तीसरा अध्याय
वाक्य-रचना
3. प्रयोग
वाक्यों की रचना में शब्दों का शुद्ध रूप, ठीक क्रम और मेल ही पर्याप्त नहीं, उपयुक्त शब्दों, शब्द-समूहों और प्रयोगों का जानना भी आवश्यक है। अर्थात् प्रकरण के अनुसार नाचते हुए शब्द हों। यथेष्ठ छोटे और बड़े शब्द-समह हों और मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हो तो रचना में सौन्दर्य और लालित्या आ जाना निश्चित है। व्याकरण पढ़ने का पूरा लाभ भी तभी है जब हमें सुन्दर और ललित भाषा लिखना आ जाये।
उपयुक्त शब्द प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों का शब्द-कोश विस्तृत होना चाहिए। साथ ही अर्थ की समानता होने पर भी दो शब्दों में जो सूक्ष्म अन्तर होता है, उसका ठीक ज्ञान होना चाहिए। इस ज्ञान के अभाव में विद्यार्थी बहुत अशुद्धियाँ करते हैं। अत: प्रयोग के लिए कुछ आवश्यक ज्ञातव्य बातें आगे दी जाती हैं।
(क) समानार्थक शब्दों में सूक्ष्म भेद
नीचे कुछ ऐसे शब्द दिये जाते हैं जो साधारणतया समनार्थक प्रतीत होते हैं पर वस्तुत: जिनके अर्थों में भेद है।
अभिमान, अहंकार-किसी बात में अपने को दूसरों से बड़ा समझने का भाव अभिमान है। गुण न होने पर भी अपने को उचित से अधिक महत्व देने का भाव अहंकार है। अभिमान दूसरों के प्रति होता है; अहंकार अपने अन्त:करण की वृत्ति है। जैसे-"जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।" अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।
श्रद्धा, भक्ति- बड़ों के प्रति उनके गुणों के कारण मन में उत्पन्न होने वाला आदर-भाव श्रद्धा है। ईश्वर या देवताओं में उत्पन्न अनुराग होना भक्ति है। जैसे महात्मा गाँधी के दर्शन करते ही श्रद्धा से सिर झुक जाता है। ईश्वरभक्ति ही से मीरा आदि भक्त स्त्रियाँ तर गई।
प्रेम, स्नेह, प्रणय, वात्सल्य-प्रेम साधारण तौर से प्रयुक्त होता है। भाई बहनों का आपस में और बड़ों का छोटों के प्रति जो प्रेम होता है उसे स्नेह कहते है। पति-पत्नी का प्रेम प्रणय तथा सन्तान के प्रति माता-पिता का प्रेम वात्सल्य कहाता है।
दुःख, कष्ट, खेद, क्षोभ, विषाद-दुःख मानसिक विकार है जिससे छुटकारा पाने की मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है। जैसे-पुत्र को दस साल की सख्त सजा मिली है, यह सुनते ही माता के दुःख की सीमा न रही। कष्ट शारीरिक या आर्थिक होता है। शिष्टाचार में भी कष्ट प्रयुक्त होता है; जैसे-मैं स्वयं हाजिर हो जाता आपने व्यर्थ ही आने का कष्ट किया। शोक चित्त की वह व्याकुलता है जो इष्ट के नाश के कारण होती है, जैसे किसी सम्बन्धी की मृत्यु पर 'राज्य गया, धन, जान-कुटुम्ब सब छूटा, उस पर भी यह दारुण पुत्र-शोक उपस्थित हुआ।' साधारण असमर्थता दिखाते हुए इसका प्रयोग न करना चाहिए। खेद वह दुःख है जो निराशा या असमर्थता के कारण उत्पन्न होता है । शिष्टाचार में इसका बहुत प्रयोग होता है जैसे-खेद से लिखना पड़ता है कि आपने अभी तक रुपये भेजने की कृपा नहीं की। खेद है कि मैं समय पर न पहुँच सका। क्षोभ वह दुःख है जो किसी चाही हुई वस्तु के न मिलने पर होता है। विषाद अत्यन्त दुःख की अवस्था है, जब मनुष्य को अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं रहता ।
दया, कृपा-दूसरों का दुःख देख कर जिस भाव से हृदय पिघल उठता है, उसे दया कहते हैं। जैसे-उसका विलाप सुन कर बड़ी दया आती थी। छोटों की सहायता करने की इच्छा को कृपा कहते हैं। इसका साधारण शिष्टाचार में बहुत प्रयोग होता है। जैसे-आपकी बड़ी कृपा है जो आपने दर्शन दिये। कृपा कर पत्रवाहक के हाथ पाँच रुपये भेज दीजिये।
मूर्ख, मूढ़, अनभिज्ञ-जिसमें समझने की शक्ति न हो वह मूर्ख या मूढ है। तेज बुद्धि होने पर भी जो किसी विषय विशेष से या बात से परिचित न हो वह उस विषय-विशेष से अनभिज्ञ कहा जायेगा जैसे-वह तो निरा मुर्ख हैं, उसको व्याकरण कौन पढायेगा? स्वामी दयानन्दजी वेदों के प्रकाण्ड पण्डित थे परन्तु अंग्रेजी से अनभिज्ञ थे। मैं यहाँ के रहन-सहन के तरीकों से अनभिज्ञ हूँ, अत: कोई भूल हो तो क्षमा करें।
अलौकिक, अस्वाभाविक- साधारण लोक-समाज की शक्ति से जो परे हो, वह अलौकिक है। जैसे-दशरथ का सत्य पालन, भीष्म की प्रतिज्ञा, महाराणा प्रताप का कष्ट-सहन, पाणिनी की विद्वता आदि। जो सृष्टि-नियम के विरुद्ध है वह अस्वाभाविक है। जैसे-कौवे और गीदड़ का वार्तालाप ।
स्त्री, पत्नी- स्त्री किसी भी स्त्री को कहा जा सकता है, पर पत्नी अपनी विवाहिता स्त्री को ही कहा जाता है।
सहोदर, भाई- .- सहोदर केवल उन्हीं भाइयों को कहा जायेगा जो एक ही माँ के बेटे हों, पर भाई साधारण शब्द है, वह सहोदर को भी कहा जा सकता है और सौतेले चचेरे भाइयों को भी।
बालक, पुत्र-प्रत्येक लड़के को बालक कहा जा सकता है, पर पुत्र केवल अपने लड़के को कहा जाता है।
पाप, अपराध-समाज व धर्म और नीति के नियमों का उल्लंघन पाप और राज्य-नियमों का उल्लंघन अपराध है। झूठ बोलना पाप है, फरार को आश्रय देना अपराध है।
भ्रम, प्रमाद-अज्ञान से जो चूक हो वह भ्रम और लापरवाही से जो चुक हो वह प्रमाद है। जैसे-मैं इसी भ्रम में रहा कि महात्माजी 14 तारीख को आने वाले हैं, मुझे पता होता कि वे आज आयेंगे तो मैं अवश्य स्टेशन पर पहुँचता। तुम्हें मैं सुबह ही बता गया था, 10 बजे मुकदमा शुरू होगा और तुम 11 बजे तक कचहरी न पहुँचे, तुम्हारे प्रमाद से हम मुकदमा हार गये।
अबला, निर्बला-स्त्री मात्र को अबला कहा जाता है चाहे वह कितनी ही बलवती क्यों न हो। ताड़का, हिडिबा, रानी दुर्गावती और रानी लक्ष्मीबाई को भी अबला कहा जायेगा। निर्बला केवल उसी अबला को कहा जायेगा जिसमें शारीरिक बल कम हो।
कर्म, काम-'काम' तत्सम भी है और तद्भव भी। तत्सम 'काम' का अर्थ है कामदेव' और तद्भव काम' कर्म का अपभ्रंश है। कर्म' के स्थान पर उसके तद्भव रूप 'काम' का प्रयोग होता है। निम्नलिखित अपवाद है-व्याकरण में कारक को कर्मकारक ही कहा जायेगा कामकारक नहीं। इसी प्रकार नित्यकर्म को नित्यकाम नहीं कहा जाता।
सेवा, सुश्रुषा-अपने से बड़े सम्बन्धियों या मालिक की परिचर्या सेवा है। दुःखी या रोगी मनुष्य की परिचर्या सुश्रूषा है बड़ों की सेवा से ही फल मिलता है। रोगी की सुश्रूषा दिल लगा कर करो।
देखना, दर्शन करना-साधारण तौर पर देखने को देखना कहते हैं। अपने से बड़ों से कार्यवश भेंट करने को दर्शन करना कहते हैं। शिष्टाचार में मिलने के स्थान पर दर्शन देना या करना कहा जाता है देवता के भी दर्शन किये जाते हैं। मैं आपके दर्शन करने को ही इधर आया था आज आपने किस तरह दर्शन देने की कृपा की। चलो महादेवजी के दर्शन कर आयें।
पितर, पिता-जन्म देने वाले को पिता कहते हैं, सभी भूत पूर्वजों (पिता, दादा, परदादा आदि) को पितर कहते हैं।
वंश, बाँस-'वंश' से कुल और बाँस दोनों का बोध हो सकता है, पर 'बाँस' से केवल बाँस का ही बोध होगा, कुल का नहीं।
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