प्रेमी का ओहदा दे दिया।"

             इस प्रकार के अनुवाद में यह छूट रहती है कि कुछ पदबन्धों की जो अश्लील है या अबूझ हैं छोड़ दिया सकता है। अनुवाद मुख्य भाव को लेकर अपनी पद रचना का क्रम शुरु करता है। स्रोत भाषा के जटिल पाठ में कभी कभी जो अनूठा-सा रहता है, जिसे लक्ष्य भाषा पकड नहीं पाती है, छायानुवाद में उसको अवान्तर रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उदाहरण के लिए गालिब के इस शेर का हम अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहेंगे तो छायानुवाद पद्धति को ही अपनाना पड़ेगा।

                         "आह को चाहिये इक उम असर होने तक

                          कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक।

                डा. भोलानाथ तिवारी कहते हैं - "छायानुवाद ऐसे अनुवाद को कहा आना चाहिये जो शब्दानुवाद की तरह मूल के शब्दों का अनुकरण न करे अपितु दोनों दृष्टियों से गूल होकर उनकी छाया लेकर चलें"

         4. संकेतानुबादः

                इस प्रकार के अनुवाद का उद्देश्य विशेषकर संसद आदि में तथा सार्वजनिक सभाओं में होता है। जहां संसद में कोई वक्ता किसी पूर्व वक्ता के स्रोत भाषा में कथित विषय का उल्लेख अपनी भाषा में अववा लक्ष्य भाषा में करते हैं, तो वहां मात्र कथ्य का सकेत किया जाता है। उदाहरण के लिए हम भारतीय में हेच. वी. कामत" द्वारा कृत एक भाषण का अंश यहां देकर उसका संकेत द्वारा सेठ गोविंद दास ने किस प्रकार अभिव्यक्तः किया, यह बता सकते हैं। हेच, वी. कामत ने लिखा,

                Sir, the economic policy is being diluted and superficial restrictions are being made without relevance to the traditional sentiments of the people. The gold control order may be welcome in a partial way but one cannot deny that it has released a chain of distrust signals

               गोविंददास जी ने इसका संकेतानुवाद दोहराते हुए कहा, "मान्य सदस्य के अनुसार स्वर्ण नियंत्रण आदेश खतरे की घण्टी है, मगर मैं कहूंगा कि इससे पूरी आर्थिक व्यवस्था बाधित हो सकती है।"

                एक दूसरा उदाहरण संकेत अनुवाद का यहां दिया जा सकता है 1969 जब राष्ट्रपति निक्सन चीन गये तो वहां बीजिंग में आयोजित सार्वजनिक स्वागत समारोह में उन्होंने एक अंग्रेजी चुटकुला सुनाया। चुटकुला करीब दो सौ शब्दों का था। अनुवादक ने चीनी भाषा में चार पांच शब्द कहे जोर पूरा दर्शकवृंद ठहाका मारकर हंसने लगा। निक्सन ने अनुवादक से पूछा आपने किस तरह चंद शब्दों में इस बड़े चुटकुले को बता दिया। तब अनुवादक ने झेपते हुए कहा, अजी मैंने दर्शकों से इतना ही कहा कि राष्ट्रपति महोदय ने एक चुटकुला सुनाया है, आप सब जोर से हंसिए

                इस तरह हम देखते हैं संकेतानुवाद में मात्र विषय का संकेत होता है और अनुवाद का प्रभाव इस तरह पारवर्तित होता है।

            5. सूचना अनुवादः-

                 यह अनुवाद एक प्रकार से भावानुवाद के समान ही है इसका प्रयोग विशेषकर इश्तहारों में, सूचनाओं में और नामपट्टों में किया जाता है। उदाहरण के लिए कोई डाक्टर है जिसके नाम के साथ एफ ऊआर सो. एम. जुड़ा हुआ है, इसका अनुवाद करते हुए आप कई जगह नामपट्ट देख सकते हैं, एफ. आर. सी. एस. (विलायती डिग्री) सूचना अनुवाद का प्रत्यक्ष प्रयोजन अधिक है। जहां रास्तों पर यातायात सिग्नल लगे रहते हैं, विशेषकर यह स्थिति योरोप के देशों में देखी जा सकती है। एक भाषा में पूरा पाठ लिखा रहता है और चार पांच भाषाओं में उसका संकेत मात्र रहता है, जिससे चित्रों के सहित अनुवाद का कार्य पूरा हो जाता है।

           6. परोक्ष अनुवादः

            यह भी एक प्रकार से भावानुवाद के समान ही है। मगर इसमें व्याकरण के नियमों के कारण उत्पन्न होनेवाली जटिलताओं को पार किया जाता है। उदाहरण के लिए कई भाषाओं में direct speech और ndirec speech का भेद नहीं रहता है। जब इनमें अनुवाद प्रस्तुत करना पडता है तो परोक्ष कथनों का ही आश्रय लेना पड़ता है। यह स्थिति चीनी भाषा और अन्य भाषाओं के संदर्भ में विशेष रूप में उल्लेखनीय है। Ernest Bramah' नामक अंग्रेजी लेखक ने अपने 'Kai lung Unrolls his Mat' में चीनी भाषा के अंग्रजी में प्रस्तुत अपरोक्ष अनुवादों के कई नमूने पेश किये हैं।

         7. सारानुबादः

              यह छायानुवाद के समान ही है। जहां लबे वाक्य होते हैं और विशेषणों के अनेक खण्ड होते हैं जैसे बाणभट्ट कृत कादंबरी में हम देखते हैं, वहा अनेक दिशेषणों को समाविष्ट करके एक रूप में उसका सार प्रस्तुत किया जा सकता है। जटिल और क्लिष्ट वाक्य रचना में इस प्रकार की प्रक्रिया आवश्यक हो जाती है।

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