Friday, March 19, 2021

हिन्दी का गद्य साहित्य

 

                                हिन्दी का गद्य साहित्य


          हिन्दी साहित्य लगभग आठवी-नौवीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर निरन्तर विकसित होता आ रहा है। प्रारम्भ में छापेखाने के अभाव में सहज स्मरणीय कविता की ही प्रधानता रहीं। इसलिए प्राचीनकाल में गद्य का विकास कम ही हो पाया।

 (1) प्रारम्भिक हिन्दी गद्य-

       आदिकाल एवं मध्यकाल में यद्यपि पद्य का प्राधान्य रहा फिर भी राजस्थानी, अज तया खड़ी बोली में लिखी गयी गद्य रचनाएँ मिलती हैं। राजस्थानी गद्य दसवीं शताब्दी के पहियों, दान-पत्रों, परवानों, टीका ओ आदि के रूप में प्राप्त हैं । खबभाषा के गद्य की मुख्य रचनाएँ मूंगार रस मण्डन' (विट्टलनाथ) चौरासी वैष्णवन की वार्ता एवं दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (गोकुलनाथ), अगहन महात्म्य' एवं 'बैसाख महात्म्य' (वैकुण्ठमणि शुक्ल), 'अष्टधाम' (नबावदास), 'बेताल पचीसी' (सुरति मिश्र) 'आइने-अकबरी की भाषा बचनिका (हीरालाल) आदि हैं।

(2)  खड़ी बोली 

        गद्य की पहली कृति चन्द छन्द बरनन की महिमा है। यह अकबर के दरबारी कवि 'गंग' द्वारा रचित है। प्राचीन खड़ी बोली में लिखी गयी कुछ रचनाएँ औलियों की भी प्राप्त है। खड़ी बोली का प्रौढ़ रूप रामप्रसाद निरजन के 'भाषा योग वशिष्ठ' प्रन्थ में देखा जा सकता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-"कर्म से अन्तःकरण शुद्ध होता है और अन्तःकरण की शुद्धि के बिना केवल ज्ञान से मुक्ति नहीं होती

(3) लेखक चतुष्टय 

       रीतिकाल के लेखकों में चार गद्यकारों के नाम उल्लेखनीय हैं। पहले मुंशी सदासुखलाल हैं जिन्होंने 'सुखसागर' लिखा। दूसरे, लल्लूलाल जिनकी भेमसागर', 'सिंहासन बत्तीसी', 'बेताल पच्चीसी' आदि रचनाएँ हैं। तीसरे, गधकार इंशाअल्ला खाँ की प्रसिद्ध कृति रानी केतकी की कहानी है, जिसे पढ़ने की इच्छा से अनेक लोगों ने हिन्दी सीखी। चौथे सदल मिश्र का नासकेतोपाख्यान खड़ी बोली गध की रचना है।

(4) ईसाई पादरियों का सहयोग-

     खड़ी बोली गद्य के विकास को ईसाई धर्म प्रचारकों, पादरियों का भी पर्याप्त सहयोग मिला। इनका लक्ष्य हिन्दी के माध्यम से धर्म प्रचार करना था। अतः इसमें खड़ी बोली गद्य का बनावटी रूप ही दिखायी देता है।

(5) राजा द्वय  

      आधुनिक काल से कुछ समय पूर्व के गयकार आधुनिक काल से पूर्व के सिंचनाकारों में राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द' तथा राजा लक्ष्मणसिह के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने अपने प्रभाव से हिन्दी को पर्याप्त विकसित किया । शिवप्रसाद हिन्दी में संस्कृत शब्दों के प्रयोग के समर्थक थे, किन्तु बाद में उर्दू के शब्दों को भी महण किया। राजा लक्ष्मणसिंह ने रघुवंश, अभिज्ञान शाकुन्तलम् तथा मेघदूत का हिन्दी में अनुवाद किया। इनकी भाषा संस्कृत के शब्दों से युक्त है। यह दोनों ही लेखक बोलचाल की भाषा को नहीं अपना पाये । फलस्वरूप इच्छा रखो गए भी शिन्दी सेवा का सराना काम नहीं कर पाये जितना कर सकते णे।

(6) धर्म प्रचार 

      अंग्रेजों के साई धर्म प्रचार की प्रतिक्रिया स्वरूप पं. राजा राममोहन राय ने 'ब समाज तथा दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना कर खड़ी बोली गाय के माध्यम से भारतीय हिन्दू समाज का दिशा दर्शन किया। उन्होंने हिन्दी पुस्तकों की रचना की एवं पत्र निकाले, जिससे शिन्दी खही बोली गद्य सामान्य समाज तक पढुँची।

       इस प्रकार स्पष्ट है कि आधुनिक काल से पूर्व खड़ी बोली गद्य को विविध सामान्य सोपानों से गुजरकर अपनी दिशा बनानी पड़ी।

                आधुनिक काल में खड़ी बोली गा के विकास 

       आधुनिक काल से पूर्व राजस्थानी, बज, खड़ी बोली आदि का मिश्रित गद्य ही लिखा गया था, किन्तु आधुनिक काल के आते-आते खड़ी बोली गद्य का सर्वांगीण विकास हुआ। यह विकास-क्रम इस प्रकार रखा जा सकता है-


(1) भारतेन्दु युग 

      आज प्रयोग की जाने वाली खड़ी बोली गद्य का जन्म और विकास भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सबल व्यक्तित्व के सहयोग से हुआ इन्होंने खड़ी बोली के साहित्यिक तया बोलचाल दोनों रूपों को अपनाया। भारतेन्दु मण्डल के गद्यकारों ने पार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, सभी विषयों पर निबन्ध, नाटक आदि की रचना की भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण महाप्रताप नारायण मिश्र, देवकीनन्दन खत्री आदि इस युग के प्रमुख गद्यकार हैं।

(2) द्विवेदी युग-

      भारतेन्दु युग में उत्पन्न हिन्दी गद्य साहित्य का परिमार्जन तया पल्लवन द्विवेदी युग में हुआ। 'सरस्वती' के माध्यम से भाषा में व्याकरण आदि के दोषों को और ध्यान आकर्षित किया गया। इस काल में कहानी, नाटक, निबन्ध, जीवनी आदि सभी प्रकार का गद्य लिखा गया। लेखकों में महावीरप्रसाद द्विवेदी, पद्मसिंह शर्मा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी', श्यामसुन्दरदास, सरदार पूर्णसिंह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

(3) शुक्रन युग-

       आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के आगमन के साथ हिन्दी गद्य में गम्भीरता तया विचार-अरधानता का समावेश तुआ। इस युग हिन्दी गद्य को प्रेमचन्द, जयशंार प्रसाद में आदि प्रतिमाओं का सहारा गिला। इस तरह इतिहास, नाटक उपन्यास, कहानी आदि सभी दृष्टियों से यह युग श्रेष्ठ कहा जा सकता है। बाबू गुलाबराय नन्ददुलारे बाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी,रामकुमार वर्मा,महादेवी वर्मा आदि इस युग के महान् गद्यकार माने जाते हैं । इस युग का नाम 'शुक्ल प्रेमचन्द प्रसाद युग' भी दिया जा सकता है।

(4) शुक्सोलर युग 

     किस युग के साहित्यकारों पर मार्क्सवाद का प्रभाव दिखायी पड़ता है। नाटक निबन्ध, कहानी उपन्यास आदि सभी के विषय यथार्थपरक हैं । इस काल पर पश्चिमी साहित्य का प्रभाव भी रहा है। रामविलास शर्मा, नगेन्द्र, वृन्दावनलाल बर्मा, चतुरसेन शास्त्री, रांगेय राघव भगवतीचरण वर्मा आदि इस युग के प्रतिभा सम्पल लेखक हैं।

(5) स्वातन्त्र्योत्तर युग-

     15 अगस्त, 1947 ई. को भारत स्वतन्त्र हुआ। इसके साथ ही मातृभाषा हिन्दी को शासन, समाज, सभी ने अपनाया। विज्ञान, शोध, इतिहास, कानून आदि विषयों में हिन्दी के प्रयोग एवं लेखन का सर्वांगीण विकास हुआ रामधारीसिंह 'दिनकर', विद्यानिवास मिश्र, राजेन्द्र यादव, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर आदि इस युग के प्रमुख लेखक है।

      इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक युग में खड़ी बोली गय का उन्नयन, पल्लवन तथा सर्वांगीण विकास हुआ है। आज हिन्दी गद्य रचनाओं का विश्व साहित्य में विशिष्ट स्थान है।


             भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य का विकास 

           सन् 1868 से 1903 तक के समय को भारतेन्दु युग कहा गया है भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी के लिए वरदान सिद्ध हुए। उनकी प्रतिभा का सहारा पाकर हिन्दी साहित्य समृद्ध हो उठा । भारतेन्दु जी ने स्वयं नाटक, निबंध आदि की तथा अनेक गद्यकारों को लिखने के लिए ओत्साहित किया।

      भारतेन्दु युग में निबन्ध, नाटक, कहानी आदि सभी विधाओं में साहित्य सूजन हुआ सामाजिक, धार्मिक राष्ट्रीय, राजनीतिक आदि सभी विषयों पर लिखा गया। इस काल के लेखकों का ध्यान हिन्दी साहित्य के भण्डार को भरने की ओर पा इसलिए उन्होंने व्यावहारिक भाषा को अपनाकर सरल तथा स्पष्ट शैली में लिखा। खड़ी बोली का शैशव काल होने के कारण भाषा में संस्कृत, अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग मिलता है। 

      इस युग के गधकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र,बालमुकुन्द गुप्त, लाला श्रीनिवासदास, देवकीनन्दन रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस युग में मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुवाद भी पर्याप्त मात्रा में हुए । हरिश्चन्द्र मैग्जीन', कविवचन सुधा','आनन्द कादम्बिनी', 'हिन्दी प्रदीप' आदि पत्रिकाओं ने हिन्दी गद्य के विकास में बहुत योगदान दिया।

     आज हिन्दी गद्य का जो बहुमुखी विकास दिखायी पड़ रहा है, उसका मूलाधार भारतेन्दु युग है। इस प्रकार हिन्दी गद्य के विकास में भारतेन्दु युग का विशेष महत्त्व है।

      

                                द्विवेदी युग' में  गद्य का विकास 

      द्विवेदी युग का समय सन् 1903 से 1920 तक माना गया है भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य की विविध विधाओं में पर्याप्त लिखा गया, किन्तु इस समय के गद्य में भाषागत तथा विषयगत त्रुटियां थीं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का ध्यान इस ओर गया। उन्होंने गद्य के परिमार्जन पर बल दिया। द्विवेदी जी में अद्भुत प्रतिभा एवं लगन थी, जिनके द्वारा उन्होंने अपने युग के लेखकों का दिशा-निर्देशन किया। 'सरस्वती' के माध्यम से आपने खड़ी बोली को व्यवस्थित रूप देने का महान कार्य किया। वे सम्पादकीय तथा लेखों के माध्यम से लेखकों को शुद्ध भाषा और शैली का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करते थे ।

      द्विवेदी युग में निबन्ध, कहानी, नाटक, जीवनी आदि अनेक विधाओं में रचनाएं की गयीं। इस काल के प्रमुख लेखक पदमसिंह शर्मा, श्यामसुन्दर दास, चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी', सरदार पूर्णसिंह आदि हैं।

      द्विवेदी युग में सामाजिक, धार्मिक, नैतिक आदि विभिन्न विषयों पर गद्य साहित्य का सृजन हुआ। इस काल के लेखकों ने भारतेन्दु युग में प्रयोग होने वाली भाषा-शैली को परिमार्जित तथा परिस्कृत रूप दिया । भाषा-शैली परिष्कार में सर्वाधिक कार्य द्विवेदी युग' में ही हुआ।

       इस प्रकार कहा जा सकता है कि हिन्दी गद्य के परिमार्जन एवं विकास में द्विवेदी युग' का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 


                      शुक्ल-पुग का संक्षिप्त परिचय 

          हिन्दी ग के सन् 1920 से 1936 तक के समय को 'शुक्ल युग या 'छायावाद' नाम दिया गया है। यह हिन्दी गद्य का उत्कर्ष काल रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद तथा प्रेमचन्द जैसी साहित्यिक प्रतिभाएं इसी युग में हुई।

         महान् प्रतिभा के धनी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने द्विवेदी युग से लिखना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने खड़ी बोली गद्य में विषय की गम्भीरता का समावेश किया तथा भाषा-शैली के परिमार्जित रूप को अपनाया। निबन्ध, समीक्षा, इतिहास लेखन के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वह कार्य किया, जो आज भी लेखकों के लिए दिशा-निर्देश करने वाला बना हुआ है। जयशंकर प्रसाद जैसे समर्थ लेखक भी इसी काल में हुए जिन्होंने नाटक,उपन्यास,कहानी, निबन्ध आदि की श्रेष्ठ रचनाओं से हिन्दी गद्य को गौरवान्वित किया । कथाकार प्रेमचन्द भी इसी युग में पैदा हुए, जिन्होंने नवजात कथा-साहित्य को उत्कर्ष तक पहुँचाया। उक्त तीन गद्यकारों के नामों के आधार पर इस युग को 'शुक्ल-प्रेमचन्द-प्रसाद युग भी कहा जा सकता है।

         इस काल के अन्य प्रमुख लेखक बाबू गुलाबराय, नन्ददुलारे बाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, वियोग हरि, लक्ष्मीनारायण मिश्र, रामकुमार वर्मा, हरिकृष्ण प्रेमी', निराला, महादेवी वर्मा आदि हैं। इन गद्यकारों ने नाटक, निबन्ध, कहानी, उपन्यास, समीक्षा आदि विषयों पर साधिकार लिखा है। गद्य की यात्रावृत्त, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज आदि कई विधाओं का उन्नयन भी इसी युग में हुआ।

        सभी पक्षों पर विचार करने के पश्चात् कहा जा सकता है कि 'शुक्ज युग हिन्दी गद्य का गौरवकाल रहा है।


                   शुक्लोत्तर युग' का परिचय 

          हिन्दी गद्य का सन् 1936 से 1947 तक का समय 'शुक्लोत्तर युग' या प्रगतिवादी युग' कहा जाता है। इस युग के लेखकों में यथार्थवादी दृष्टि की प्रधानता रही है। शुक्ल जी के पश्चात् गद्य-लेखन के विविध रूप विकसित हुए। लेखकों ने नाटक, निबन्ध, कहानी, उपन्यास, जीवनी, समीक्षा, रेखाचित्र, संस्मरण आदि की रचना करके साहित्य सागर को समृद्ध किया। इस युग के गद्य साहित्य पर मार्क्सवाद का प्रभाव रहा है।

        शुक्लोत्तर युग के प्रमुख गद्यकार डॉ.नगेन्द्र, रामविलास शर्मा, नन्ददुलारे बाजपेयी, चतुरसेन शास्त्री, भगवतीशरण वर्मा, रांगेय राघव, अज्ञेय, जैनेन्द्र, लक्ष्मीनारायण लाल, उपेन्द्रनाथ "अश्क', उदयशंकर भट्ट, यशपाल, मोहन गकेश आदि हैं इस युग के लेखकों ने सरल, सुनोध तथा सरस भाषा-शैली को अपनाया है।

        हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह युग अपना विशिष्ट महत्व रखता है। 


                           स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी गण का महत्व


            गुलामी के बन्धनों से मुक्त होकर सन् 1947 से पारत नये विकास की ओर उम्मुख हुआ। हिन्दी के विकास में इस नयी लहर ने बड़ा सहयोग किया। शासन तथा समाज दोनों ही मातृभाषा हिन्दी को समृद्ध बनाने में एकजुट होकर संलग्न हो गये। फलस्वरूप विधि, विज्ञान, इतिहास, शोध आदि सभी विषयों पर हिन्दी गद्य में रचनाएँ हुई हैं। साथ ही प्रचार और प्रसार के माध्यम रेडियो,टेलीविजन, सिनेमा आदि ने भी हिन्दी गद्य को विकसित किया है। 

          स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी गद्य का विकास विविध रूपों में हुआ है उपन्यास, कहानी, निबन्ध, संस्मरण, रेखाचित्र के अतिरिक्त गद्य-काव्य, हास्य-व्यंग्य, डायरी भेट-वार्ता, रिपोर्ताज आदि विधाओं के साहित्य का भी पर्याप्त सूजन हुआ है।

          इस युग में महादेवी वर्मा, रामधारीसिंह 'दिनकर', विष्णु प्रभाकर, विद्यानिवास मिश्र, अमृतलाल नागर, राजेन्द्र यादव, धर्मवीर भारती,मन्ু भण्डारी, शिवानी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, विनय मोहन शर्मा,नागार्जुन, आदि हिन्दी के उल्लेखनीय गद्यकार हैं ।

          स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी गद्य में विषयों की विविधता के साथ शैलियों का चमत्कार भी सर्वत्र मिलता है। यह साहित्य बौद्धिकता से युक्त है। इनमें युगीन समस्याओं को सुन्दर ढंग से रखा गया है। इस प्रकार स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी गद्य का विशेष महत्व है। 


        हिन्दी ग्य के विकास में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के योगदान 

(1) परिचय-

     आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के आगमन से हिन्दी गद्य को एक महान प्रतिभा का सहयोग मिला। इन्होंने खड़ी-बोली गद्य को परिमार्जित तथा व्यवस्थित करने का गुरुत्तर कार्य अपने हाथ में लिया । 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से द्विवेदी जी ने अपने समय के साहित्यकरों का मार्गदर्शन किया। 'सरस्वती' ने ही बजभाषा और खड़ी बोली के विवाद को समाप्त कर गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया

(2) रचनाएँ-

      आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीजी ने गद्य और पद्य दोनों में मौलिक और अनूदित ग्रन्थों की रचना की। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं- 'तरुणोपदेश', नैपथचरितचर्चा वैज्ञानिक कोष', 'हिन्दी नवरल', 'कालिदास की समालोचना', ' कालिदास की निरंकुशता' 'हिन्दी की पहली किताब, 'रसज्ञ-रंजन', 'सुकवि-संकीर्तन' (संकलन), 'वाग्विलास', 'समालोचना', 'समुच्चय', 'विचार-विमर्श' आदि इनके मौलिक ग्रन्थ हैं। 'भामिनी विलास, 'बेणी संहार, 'कुमार सम्पव', 'रपुवंश', 'स्वाधीनता', 'शिक्षा', 'बेकन विचार', 'रलावली', 'मेषटूत' किरातार्जुनीयम्', 'आख्यायिका', 'सप्तक' आदि एक दर्जन से अधिक अनूदित रचनाएँ हैं।

(3) प्रेरक 

       द्विवेदी जी प्रबुद्ध समीक्षक, उत्कृष्ट विचारक, सफल सम्पादक, निबन्ध लेखक और कवि तथा । समसामयिक रचनाकारों ने इनसे प्रेरणा प्राप्त कर स्तरीय साहित्य की रचना की।

(4) युग प्रवर्तक-

      आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को युग निर्माता और युग प्रवर्तक होने का गौरव प्राप्त है। हिन्दी-गद्य की अराजकतापूर्ण अवस्था में उन्होंने 'सरस्वती' के माध्यम से व्याकरण की सम्यक् सृष्टि की । हिन्दी-गद्य का बहुमुखी विकास द्विवेदी जी के समय में ही हुआ।

(5) गा-परिमार्जक-

      भारतेन्दु युग में हिन्दी साहित्य की जिन शैलियों को जन्म मिला द्विवेदी युग में उनको पूर्ण विकास के अवसर प्राप्त हुए। द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को व्याकरण के अनुसार व्यवस्थित व परिमार्जित किया। डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने द्विवेदी जी के विषय में ठीक ही लिखा है-"चाहे वे गम्भीर आलोचना न कर सके हों, चाहे उनके निबन्ध बातों के संमह मात्र हो, चाहे उनकी नीतिमत्ता ने रसात्मकता को सिकता में बदल दिया हो, किन्तु यह स्वीकार करना होगा कि उन्होंने हिन्दी गद्य को मर्यादा दी, हिन्दी भाषा को परिमार्जित किया और नवीन प्रयोगों को हिन्दी साहित्य में सम्भव बनाया।"

निष्कर्ष 

        वास्तव में द्विवेदी जो अपने युग की महान विभूति थे । उन्होंने हिन्दी के विकास के विविध स्रोत प्रवाहित किये। उन्होंने भाषा का परिष्कार किया। द्विवेदी जी की हिन्दी सेवाएँ सम्मानपूर्वक स्मरण की जाती रहेंगी।

           

         हिन्दी गद्य के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान 

  परिचय-

      आचार्य रामचन्द्र शुक्ल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे महान विचारक, सारग्राही, सशक्त लेखक, स्पष्ट समालोचक तथा सजग इतिहासकार थे। शुक्ल जी ने समीक्षा तथा निबन्ध के क्षेत्र में 'चिन्तामणि', रस-मीमांसा' और 'सूरदास', 'जायसी, तुलसीदास (तीनों की विस्तृत भूमिकाएं जैसे अन्थों की रचना की तो 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करके अपनी स्पष्ट सूझ-बूझ का परिचय दिया। आपने अनुवाद तथा सम्पादन क्षेत्र में पर्याप्त कार्य किया। 'शशांक 'विश्व-प्रपंच', आदर्श जीवन, 'मैगस्थनीज का भारतवर्षीय वर्णन', 'कल्पना का आनन्द' आदि का अनुवाद किया । 'हिन्दी शब्द सागर, 'नागरौं प्रचारिणी पत्रिका' का सम्पादन किया।

        निबन्धकार के रूप में शुक्ल जी का विशेष सम्मान है। आपने हिन्दी में पहली बार मनोविकार सम्बन्धी तथा समीक्षात्मक सशक्त निबन्ध लिखकर निबन्ध-साहित्य को नवीन दिशाएँ दीं। शुक्ल जी के निबन्धों में उनका अनुभव, चिन्तन तथा मनन प्रस्तुत हुआ है। उनमें कहीं भी विचारों का उलझाव तथा अस्पष्टता नहीं मिलती है। आपके समस्त साहित्य में विरोध ढूंढ पाना असम्भव है। जयनाथ 'नलिन' ने ठीक ही लिखा है-"शुक्ल जी का एक-एक निबन्ध हिन्दी गद्य-शैली के विकास की शानदार मंजिल है। एक-एक पैरा प्रगति और प्रौढ़ता के पथ पर बढ़ता हुआ पग, एक-एक पंक्ति गम्भीर चिन्तन की साँस और एक-एक उक्ति अभिव्यंजना की सार्थकता है।" 

         शुक्ल जी के हिन्दी-साहित्य का इतिहास में प्रथर बार साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी के इतिहास का विवेचन हुआ। इसमें किया गया काल-विभाजन तरीकों पर आधारित है । इसमें कवियों तथा कृतियों की गिनती मात्र नहीं करायी गयी है, अपितु, प्रत्येक युग की परिस्थितियों के सन्दर्भ में प्रवृत्तियों का विवेचन भी हुआ है। 

      उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी गद्य को विषय तथा कला दोनों ही दृष्टियों से चरम उत्कर्ष पर पहुँचाने का अनुपम कार्य किया। शुक्ल जी का नाम हिन्दी-गद्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।



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