******* रस *******
काव्य "स-रस" अर्थात रस से युक्त होना चाहिए । जब कविता में ऐसे तथ्य हों जिनके कारण सहदय पाठक के मन में विशेष प्रकार का आनन्द उमडने लगता है, तब वह सरस समझी जाती है । उसे पढ़ने पर हृदय की गति तीव्र हो जाती है, मन एकाग्र हो जाता है, आँखें छलछला आती हैं, देह में रोमाँच हो आता है एवं वाणी गद्गद् हो जाती है। वह अपने को भूल -सा जाता है । किसी काव्य में किसी युद्ध का सजीव वर्णन पढ़ या सुनकर हृदय में उत्साह वीरता आदि का संचार होने लगता है। किसी की करुणा-कथा कविताबद्ध पढ़ या सुनकर हृदय में दया का श्रोत उमड़ पड़ता है । इससे सहदयी को अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है ।
इस प्रकार कविता पढ़ने या सुनने और नाटक देखने से पाठक, श्रोता व दर्शक को, जो असाधारण, अलौकिक सुख मिलता है और जिसको शब्दों द्वारा पूर्णतया व्यक्त नहीं किया जा सकता, वही काव्य में रस कहलाता है ।
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रस के चार प्रमुख अंग होते हैं :-
1. स्थायी भाव 2. संचारी भाव
3. विभाव 4. अनुभाव
1. स्थायी भाव :-
मानव हृदय के जो मूल भाव स्थायी रूप से चित्त में स्थिर रहते हैं और कभी भी विरोधी भाव इसे छिपा नहीं सकता, यही स्थायी भाव कहलाता है । इसकी संख्या 9 है। (जिसके मन में स्थायी-भाव पैदा होता, वह आश्रय कहलाता है।
1. रति 2. हास 3. शोक
4. उत्साह 5. क्रोध 6. भय
7. जुगुप्सा 8. विस्मय 9. निर्वेद
2. संचारी भाव या व्यभिचारी भाव :-
मानव के हृदय में कुछ ऐसे भाव हैं, जो सदा स्थिर भाव से रहते हैं-इन्हीं को स्थायीभाव कहते हैं । किन्तु कुछ ऐसे भी भाव होते हैं जो अल्प समय में ही उत्पन्न होकर अचानक विलीन हो जाते हैं। ये संचारी भाव कहलाते हैं । ये स्थायीभाव को पुष्ट करने के लिए उत्पन्न होते हैं और पानी की बुदबुद की तरह उत्पन्न होकर विलीन हो जाते हैं ।
शेर को देखकर युवक के मन में पैदा होनेवाली शंका, चित का प्राम, घबराहट आदि भावनाएँ संचारी भाव हैं। ये संचारी भाव 3 माने जाते हैं । वे हैं।-
1. निवेद (उदासीनता) 2. आवेग 3. वैन्य
4. श्रम 5. मद 6. जड़ता
7. उग्रता ৪. मोह 9. शंका
10. चिता 11.ग्लानि 12.विषादः
13. ज्याधि 14. आलस्य 15. अमर्ष
16. हर्ष 17. गर्व 18. असूया (ईर्ष्या)
19.धृति 20. मति 21. चापल्य
22. ब्रीड़ा 23. अवहित्य (छिपाव) 24. निद्रा
25. सुप्त 26. विबोध (जागरण) 27. उन्माद
28. अपस्मार 29. स्मृति 30. औत्सुक्य
31.त्रास 32. वितर्क 33. मरण
रसों के आधार भाव हैं। मानव-हृदय में जो भाव स्थायी रूप से विद्यान रहते है उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। ये 9 हैं। स्थायी भाव की परिपक्व अवस्था ही रस है। अतः रस भी 9 है। इनके नाम ये हैं :-
स्थायी भाव रस का नाम
1. रति (प्रेम) श्रृंगार (संभोग और वियोग)
2. हास हास्य
3. शोक करुणा
4. क्रोध रौद्र
5. उत्साह वीर
6. भय भयानक
7. घृणा (जुगुप्सा) बीभत्स
8. विस्मय (आश्चर्य) अद्भुत
9. निर्वेद (वैराग्य) शान्त
3. विभाव :-
जिनके कारण किसीके मन में स्थायी भाव जागृत होते हैं, उन्हें विभाव कहते हैं। इसके दो भेद हैं :-
1. आलम्बन विभाव 2. उद्दीपन विभाव
आलम्बन विभाव :
जिनका आलम्बन (सहारा) लेकर मन में स्थायीभाव जागृत होते हैं उन्हें आलम्बन विभाव कहते हैं । ह
उदाहरण :-
सुनसान जंगल में किसी भयंकर शेर को देखकर युवक डर गया । यहाँ स्थायी भाव "भय' को जागृत करनेवाला भयंकर शेर आलंबन है । जिस युवक के मन में "भय" की भावना जागृत हुई वह "आश्रय" कहलाता है । उद्दीपन विभाव :-
जो उपकरण, वस्तुएँ या वातावरण स्थायी भाव को और भी उद्दीप्त (तीव्र) करते हैं उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं। ऊपर्युक्त उदाहरण में सुनसान जंगल, शेर का गर्जन आदि युवक के भय को और भी तीव्र करनेवाली बातें हैं जिन्हें उद्दीपन कहते हैं ।
पुष्प-वाटिका में सीता को देखकर राम के हृदय में प्रेम भाव उत्पन्न हुआ । इस संदर्भ में राम आश्रय, सीता आलंबन और वाटिका उद्दीपन हैं ।
4. अनुभाव :-
भाव जागृत होने पर भाव विभोर होकर सक्रिय रूप में आश्रय जो शारीरिक चेष्टाएँ करता है, वे ही अनुभाव कहलाती हैं। ऊपर्युक्त उदाहरण में शेर को देखकर युवक का काँपना, उसके मुख का रंग उड जाना, प्राण बचाने भाग निकलना आदि चेष्टाएँ अनुभाव हैं। ये दो प्रकार के होते हैं
1. सात्विक भाव 2. हाव
जो शारीरिक चेष्टाएँ स्वभाविक रूप से अपने आप उत्पन्न हो जाती हैं, उन्हें सात्विक भाव कहते हैं ।
ये गणना में आठ हैं -
1. रोमांच 2. कंप 3. स्वेद 4. स्वरभंग
5. अश्रु 6. वैवर्ण्य 7 . स्तंभ 8. प्रलय (चेतना-शून्यता)
जिन चेष्टाओं के पीछे प्रयत्न छिपा रहता है, उन्हें हाव कहते हैं, जैसे कटाक्षपात, हाथ से इशारे करना, कूदना, झपटना आदि ।
रस के प्रकार
1. श्रृंगार-रस
काम के अंकुरित होने को "श्रृंगार" कहते हैं, इसी से प्रेम भाव से युक्त रस श्रृंगार कहलाता है। यह भाव सृष्टि में सबसे अधिक व्यापक है । प्रेमी-प्रेमिका का मिलना, बिछड़ना आदि का वर्णन इसमें होता है मानसिक भाव के मूल आधार सुख और दुख है। मिलन में सुख और विरह में दुख का वर्णन इस रस में होता है। साथ ही इस रस में दो विपरीत भावों का भी वर्णन होता है जो इस रस की सबसे बड़ी विशेषता है। इसी से यह "रसराज" भी कहा जाता है । इसके दो पक्ष है- संयोग और विप्रलंभ । संयोग में दर्शन, मिलन, वार्तालाप और स्पर्श आदि का वर्णन रहता है । विप्रलंभ वियोग को कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है पूर्वराग, मान और प्रवास । प्रेमी-प्रेमिका की वास्तविक भेंट से पूर्वचित्र-दर्शन अथवा गुण-श्रवण से उत्पन्न प्रेम पूर्वराग कहलाता है। नायिका का रूठना मान के अन्तर्गत आता है । मिलन के उपरान्त विदेश-गमन को प्रवास कहते हैं। इसके अतिरिक्त नायक-नायिका का मिलन यदि सदा के लिए असंभव हो जाय, तो उसे 'करु विप्रलंभ' कहेंगे।
स्थाई - प्रेमपात्र-नायक या नायिका
उद्दीपन विभाव - नायक या नायिका की वेशभूषा, विभिन्न चेष्टाएँ,
वसंत ऋतु, सुन्दर प्राकृतिक दृश्य, चंद्र, चाँदनी आदि ।
अनुभाव - मुख का खिलना, मुस्कुराना, एकटक देखना, हावभाव,
अनुरागपूर्ण आलाप, भृकुटि भंग, कटाक्ष आदि ।
संचारी भाव - प्रायः सभी संचारी इसके अन्तर्गत आ जाते हैं ।
संयोग श्रृंगार का उदाहरण :
चितवत चकित चहँ दिसि सीता । कहैं गये नृप किसोर मन चिता ॥
लता ओट तब सेक्विन लखाये । स्यामल गौर किसोर मुहाये ।।
देखि रूप लोचन ललचाने । हरषे जनु निज निधि पहचाने ।।
यहाँ आशय सीता, आवेदन राम और उद्दीपन लता मण्डप है। "लखाये" अनुभाव है । "सुहाये, लोचन ललचाने, हरपे" आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से पुष्ट होकर संयोग श्रृंगार का रस पूर्ण हुआ है ।
वियोग श्रृंगार का उदाहरण :-
1. शान्ति स्थान महान करव मुनि के पुष्याश्रमोद्यान में,
बाह्यज्ञान विहीन लीन अति ही दुष्यन्त के ध्यान में ।
बैठी मौन शकुन्तला सहज थी सौन्दर्य से सोहती,
मानो हो कह चित्र में खचित-सी थी चित को मोहती।
यहाँ आश्रय शकुंतला, आलंबन दुष्यंत, उद्दीपन शान्त तपोवन और दुष्यंत का ध्यान है । "बैठी मौन" अनुभाव है । "बाह्य ज्ञान विहीन, लीन अति, सोहती" आदि संचारी भाव, है।
2. भूषन-बसन बिलोकत विस के ।
प्रेम-बिबस मन, कंप पुलक तनु, नीरज-नयन नीर भरे पिय के ।
सकुचत कहत, सुमिरि उर उमगत, सीले सनेह सुगुन-गन तिय के ।
2. हास्य रस
विचित्र रूप, वेश, वाणी, आकार, कार्य आदि को देखकर जो हास का भाव हृदय में उत्पन्न होता है, वही हास्य-रस की अभिव्यक्ति करता है इसमें सामान्य मुस्कुराहट से जोरों का उटाका तक के विभिन्न रूप होते हैं । उचित सीमा के बाहर का हास्य अतिव्यथा का कारण हो सकता है ।
आचार्यों ने हास्य के छः भेद माने हैं:- स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, अतिहसित और अपहसित ।
नेत्रों के विकास के साथ मंद मुस्कान को स्मित कहते हैं । हसित में कुछ दाँत भी दिखलाई पड़ जाते हैं। दाँत दिखाई पड़ने के साथ मधुर ध्वनि भी हो, तो विहसित कहलाता है । विहसित के साथ कंधे, सिर आदि के हिलने से हास्य, अवहसित की संज्ञा ग्रहण करता है। यह हँसते-हँसते आखों में पानी आ जाय, तो वह अपहसित होगा। जिसमें जोर की हँसी के साथ इधर-उधर हाथ-पैर भी पटके जायें वह अतिहसित अथवा अट्टहास कहा जाएगा।
उत्तम पुरुषों में स्मित और हसित होते हैं, मध्यम श्रेणी के लोगों में विहसित और अवहसित तथा निम्न पुरुषों में अपहसित और अतिहसित होते हैं ।
हास्य रस में आलंबन के वर्णन से ही रसानुभूति हो जाती है । आश्रय का वर्णन प्रायः नहीं होता।
स्थायी भाव हास
आलंबन विचित्र वेश-भूषा आदि
उद्दीपन आलंबन की चेष्टाएँ
आश्रय पाठक, श्रोता या दर्शक
अनुभाव मुख फेरना, व्यंग्य वाक्य कहना, होंठ और
नासिका का फडकना, नेत्रों का पुलकित होना आदि ।
संचारी अश्रु, रोमांच, कम्प, हर्ष, आलस्य, निद्रा,अवहित्था आदि ।
उदा :-
1. विन्ध्य के वासी उदासी तपोव्रत धारी महा बिनु नारि दुखारे ।
गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनि वृंद सुखारे ।।
हुवै हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे ।
क्रिन्हीं भलि रघुनायक जू करुना करि कानन को पगु धारे ॥
उपर्युक्त उदाहरण में स्थायी भाव हास के आलंबन मुनिगण हैं । रामचन्द्र द्वारा गौतम की नारी (अहल्या) के उद्धार का स्मरण उद्दीपन तथा मुक्ति की कथा सुनकर सुखी होना, चन्द्रमुखी हो जाने के बारे में सोचना अनुभाव हैं। हर्ष, रोमांच आदि संचारी भाव हैं।
2. था गरमी का मौसम यहाँ जोर पर,
तो करना पड़ा एक लम्बा सफर ।
गया रेल पर तो नजारा वहाँ,
जो देखा तो तबियत भी सहमी वहाँ ।
मगर एक "इंटर" में देखा तो एक,
चढ़ा कोई साहब का रच करके भेख
बदन पर भी "पालिश"वो जापान की,
"औ" पतलून "गुदड़ी के बाजार" की ।
शक्ल और सूरत की क्या बात थी,
उसे देख भैसे की माँ मात थी ।
3. करुण रस
प्रिय वस्तु अथवा इष्ट वस्तु के नष्ट हो जाने से या प्रिय व्यक्ति के मर जाने से हृदय में उत्पन्न विषाद का भा व करुण रस की व्यंजना कराता है ।
शोक मन को गहराई से छूता है इसलिए कुछ विद्वानों ने करुण रस को भी बहुत महत्व प्रदान किया। कवियों में भवभूति इसके व्यापक प्रभाव से परिचित थे । करुणा का समावेश विप्रलंभ श्रृंगार में भी होता है। पर दोनों में अन्तर यह है कि वियोग श्रृंगार में प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से दूर रहने पर भी मिलने की संभावना बनी रहती है, जबकि करुण में मृत्यु होने से मिलने की आशा नष्ट हो जाती है ।
स्थायी भाव शोक
आलंबन प्रिय वस्तु या व्यक्ति का नाश, मृत्यु या लाश ।
उद्दीपन मृत शरीर, प्रिय व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् होनेवाली दाह क्रिया, उसके गुणों का स्मरण ।
अनुभाव छाती पीटना, पछाड खाना, अच्छा, रुदन, विलाप आदि ।
संचारी भाव मोह, विषाद, जड़ता, उन्माद, निर्वेद ।
उदा :-
1. पोछ निज नेत्र-नीर अंचल के पट से
जीजी गई उसके समीप उठ झठ से
और पुचकार जानकी को गोद में उठा लिया ।
एकाएक अरधी पर, माँ को पड़ी देखकर जीजी की गोद से कूद पड़ने के लिए,
करके करुण रोर रोना रोकर लगाकर जोर पूछा, "जाते हैं कहाँ वे अरे माँ को लिये ?"
जानकी आश्रय है और उसकी माँ का शव आलंबन है अर्थी और का नेत्र-नीर आदि उद्दीपन हैं । गोद से कूद पडना अनुभाव है । "माँ को कहाँ ले जाते हैं" पूछने में भय संचारी भाव है।
2. तरुण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय-सिंधु-लहरों का, होता था सकरुण अवसान ।
4. रौद्र रस
अपना अनिष्ट या अमान होने के कारण उत्पन्न क्रोध से रौद्र-रस की व्यंजना होती है । किसी अन्यायी, अत्याचारी या अनिष्टकारी के वचनों और चेष्टाओं से इसका अनुभव होने लगता है।
स्थायी भाव क्रोध
आश्रय क्रोधित व्यक्ति
आलंबन (विभाव) अनिष्टकारक शत्रु
उद्दीपन (विभाव) शत्रु के किये हुए अपराध, उसकी चेष्टाएँ, गर्वाक्तियाँ आदि ।
अनुभाव नेत्रों का लाल होना, दाँतों से होंठों को चबाना,
संचारी भाव कठोर भाषण, शस्त्र उठाना, गर्जन, आवेग आदि ।
अमर्ष, स्मृति, मोह उग्रता, चपलता, गर्व आदि ।
उदा :-
1. उबल उठा शोणित अंगों का, पुतली में उतरी लाली ।
काली स्वयं बनी वह बाला, अलक-अलक विषधर काली ।
बढकर तन के रोम रोम में, धधक उठी दृग की ज्वाला ।
अंगारों में फूट पड़ी यों, उसके रग-रग की ज्वाला ।
उपर्युक्त उदाहरण में स्थायीभाव क्रोध के आलंबन अलाउद्दीन खिलजी है तथा आश्रय पद्मिनी है । अलाउद्दीन द्वारा भेजा गया संदेश उद्दीपन है। नेत्रों का लाल होना, रोम-रोम में ज्वाला धधक उठना आदि अनुभाव है। चापल्य, अमर्ष आदि संचारी भाव इस रस को पुष्ट करते हैं ।
2. जोधपुर नरेश विजयसिंह ने अपने सरदार देवीसिंह से भरे दरबार में पूछा कि यदि कोई मुझपर बिगड जाय तो तुम क्या करोगे ? उसने कहा कि वह मेरे हाथों मारा जाएगा । फिर भी राजा ने पूछा, यदि तुम्हीं मुझपर बिगड जाते तो ? तब देविसिंह की प्रतिक्रिया का वर्णन देखिए :-
वृद्ध वीर ठाकुर को क्रोध कुछ आ गया,
लाली दौड़ आई सौम्य शान्त गोर गात्र में
"जोधपुर की तो फिर बात ही क्या ?
वह तो रहता है मेरी फटाटी की पर्तली में ही ।"
5. वीर रस
शत्रु का उत्कर्ष, उसकी ललकार, दीनों की दशा, देश, जाति, धर्म की दुर्दशा आदि को मिटाने के लिए किसी के हृदय में जो उत्साह पैदा होता है और क्रियाशील भी हो जाता है, उसी के वर्णन से पाठक या श्रोता में वीर रस का स्रोत उमड पडता है ।
रसों में श्रृंगार के उपरान्त वीर रस का महत्व अधिक होता है। प्रबंध काव्यों में युद्ध के वर्णनों की भरमार-सी पायी जाती है । लेकिन वीर रस युद्ध तक ही सीमित नहीं है, उसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। वीर चार प्रकार के माने जाते हैं युद्धवीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर । काव्य में युद्ध वीर की ही प्रधानता है। कुछ लोग सत्यवीर और कर्म वीर की भी कल्पना अलग करते हैं इस प्रकार वीर रस के कई प्रकार हो सकते हैं।
स्थायी भाव उत्साह
आश्रय उत्साहित व्यक्ति
आलंबन विभाव वह परिस्थिति या व्यक्ति जिसका सामना करना पडता है ।
उद्दीपन विभाव आलंबन के कार्य-कलाप, चारण गीत, दानपत्र की प्रशंसा आदि ।
अनुभाव वीर की युद्ध क्रिया, गर्वोक्ति, याचक का आदर सत्कार आदि ।
संचारी भाव हर्ष, उग्रता, गर्व आदि ।
उदा:
1. मैं सत्य कहता हूँ सखे सुकुमार मत जानो मुझे ।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे ।।
है और की तो बात क्या, गर्व में करता नहीं ।
मामा तथा निज तात से भी युद्ध में डरता नहीं ।।
चक्र व्यूह को बेधने के लिए निकलनेवाले अभिमन्यु की इस उक्ति में वीर रस छलकता है । वह सारथी से कहता है कि वह यमराज से ही नहीं मामा श्री कृष्ण और तात से लड़ने के लिए भी तैयार है, इसलिए उसे सुकुमार न समझना चाहिए। आश्रय अभिमन्य है और आलंबन सारथी के । सारथी का यह कहना कि "तुम सुकुमार हो, युद्ध के लिए उचित नहीं हो' उद्दीपन है यमराज, मामा और तात से भी युद्ध के लिए तैयार रहना अनुभाव है गर्वोक्ति में गर्व, और चपलता संचारी भाव है ।
2. लिखा रहे जगती- तल में वह सत्याग्रह का साका
हाथों में हथियार न थे हाँ, थी बस यही पताका
रोक न सका इसे बढ़ने से लोहे का नाका
चौंक चमत्कृत अखिल विश्व ने नया तर्क-सा ताका
वह नरता ही क्या बर्बरता जिसके आगे ठहरे ।
6. भयानक रस
भयप्रद दृश्य को देखने, सुनने, स्मरण करने से उत्पन्न भय भयानक-रस की व्यंजना कराता है । किसी डरावने जन्तु के देखने, घोर अपराध के लिए दण्ड पाने की कल्पना, शक्तिशाली विरोधी से काम पडने आदि से उत्पन्न मन की व्याकुलता से यह भावना पैदा होती है ।
स्थायी भाव भय
आश्रय भयभीत व्यक्ति
आलंबन विभाव भयप्रद जीव, वस्तु, दृश्य आदि ।
उदीपन विभाव दृश्य की भीषणता को बढानेवाले व्यापार ।
अनुभाव स्वेद, कम्प, रोमांच, विवर्ण्य, पलायन, मूर्छा आदि ।
संचारी भाव सम्भ्रम, आवेग, शंका, चिन्ता आदि ।
उदा:
1. आगि आगि आगि, भागि भागि चले जहाँ तहाँ,
धीय को न माय, बाप पूत न संभारहीं।
छूटे बार, बसन उघारे, धूम-धुंध अंध,
कहै बारे बूढ़े वारि"-"वारि" बार-बारहीं ।
लंका में हनुमान के द्वारा लगी आग के कारण लंकावासियों की व्याकुलता का वर्णन यहाँ हुआ है ।
2. लपट कराल ज्वाल जालमाल दहूँ दिसि,
घूम अकुलाने पहिचाने कौन काहि रे ।
पानी को लालत बिललात जरे गात जात,
परे पाइमाल जात भ्रात तू निवाहि रे ।
7. वीभत्स रस
रुधिर, अस्थि, माँस, मज्जा आदि घृणित वस्तुओं को देखने अथवा श्रवण करने से उत्पन्न घृणा वीभत्स-रस की व्यंजना कराती है। रोग से पीड़ित अंगों पर दृष्टि डालते समय घृणा उत्पन्न होती है । वीभत्स दृश्यों के अवलोकन से संसार की निस्सारता का आभास मिलता है, इससे विरक्ति की भावना पैदा होती है ।
स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा ।
आश्रय घृणित वस्तु का अवलोकन करनेवाला ।
आलंबन विभाव घृणित वस्तु, दृश्य या व्यक्ति
उद्दीपन विभाव दुर्गन्ध, संकोच, मुख मोडना आदि ।
अनुभाव कुरूपात, कीडे-मकोडे आदि ।
संचारी भाव आवेग, व्याधि, ग्लानि, अपस्मार, मोह आदि।
उदा:
1.सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत ।
खींचत जीभहि सियार अतिहि आनन्द उर धारत ।।
गिद्ध जाँप को खोदि-खोदि के मांस उचारत ।
स्वान आँगुरिन काटि-काटि के खात बिचारत ।
बहु चील नोचि लै गात तुच मोद भरयो सबको हियो ।।
मनु ब्रह्म-भोज जिजमान कोउ आज भिखारिन को दियो ॥
श्मशान के इस वर्णन में श्मशान का दृश्य आलंबन है। मृतको के अंगों को कोए, गिद्ध, कुत्ते आदि के द्वारा खाया जाना उद्दीपन है । स्वयं पाठक ही आश्रय है। अतः इसमें अनुभाव का वर्णन नहीं होता । इसी प्रकार संचारी भावों का भी वर्णन नहीं होता । यहाँ केवल विभाव आदि से जुगुप्सा स्थायीभाव की व्यंजना बीभत्स-रस में व्यक्त है ।
2. विविध रंग की उठति ज्वाल, दुर्गन्धनि महकति ।
कहूँ चरबी सौ चटपटाति, कहूँ दह दह दहकति ।
कहँ सृगाल कोउ मृतक-अंग पर घात लगावत ।
कहुँ कोउ सब पर बैठि गिद्ध चट चोंच चलावत ।।
8. अद्भुत रस
किसी असाधारण वस्तु को देखकर आश्चर्य के कारण हृदय में विशेष प्रकार का कौतूहल होता है । इसी आश्चर्य के भाव के वर्णन में अद्भुत रस का संचार होता है । चमत्कार को आचार्यों ने रस का सार कहा है। इसलिए वे अद्भुत रस को प्रमुखता देते हैं। प्रायः पाठक या श्रोता ही इस रस के आश्रय होते हैं । इसलिए इस रस में आश्रय के अनुभाव आदि की आवश्यकता नहीं होती । आलंबन का वर्णन ही पर्याप्त होता है।
स्थायी भाव विस्मय अथवा आश्चर्य
आलंबन विभाव अलौकिक वस्तु या दृश्य
उद्दीपन विभाव आलंबन की विस्मयकारी चेष्टाएँ
अनुभाव नेत्र विस्फारित होना, रोमांच होना, स्तंभित होना आदि ।
संचारी भाव चापल्य, हर्ष, औत्सुक्य, शंका, स्वेद आदि ।
उदा :-
1. नटवर । है अनुपम तव माया ।
सकल चराचर एक सूत्र में तूने बाँध नचाया ।
षट ऋतु सरस, सूर्य, शशि, तारे, भू, गिरि, विपिन बनाया ।
नीले नीले रुचिर गगन में कैसा रास रचाया !
इस कविता में ईश्वर की रची हुई सृष्टि आलंबन है उसके विविध पदार्थ जैसे ऋतु, सूर्य, चाँद, तारे आदि उद्दीपन हैं। इन्हें देखकर कवि के मन में आश्चर्य का भाव पैदा होता है इस प्रकार आलंबन और उद्दीपन का यह वर्णन मात्र अद्भुत रस का संचार करने में समर्थ हुआ ।
2. सभी रसायन हम करी, नहीं नाम सम कोय ।
रंचक घट में संचरै, सब तन कंचन होय ।।
9. शान्त रस
संसार की निरसारता को देखकर अथवा तत्वज्ञान से उत्पन्न निर्वेद या विरक्ति शान्त-सा की व्यंजना करता है । वस्तुओं की नश्वरता या क्षणभंगुरता तथा परमात्मा-तत्व का बोध होने से मन को ऐसा विश्राम मिलता है जो विविध सांसारिक सुख भोगों से नहीं मिलता । इसी मानसिक शान्ति का वर्णन पाठक या श्रोता के हृदय में शान्त रस की उद्भावना करता है
स्थायी भाव निर्वेद या सांसारिक विषयों में उदासीनता ।
आलंबन विभाव निस्सार संसार, शरीर, तीर्थाटन आदि ।
उद्दीपन विभाव संत वचन, आश्रम, एकान्त स्थान आदि ।
अनुभाव रोमांच, तल्लीनता, उदासीनता आदि ।
संचारी भाव मति, धृति, स्मृति, हर्ष आदि ।
उदा :-
1. मन पछितै है अक्सर बीते ।
दुर्लभ देह पाइ हरि-पद भ्ज्ञजु, करम बचन अरु ही ते ।
सहसबाहु दस-वदन आदि नृप गये न काल बली ते ।
हम हम कर धन-धाम संवारे अन्त चले उठि रीते ।
संसार की निस्सारता का वर्णन यहाँ पर हुआ है । सहस्रार्जुन, रावण आदि राजाओं तक के महावीर लोग काल से न बच पाये, यह आलंबन है । दुर्लभ नर- देह पाकर भी भगवत्-भजन में न लगना उद्दीपन है । स्वयं कवि यहाँ आश्रय है। उनका अपने मन को समझाना अनुभाव है । मति और विबोध संचारी भाव हैं ।
2. कौन जतन विनती करिये ।
निज आचरन विचारि हारि हिय मानि जानि डरिये ।
जेहि साधन हरि द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये ।
*हास्य रस*
हास्य रस का विषय हास्य है । किसी विचित्र रूप या चेष्ट को देखकर या कथन सुनकर पैदा होती है ।काव्य में मनोरंजन बढाने के लिए हास्य रस सहायक होता है ।
रस का नाम : हास्स
स्थायी भाव : हास(हँसी)
आलंबन विभाव : जिसको देखकर या बात सुनकर हँसी आना (विदूषक)
उद्दीपन विभाव : आलंपन की विचित्र चेष्टाएँ , विचित्र वेश , कथन या कोई अन्य विचित्रता आदी।
अनुभाव : मुस्काना , हँसना , लोटपोट हो जाना , आँसू आ जाना ।
प्रमुख संचारीभाव :हर्ष , चपलता , आलस्य ।
சுவை (நகைசுவை)
ரஸ்ஸின்பெயர்: நகைசுவை)
நிலையான உணர்வு: சிரிப்பு
புலனுணர்வு : எதையாவதுபார்க்கும் போது அல்லது கேட்கும்போது சிரிப்பது (கோமாளி)
உண்டாக்கும் உணர்வு: விசித்திரமான சைகைகள், விசித்திரமான உடைகள், சொற்கள் அல்லது வேறு ஏதேனும் விசித்திரமான பழக்கம்.
உண்டாகும்உணர்வு: புன்னகை, சிரிப்பு, வதந்திகள், கண்ணீர்.
முக்கிய ஊடுருவும் உணர்வு : மகிழ்ச்சி சபலம் சோம்பல்.
*उदाहरण:*
जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥1॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी।
पुनी पुनी मुनि उकसहिँ अकुलाहिं , देखि दश हर गन मुसकाहि।
(உலக அழகி சுயம்வரத்தில் மணமகனாக)
நாரதர் இதயத்தில் மிகுந்த பெருமையுடன், சமுதாயத்தில் (வரிசையில்) அமர்ந்தார், அவரின் இதய உணர்வு அதிகரித்தது அங்கே சிவனின் இரண்டு கணங்களும் அமர்ந்திருந்தன. நாரதர் பிராமணரின் மாறுவேடத்தில் இருந்ததால் அவரது தந்திரத்தை யாராலும் அறிய முடியவில்லை.
அவர் நாரதரிடம் கிண்டலான வார்த்தைகளைச் சொல்லியிருந்தார் - கடவுள் அவருக்கு நல்ல 'அழகை' அளித்துள்ளார். அவர்களின் அழகைப் பார்த்து, இளவரசி அவரை நேசிப்பார்கள் 'ஹரி' (குரங்குகள்) தெரிந்துகொள்வது குறிப்பாக சிறப்பு வாய்ந்தது.
आलंबन विभाव : नारद
उद्दीपन विभाव : उनकी बंदर की आकृति , राजकुमारीको आकृष्ट करने केलिए बार बार उठना।
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