Friday, March 19, 2021

भक्तिकाल / 'हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग'

 


                                         भक्तिकाल 

                                  'हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग' 


      हिन्दी काव्य विकास में भक्तिकाल का विशेष महत्व है। इसका समय संवत् 1375 कि. से संवत् 1700 वि. तक माना गया है। इस सुग में लोकमंगलकारी काव्य की रचना हुई। अतः इसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग' करते हैं।

       भक्तिकाल के उदय की परिस्थितियाँ 

       राजनीतिक दृष्टि से इस समय उत्तरी भारत में मुसलमानों का शासन स्थापित हो चुका था । हिन्दू राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार कर लौ थी। धर्म के आधार पर हिन्दू-मुसलमानों में सतत संघर्ष चल रहा था। जाति-पाति के बन्धन कठोर होते जा रहे थे। धर्म परिवर्तन के कारण एक ही परिवार के क लोग हिन्दू और कुछ मुसलमान हो जाते थे । शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के विरुद्ध अद्वैतवाद का प्रचार किया, जिसमें राम और कृष्ण की भक्ति पर विशेष बल दिया गया। भक्ति आन्दोलन का हिन्दी साहित्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा । अनेक कवियों ने अपने सिद्धान्तों तथा मतों का प्रतिपादन काव्य के माध्यम से किया। नहीं परिस्थितयों ने भक्त्तिकाल को जन्म दिया।।

      भक्ति धाराएँ-

       इस काल में निराकर एवं साकार ब्रह्म के आधार पर निर्गुण तथा सगुण भक्ति सम्बन्धी साहित्य की रचना हुई। निर्गुण भक्ति दो शाखाओं में बँट गई थी-

   (1) ज्ञानमार्गी शाखा इसके प्रमुख कवि कबीर हैं। 

   (2) प्रेममार्गी शाखा इसके प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। 

    सगुण भक्ति भी दो शाखाओं में विभक्त थी-

     1) रामभक्ति शाखा इसके प्रतिनिधि कवि तुलसीदास हैं।

      (2) कृष्णभक्ति शाखा- इसके श्रेष्ठ कवि सूरदास हैं।


भक्तिकालीन साहित्य की सामान्य विशेषताएँ

     (1) ईश्वर-स्मरण की महता

           इस काल के सभी कवियों ने माना कि परमात्मा की कृपा प्राप्त करने के लिए उनके नाम का स्मरण करना आवश्यक है।

    (2) गुरु की महत्ता-

          भक्तिकाल के सभी कवियों ने गुरु की महत्ता स्वीकार की है। गुरु को परमात्मा तक पहुंचने वाला एकमात्र माध्यम माना है। गुरु ही सच्चे ज्ञान के द्वारा शिष्य को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हैं।

    (3) भक्ति-भावना-

           इस काल के कवियों ने पीड़ित समाज को भगवान की भक्ति का मार्ग दिखाया। इस भक्ति के द्वारा निराश समाज में आशा की भावना जामत हुई। इस भक्ति में पवित्रता का विशेष महत्त्व है। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी आदि सभी की भक्ति अन्तकरण से निकलने वाली है, इसीलिए जन-जन के हृदय को प्रभावित करती है।

     (4) भारतीय संस्कृति की रक्षा

           भक्तिकालीन साहित्य में भारतीय संस्कृति का वास्तविक स्वरूप सुरक्षित है। इसमें धर्म, दर्शन, सभ्यता, आचार विचार आदि सभी का सुन्दर चित्रण हुआ है। यह काव्य भक्ति, जान तथा कर्म का समन्वित रूप है । भक्तिकाल का साहित्य मानवता की प्रेरणा देने वाला है।

     (5) लोक-कल्याण की भावना-

           भक्तिकाल के सभी कवियों के काव्य का लक्ष्य लोक-कल्याण का सृजन करना रहा है। कबीर एवं जायसी ने हिन्दू मुसलमान, धर्म तथा संस्कृति की एकता का प्रयास किया तो तुलसी एवं सूर ने शील, सत्य तथा सौन्दर्य का समन्वय करके जीवन के प्रति आशा का संचार किया। समाज में फैली हुई कुरीतियों तथा बुराइयों की सभी ने निन्दा की है।

     (6) प्रेम और सौन्दर्य का चित्रण-

          भक्तिकालीन साहित्य में मानव की सहज वृति प्रेम और सौन्दर्य का मार्मिक चित्रण हुआ है। इस वर्णन में सर्वत्र स्वाभाविकता दिखायी पड़ती है। प्रेम के लौकिक तथा अलौकिक दोनों रूपों का मनोहारी अंकन मिलता है। अवसर के अनुकूल मानव तथा प्रकृति का सौन्दर्य वर्णन इस काव्य में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

     (7) कला-पक्ष

          कला-पक्ष की दृष्टि से भी यह साहित्य उच्चकोटि का है। इस काल कवियों ने प्रबन्ध तथा मुक्तक दोनों शैलियों को अपनाया है। इस काव्य में विषय के अनुरूप भाषा, छन्द, अलंकार, गुण आदि का स्वाभाविक सौन्ट्र्य दर्शनीय है (8) स्वर्ण युग हम देखते हैं कि इस काल की कविता में विषय तथा कला का अद्भुत समन्वय हुआ है। भारत की निराश तथा दुःखी जनता को इन कवियों ने प्रभावित किया। इस काल का साहित्य लोक-कल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत है। अतः इसको स्वर्ण युग कहना सर्वथा उपयुक्त है। डॉ. श्यामसुन्दरदास ने ठीक लिखा है, "जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरण से देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चय ही यह युग हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग था।


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