Saturday, March 20, 2021

भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य का विकास

 


                                भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य का विकास 

          उत्तर सन् 1868 से 1903 तक के समय को भारतेन्दु युग कहा गया है भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी के लिए वरदान सिद्ध हुए। उनकी प्रतिभा का सहारा पाकर हिन्दी साहित्य समृद्ध हो उठा । भारतेन्दु जी ने स्वयं नाटक, निबंध आदि की तथा अनेक गद्यकारों को लिखने के लिए ओत्साहित किया। 

        भारतेन्दु युग में निबन्ध, नाटक, कहानी आदि सभी विधाओं में साहित्य सूजन हुआ। सामाजिक, धार्मिक राष्ट्रीय, राजनीतिक आदि सभी विषयों पर लिखा गया। इस काल के लेखकों का ध्यान हिन्दी साहित्य के भण्डार को भरने की ओर पा इसलिए उन्होंने व्यावहारिक भाषा को अपनाकर सरल तथा स्पष्ट शैली में लिखा। खड़ी बोली का शैशव काल होने के कारण भाषा में संस्कृत, अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग मिलता है। 

        इस युग के गधकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र,बालमुकुन्द गुप्त, लाला श्रीनिवासदास, देवकीनन्दन रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस युग में मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुवाद भी पर्याप्त मात्रा में हुए । हरिश्चन्द्र मैग्जीन', कविवचन सुधा','आनन्द कादम्बिनी', 'हिन्दी प्रदीप' आदि पत्रिकाओं ने हिन्दी गद्य के विकास में बहुत योगदान दिया।

      आज हिन्दी गद्य का जो बहुमुखी विकास दिखायी पड़ रहा है, उसका मूलाधार भारतेन्दु युग है। इस प्रकार हिन्दी गद्य के विकास में भारतेन्दु युग का विशेष महत्त्व है।

द्विवेदी युग' में हुए गद्य  का विकास  

      द्विवेदी युग का समय सन् 1903 से 1920 तक माना गया है भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य की विविध विधाओं में पर्याप्त लिखा गया, किन्तु इस समय के गद्य में भाषागत तथा विषयगत त्रुटियां थीं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का ध्यान इस ओर गया। उन्होंने गद्य के परिमार्जन पर बल दिया। द्विवेदी जी में अद्भुत प्रतिभा एवं लगन थी, जिनके द्वारा उन्होंने अपने युग के लेखकों का दिशा-निर्देशन किया। 'सरस्वती' के माध्यम से आपने खड़ी बोली को व्यवस्थित रूप देने का महान कार्य किया। वे सम्पादकीय तथा लेखों के माध्यम से लेखकों को शुद्ध भाषा और शैली का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करते थे ।

    द्विवेदी युग में निबन्ध, कहानी, नाटक, जीवनी आदि अनेक विधाओं में रचनाएं की गयीं। इस काल के प्रमुख लेखक पदमसिंह शर्मा, श्यामसुन्दर दास, चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी', सरदार पूर्णसिंह आदि हैं।

       द्विवेदी युग में सामाजिक, धार्मिक, नैतिक आदि विभिन्न विषयों पर गद्य साहित्य का सृजन हुआ। इस काल के लेखकों ने भारतेन्दु युग में प्रयोग होने वाली भाषा-शैली को परिमार्जित तथा परिकम रूप दिया । भाषा-शैली परिष्कार में सर्वाधिक कार्य द्विवेदी युग' में ही हुआ। 

         इस प्रकार कहा जा सकता है कि हिन्दी गय के परिमार्जन एवं विकास में 'द्विवेदी युग का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।


हिन्दी गद्य का 'शुक्ल-युग

            हिन्दी गय के सन् 1920 से 1936 तक के समय को 'शुक्ल युग' या छायाबाद नाम दिया गया है। यह हिन्दी गय का उत्कर्ष काल रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद तथा प्रेमचन्द जैसी साहित्यिक प्रतिभाएँ इसी युग में हुई।

             महान प्रतिभा के धनी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने द्विवेदी युग से लिखना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने खड़ी बोली गद्य में विषय की गम्भीरता का समावेश किया तथा भाषा-शैली के परिमार्जित रूप को अपनाया। निबन्ध, समीक्षा, इतिहास लेखन के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वह कार्य किया, जो आज भी लेखकों के लिए दिशा-निर्देश करने वाला बना हुआ है। जयशंकर प्रसाद जैसे समर्थ लेखक भी इसी काल में हुए जिन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध आदि की श्रेष्ठ रचनाओं से हिन्दी गद्य को गौरवान्वित किया। कथाकार प्रेमचन्द भी इसी युग में पैदा हुए, जिन्होंने नवजात कचा-साहित्य को उत्कर्ष तक पहुंचाया । उक्त तीन गद्यकारों के नामों के आधार पर इस युग को 'शुक्ल-प्रेमचन्द प्रसाद युग' भी कहा जा सकता है।

         इस काल के अन्य प्रमुख लेखक बाबू गुलाबराय, नन्ददुलारे बाजपेयी, हजारोप्रसाद द्विवेदी, वियोग हरि, लक्ष्मीनारायण मिश्र, रामकुमार वर्मा, हरिकृष्ण प्रेमी', निराला, महादेवी वर्मा आदि हैं। इन गद्यकारों ने नाटक निबन्ध कहानी, उपन्यास, समीक्षा आदि विषयों पर साधिकार लिखा है। गद्य की यात्रावृत्त, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज आदि कई विधाओं का उन्नयन पो इसी युग में हुआ।

        सभी पक्षों पर विचार करने के पश्चात कहा जा सकता है कि 'शुक्ज युग हिन्दी गद्य का गौरवकाल रहा है।


'शुक्लोत्तर युग' का परिचय  उसके महत्व 

              हिन्दी गद्य का सन् 1936 से 1947 तक का समय 'शुक्लोत्तर युग या 'प्रगतिवादी युग' कहा जाता है। इस युग के लेखकों में यथार्थवादी दृष्टि की प्रधानता रही है। शुक्ल जी के पश्चात् गद्य-लेखन के विविध रूप विकसित हुए। लेखकों ने नाटक, निबन्ध, कहानी, उपन्यास, जीवनी, समीक्षा, रेखाचित्र, संस्मरण आदि की रचना करके साहित्य सागर को समृद्ध किया। इस युग के गद्य साहित्य पर मार्क्सवाद का प्रभाव रहा है।

             शुक्लोत्तर युग के प्रमुख गद्यकार डॉ नगेन्द्र, रामविलास शर्मा, नन्ददुलारे बाजपेयी, चतुरसेन शास्त्री, भगवतीशरण वर्मा, रांगेय राघव, अज्ञेय, जैनेन्द्र, लक्ष्मीनारायण लाल, उपेन्द्रनाथ  "अश्क', उदयशंकर भट, यशपाल, मोहन राकेश आदि हैं। इस युग के लेखकों ने एरल, सुबोध तथा सरस भाषा-शैली को अपनाया है।

         हिन्दी साहित्य के इतिहास में या युग अपना विशिष्ट महत्व रखता है।


स्वातव्योत्तर हिन्दी गय के महत्व 

                गुलामी के बन्धनों से मुक्त होकर सन् 1947 से भारत नये विकास की ओर उन्मुख हुआ । हिन्दी के विकास में इस नयी सहर ने बहा सहयोग किया। शासन तथा समाज दोनों ही मातृभाषा हिन्दी को समय बनाने में एकजुट होकर संलग्न हो गये । फलस्वरूप विधि, विज्ञान, इतिहास, शोध आदि सभी विषयों पर हिन्दी गय में रचनाएँ हुई हैं। साच ही प्रचार और प्रसार के माध्यम रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा आदि ने भी हिन्दी गय्य को विकसित किया है। 

              स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी गद्य का विकास विविध रूपों में हुआ है। उपन्यास, कहानी, निबन्ध, संस्मरण रेखाचित्र के अतिरिक्त गहा-काव्य, हास्य-व्याय, डायरी, भेंट-वार्ता, रिपोर्ताज आदि विषाओं के साहित्य का भी पर्याप्त सृजन हुआ है।

            इस युग में महादेवी वर्मा, रामधारीसिंह 'दिनकर', विष्णु प्रभाकर, विद्यानिवास मिश्र, अमृतलाल नागर, राजेन्द्र यादव, धर्मवीर भारती,मन्नू भण्डारी, शिवानी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, विनय मोहन शर्मा,नागार्जुन, फणीश्वरनाथ 'रेणु' आदि हिन्दी के उल्लेखनीय गद्यकार हैं। 

          स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी गद्य में विषयों की विविधता के साथ शैलियों का चमत्कार भी सर्वत्र मिलता है। यह साहित्य बौद्धिकता से युक्त है। इनमें युगीन समस्याओं को सुन्दर ढंग से रखा गया है। इस प्रकार स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी गद्य का विशेष महत्व है। 


हिन्दी गद्य के विकास में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के योगदान ।


(1) परिचय-

        आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के आगमन से हिन्दी गद्य को एक महान प्रतिभा का सहयोग मिला। इन्होंने खड़ी-बोली गय को परिमार्जित तथा व्यवस्थित करने गुरुचर कार्य अपने हाथ में लिया।सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से द्विवेदी जी ने अपने समय के साहित्यकरों का मार्गदर्शन किया। 'सरस्वती' ने ही बजभाषा और खड़ी बोलो के विवाद को समाप्त कर गदा और पद्य दोनों क्षेत्रों में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया। 

(2) रचनाएँ-

       आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीजी ने गद्य और पद्य दोनों में मौलिक और अनूदित पन्थों की रचना की । उनकी कृतियों इस प्रकार हैं तरुणोपदेश', नेपघचरितचर्ची', वैज्ञानिक कोन हिन्दी नवरा कालिदास की समालोचना' ' कालिदास की निरंकुशता' 'हिन्दी की पहली किताब, 'रसज-जन', 'सुकवि-संकीर्तन' (संकलन), 'वाग्विलास', समालोचना', 'समुच्चय', 'विचार-विमर्श' आदि इनके मौलिक धन्य हैं। 'भामिनी विलास', 'बेणी संहार कुमार सम्भव, 'रपुवंश', 'स्वाधीनता', 'शिक्षा', बेकन विचार, 'रत्नावली', 'मेषदूत "किरातार्जुनीयम्'. आख्यायिका', 'सप्तक' आदि एक दर्जन से अधिक अनूदित रचनाएँ हैं। 

(3) प्रेरक

         द्विवेदी जी प्रबुद्ध समीक्षक, उत्कृष्ट विचारक,सफल सम्पादक निबन्ध लेखक और कवि थे। समसामयिक रचनाकारों ने इनसे प्रेरणा प्राप्त कर स्तरीय साहित्य की रचना की।

 (4) युग प्रथर्तक-

         आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को युग निर्माता और युग प्रवर्तक होने पुग प का गौरव प्राप्त है। हिन्दी-गद्य की अराजकतापूर्ण अवस्था में उन्होंने 'सरस्वती' के माध्यम से व्याकरण की सम्यक सृष्टि की । हिन्दी-गाय का बहुमुखी विकास द्विवेदी जी के समय में ही हुआ।

(5) गषा-परिमार्जक-

          भारतेन्दु युग में हिन्दी साहित्य की जिन शैलियों को जन्म मिला दिवेदी युग में उनको पूर्ण विकास के अवसर प्रापा हुए। द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को व्याकरण के अनुसार व्यवस्थित व परिमार्जित किया। डॉ रामवन्द्र तिवारी ने द्विवेदी जी के विषय में ठीक ही लिखा है-"चाहे वे गम्भौर आलोचना न कर सके हों, चाहे उनके निबन्ध बातों के संमह मात्र ों, चाहे उनकी नीतिमत्ता ने रसात्मकता को सिकता में बदल दिया हो, किन्तु यह स्वीकार करना होगा कि उन्होंने हिन्दी गद्य को मर्यादा दी, हिन्दी भाषा को परिमार्जित किया और नवीन प्रयोगों को हिन्दी साहित्य में सम्भव बनाया।"

निष्कर्ष 

          वास्तव में द्विवेदी जी अपने युग की महान विभूति थे। उन्होंने हिन्दी के विकास के विविध स्रोत प्रवाहित किये। उन्होंने भाषा का परिष्कार किया। द्विवेदी जी की डिन्दी सेवाएं सम्मानपूर्वक स्मरण की जाती रहेंगी।


हिन्दी गण के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान 

परिचय-

      आचार्य रामचन्द्र शुक्ल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे महान विचारक, सारपाही, सशक्त लेखक, स्पष्ट समालोचक तथा सजग इतिहासकार थे। शुक्ल जी ने समीक्षा तथा निबन्ध के क्षेत्र में 'चिन्तामणि", रस-मीमांसा' और 'सूरदास', जायसी', तुलसीदास (सोनों की विस्तृत भूमिका जैसे ग्रन्थों की रचना की तो 'हिन्दी साहित्य का इतिहास व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करके अपनी स्पष्ट सूझ-बूझ का परिचय दिया आपने अनुवाद तथा सम्पादन क्षेत्र में पर्याप्त कार्य किया। शशांक' विश्व-प्रपंच', 'आदर्श औवन 'मैगस्थनीज का भारतवर्षीय वर्णन', कल्पना का आनन्द' आदि का अनुवाद किया। 'हिन्दी शब्द सागर , 'नागरी प्रचारिणो पत्रिका का सम्पादन किया।

          निबन्धकार के रूप में शुक्ल जी का विशेष सम्मान है आपने हिन्दी में पहली बार मनोविकार सम्बन्धी तथा समीक्षात्मक सशक्त निबन्ध लिखकर निबन्ध साहित्य को नवीन दिशाएँ दी। शुक्ल जी के निबन्धों में उनका अनुभव, चिन्तन तथा मनन प्रस्तुत हुआ है। उनमें कहीं भी विचारों का उलझाव तथा अस्पष्टता नहीं मिलती है । आपके समस्त साहित्य में विरोध ढूँढ पाना असम्भव है। जयनाथ 'नलिन' ने ठीक ही लिखा है-"शुक्ल जी का एक-एक निबन्ध हिन्दी गद्य-शैली के विकास की शानदार मंजिल है एक-एक पैरा प्रगति और प्रौढ़ता के पथ पर बढ़ता हुआ पग, एक-एक पंक्ति गम्भीर चिन्तन की सांस और एक-एक उक्ति अभिव्यंजना की सार्थकता है।"

          शुक्ल जी के हिन्दी साहित्य का इतिहास में प्रथर बार साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी के इतिहास का विवेचन हुआ। इसमें किया गया काल-विभाजन तों पर आधारित है। इसमें कवियों तथा कृतियों की गिनती मात्र नहीं करायी गयी है, अपितु, प्रत्येक युग की परिस्थितियों के सन्दर्भ में प्रवृत्तियों का विवेचन भी हुआ है।

           उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी गद्य को विषय तथा कला दोनों ही दृष्टियों से चरम उत्कर्ष पर पहुँचाने का अनुपम कार्य किया।शुक्ल जी का नाम हिन्दी गद्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।


         

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