Thursday, April 1, 2021

कहानीकार का परिचय

 

           कहानीकार का परिचय


     1. प्रेमचंद     (1880–1936)

          प्रेमचंद का जन्म वाराणसी के समीप लमही नामक ग्राम में हुआ था। उनका वास्तविक नाम धनपतराय था । किन्तु वे अपनी कहानियाँ उर्दू में नवाबराय और हिन्दी में प्रेमचंद के नाम से लिखते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी में हुई। उन्होंने क्वीन्स कालेज, वाराणसी से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की । पिता का असामयिक निधन हो जाने के कारण उन्हें प्राइमरी स्कूल के अध्यापक का कार्य करने के लिए विवश होना पड़ा । इलाहाबाद से ट्रेनिंग लेने के कुछ समय बाद सब डिप्टी इंस्पेक्टर हो गये। इसी बीच बी.ए. की परीक्षा भी उन्होंने उत्तीर्ण की । सन् 1920ई. में महात्मा गाँधी के भाषण से प्रभावित होकर उन्होंने सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया और वे आजीवन स्वतंत्र लेखन का कार्य करते रहे।

         प्रेमचंद ने अपना लेखन कार्य पहले उर्दू में नवाबराय नाम से प्रारंभ किया। ज़माना अखबार में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती थीं। सोये वतन कहानी-संग्रह को ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त कर लिया था, क्योंकि उसमें देशभक्ति का प्रखर स्वर था। उनकी पहली हिन्दी कहानी सन 1915 ई. में सरस्वती में प्रकाशित हुई। इसके उपरांत वे अधिकांशतः हिन्दी में ही लिखने लगे ।

        प्रेमचंद का साहित्य का मुख्य स्वर है-'राष्ट्रीय जागरण' और 'समाज सुधार'। उन्होंने समाज-सुधार और राष्ट्रीय-भावना से ओत-प्रोत अनेक उपन्यासों एवं कहानियों का प्रणयन किया है। अपने साहित्य में प्रेमचंद ने किसानों की दशा, नारियों की वेदना और वर्ण व्यवस्था की कुरीतियों का मार्मिक चित्रण किया है। उनकी भाषा बड़ी सजीव, मुहावरेदार और बोलचाल के निकट है। हिन्दी भाषा को लोकप्रिय बनाने में उनका विशेष योगदान है।

         प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास हैं - सेवा सदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान । उनके प्रसिद्ध नाटक हैं-कर्बला, संग्राम और प्रेम की वेदी । उनके साहित्यिक निबंध कुछ विचार नामक पुस्तक में संकलित हैं। सामाजिक और राजनीतिक निबंधों का संग्रह विविध प्रसंग नाम से तीन भागों में प्रकाशित है। उनकी कहानियाँ मानसरोवर नाम से आठ भागों में प्रकाशित हैं। उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखी हैं। माधुरी, हंस, मर्यादा और जागरण पत्रिकाओं का संपादन भी उन्होंने किया।


2. सियारामशरण गुप्त (1895–1963)

          सियारामशरण गुप्त हिन्दी के उन मूर्धन्य कथाकारों में हैं, जिनकी कला चेतना में गाँधीवाद का पूर्ण परिपाक मिलता है। उनका मानसिक अस्तित्व और फलतः उनका साहित्य अहिंसा, करुणा और प्रेम की भावनाओं से ओतप्रोत है।

          उनका जन्म झाँसी के चिरगाँव नामक स्थान पर हुआ था। अपने अग्रज मैथिलीशरण गुप्त की भीति वे अपने आचार-व्यवहार में सौम्य और सरल व्यक्ति थे। व्यक्तित्व के अनुरूप उनका साहित्य भी उदात्त भावनाओं में अनुप्राणित है।

           हिन्दी साहित्य जगत् में सियारामशरण विशेषता कवि-रूप में प्रसिद्ध हैं। विषाद, अनाथ, आद्रा, उन्मुक्त, मृण्मयी, गोपिका आदि उनकी उल्लेखनीय काव्य कृतियाँ हैं । किंतु उन्होंने गय के विविध रूपों को भी सफलतापूर्वक अपनाया है। पुण्य पर्व शीर्षक नाटक, गोद, नारी तथा अंतिम आकांक्षा शीर्षक उपन्यास, मानुषी शीर्षक कहानी संग्रह और झूठ-सच शीर्षक निबंध संकलन उनकी गौरवपूर्ण रचनाएँ हैं।

          सियारामशरण की रचनाओं की सर्वप्रमुख विशेषता उनमें निहित वेदना और करुणा का भाव है उनमें बुद्धि के तर्क-वितर्क की अपेक्षा हृदय की कोमल भावनाओं को अधिक महत्ता मिली है। दार्शनिक दृष्टि से ये गाँधीजी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के पोषक हैं। जीवन के प्रति उनके अहिंसात्मक दृष्टिकोण ने उनकी रचनाओं में भी पवित्रता, सादगी और सहानुभूति भर दी है। उनकी कृतियों का अभिव्यक्ति पक्ष अत्यंत समृद्ध है। भाषा में व्यावहारिक शब्दावली को स्थान देने के कारण उसमें हृदय को स्पर्श करने की शक्ति विद्यमान है। शैली की दृष्टि से उन्होंने वर्णनात्मक, चित्रात्मक, विचारात्मक और भावात्मक शैली को अपनाया है।


3. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'   (1883–1922)

            पं चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म जयपुर में हुआ । शर्माजी के पिता पं. शिवराम शास्त्री जयपुर में संस्कृत कालेज के प्रधानाचार्य थे। अतः छोटी अवस्था से ही इन्हें संस्कृत में लिखने और बोलने का अभ्यास कराया गया । सन् 1920 में काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में ओरियंटल कालेज का प्रिंसिपल बन गये।

          संस्कृत, प्राकृत, पालि, मराठी, बंगाली, अंग्रेज़ी के विद्वान थे । पुरातत्व, दर्शन और भाषा-विज्ञान की ओर इनका सहज झुकाव था। सन् 1915 में प्रयाग की सरस्वती पत्रिका को इनकी कहानी 'उसने कहा था' को प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ। इस कहानी की गणना विश्व की श्रेष्ठतम कहानियों में की जा सकती है।

        कहानी- सुखमय जीवन, बुद्ध का काँटा

         यद्यपि इनकी तीन कहानियाँ "गुलेरी जी की अमर कहानियाँ" नाम से प्रकाशित हो गयी हैं, पर इनका अधिकांश साहित्य अभी तक अप्रकाशित है।


4. कृष्णा सोबती   (1925  - 2019)

       कृष्णा सोबती का जन्म गुजरात (पाकिस्तान) में हुआ । उनकी शिक्षा दिल्ली, शिमला एवं लाहौर में हुई। संप्रति स्वतंत्र लेखन।

      कृष्णा सोबती ने अनेक कहानी, उपन्यास एवं रेखाचित्रों का सृजन किया है । लेखन के प्रति पूर्ण निष्टा, आत्मीयता और भाव-प्रवणता के साथ-साथ कलात्मक सौष्ठव उनकी विशेषता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में नारी की मनास्थितियों एवं इच्छाओं का साहस एवं सहानुभूतिपूर्ण चित्रण किया है। उन्होंने समकालीन परिस्थितियों में नारी-जीवन की विवशता, असहायता के यथार्थ को समझकर उसे संवेदनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की ।

      उनकी भाषा-शैली प्रवाहपूर्ण एवं यथार्थपरक है। थोड़े शब्दों से मर्म को उद्घाटित करने की क्षमता उनके लेखन का एक विशिष्ट गुण है। 

     उनकी प्रमुख रचनाएं हैं- बादलों के घेरे, यारों के यार : तिन पहाड़, डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, सूरजमुखी अंधेरे के, जिंदगी नामा, जिंदारस,हम हशमत और सोबती एक सोहबत, ऐ लड़की, दानिश आदि।


5. इब्राहीम शरीफ़ (1939–1977)

           इब्राहीम शरीफ़ का जन्म 1939 ई. में नेन्दलूर कड़पा, आन्ध्रप्रदेश में हुआ था । उनके पिता की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गयी । फलस्वरूप उनका बचपन बहुत ही गरीबी में बीता । उनकी शिक्षा मद्रास, आगरा और दिल्ली में हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. करने के बाद वे दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास में हिन्दी सेवा और कोश-संपादन का कार्य करने लगे / वे भारत सरकार की हिन्दी-समिति में भी संबद्ध थे। दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। 38 वर्ष की अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गयी।

         इब्राहीम उन युवा कथाकारों में से थे, जिन्होंने छोटी-छोटी महत्त्वहीन-सी लगनेवाली घटनाओं और स्थितियों को आधार बनाकर सशक्त कहानियाँ लिखीं। 'सारिका' में प्रकाशित कहानी 'ज़मीन का आखिरी टुकड़ा' से उन्हें विशेष ख्याति प्राप्त हुई। वे आधुनिक हिन्दी कहानी में, समांतर कहानी आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर और प्रगतिशील साहित्यकार थे। उनके कथा-साहित्य में मानवीय दुख-दर्द और सामान्य जीवन के संघर्षों का वर्णन है। उनकी भाषा भावों को अभिव्यक्त करने में पूर्णतः सक्षम हैं।

        इब्राहीम शरीफ़ के दो कथा-संग्रह 'कई सूरजों के बीच' और 'ज़मीन का आखिरी टुकड़ा' प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने एक उपन्यास 'अँधेरे के साथ भी लिखा है।

      'कई सूरजों के बीच' कहानी-संग्रह पर उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया था।


6. रांगेय राघव (1923-1962)

            रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी, 1923 ई. को आगरा में हुआ था। उनका वास्तविक नाम तिरुमल्ले नम्बाकम वीर राघव आचार्य था, पर उन्होंने रांगेय राघव नाम से साहित्य-रचना की है। उनके पूर्वज दक्षिण आरकाट से जयपुर-नरेश के निमंत्रण पर जयपुर आए थे। बाद में आगरा में उनका स्थायी निवास बना । वही रागय राघव की शिक्षा-दीक्षा हुई। उन्होंने सेंट जान्स कॉलेज, आगरा से 1943 ई. में हिन्दी में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा सन् 1949 ई. में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 39 वर्ष की अल्पायु में ही 12 सितंबर, 1962 ई. को उनकी मृत्यु हो गयी।

           रांगेय राघव ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में रचना की है जिनमें कहानी, उपन्यास, कविता और आलोचना मुख्य हैं। उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं-'रामराज्य का वैभव','देवदासी, 'समुद्र के फेन ', 'अधूरी मूरत', जीवन के दाने', 'अंगारे न बुझे', 'ऐयाश मुर्दे', 'इन्सान पैदा हुआ'। उनके उल्लेखनीय उपन्यास हैं : 'धरौंदा', विषाद-मठ', 'मुदों का टीला', 'सीधा-सादा रास्ता', 'अंधेरे के जुगनू', 'योलते खंडहर' सन् 1961 में राजस्थान साहित्य अकादमी ने उनकी सेवा के लिए उन्हें पुरस्कृत किया। रांगेय राघव की रचनाओं का संग्रह दस खंडों में रांगेय राघव ग्रंथावली' नाम से प्रकाशित हो चुका है।

         रांगेय राधव ने 1936 ई. से ही कहानियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं। उन्होंने अस्सी से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। अपने कथा-साहित्य में उन्होंने जीवन के विविध आयामों को रेखांकित किया है। समाज के शोषित पीड़ित मानव के जीवन के यथार्थ का बहुत ही मार्मिक चित्रण रांगेय राघव की कहानियों में मिलता है। साथ ही शोषण से मुक्ति का मार्ग भी उन्होंने दिखाया है। सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा उनकी कहानियों की विशेषता है।


7. आरिगपूडि  (जन्म - 1922)

       आरिगपूडि का पूरा नाम ए. रमेश चौधरी है। आप तेलुगु भाषी हैं। आप प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक हैं। अंग्रेज़ी में वर्षों से पत्रकारिता कर रहे थे। कई प्रमुख पत्रों के संवाददाता रहे थे । हिन्दी मासिक "चन्दा मामा" आपकी देख-रेख में संपादित होते थे।

      गाँधी से प्रभावित मानव-सुलभ सहानुभूति से प्रेरित होकर आरिगपूडि जी ने अपने अधिक उपन्यासों की कथावस्तु ग्रामीण, पीडित, अनपढ़, गरीब किसानों तथा श्रमिक वर्गों के जीवन से आधारित चुना है । वस्तुतः गाँधी के व्यक्तित्व की आध्यात्मिकता, लोक कल्याण की भावना, पीडितों की सेवाभाव आदि की अर्चना ही उपन्यासकार का उद्देश्य रहा है।

   आपकी रचनाएँ :-

   उपन्यास अपवाद, दूर के ढोल, साँठ-गाँठ; अभिशाप, खरे-खोटे, नदी का शोर, मुद्राहीन ।


8. उषा प्रियंवदा  (जन्म - 1931)

         आधुनिक महिला साहित्यकारों में उषा प्रियंवदा का नाम महत्त्वपूर्ण है। उषा प्रियंवदा का जन्म 24 दिसंबर, 1931 को कानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। अंग्रेज़ी साहित्य से एम.ए., करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आपने डी.फिल. किया। तत्पश्चात् जीविका के क्षेत्र में आई और दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। इसके कुछ वर्ष बाद अमेरिका गयीं और प्रख्यात भाषाविद किम विल्सन के साथ विवाह किया। डिपार्टमेंट ऑफ इंडियन स्टडीज़, यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन (अमेरिका) से भी संबद्ध रही हैं।

         साहित्यिक क्षेत्र में उषा प्रियंवदा ने उपन्यास और कहानियों की रचना की है। पचपन खंभे लाल दीवारें, रुकोगी नहीं राधिका, शेष यात्रा इनके प्रमुख उपन्यास है। कहानी-संग्रह में एक कोई दूसरा, कितना बड़ा झूठ, जिंदगी और गुलाब के फूल, मेरी प्रिय कहानियाँ प्रमुख है।

         उषा प्रियंवदा की कहानियों में नगरीय जीवन की विसंगतियाँ मुखर रूप में दिखाई देती है। चाहे वह समाज का एक स्त्री के प्रति नज़रिया हो, महानगर की चकाचौंध भरी जिंदगी में अकेली स्त्री का संघर्ष हो, पश्चिमी जीवन शैली का प्रभाव हो, संयुक्त परिवारों का विघटन हो, परिवार के लिए अपना सारा जीवन कुर्बान करनेवाली बुजुर्गों की उपेक्षा भरी घुटन हो या कुछ और वे तमाम विसंगतियों को एक नवीन भाव-भंगिमा के साथ अपनी कहानी विषय बनाती हैं। इस दृष्टि से उनका कथा-साहित्य समकालीन जीवन की पुनर्रचना या पुनर्प्स्तुति है ।


9. अमरकांत  (जन्म - 1925)

         जन्म स्थान : ग्राम नगरा, जिला बलिया (उत्तर प्रदेश) शिक्षा : 1941 में गवर्नमेंट हाई स्कूल, बलिया से हाई स्कूल । कुछ समय तक गोरखपुर और इलाहाबाद में इंटरमीडिएट की पढ़ाई, जो 1942 के स्वाधीनता संग्राम में शामिल होने से अधूरी रह गयी, और अंततः 1946 में सतीशचंद्र कॉलेज, बलिया से इंटरमीडिएट किया। 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. पूरा हुआ। 1948 में आगरा के दैनिक पत्र 'सैनिक' के संपादकीय विभाग में नौकरी की। आगरा में ही प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल और कहानी-लेखन की शुरुआत की । इसके बाद दैनिक अमृत पत्रिका', इलाहाबाद, दैनिक 'भारत', इलाहाबाद तथा मासिक पत्रिका 'कहानी', इलाहाबाद, के संपादकीय विभागों से संबद्ध रहा । अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता ('कहानी' मासिक द्वारा आयोजित) में 'डिप्टी- कलक्टरी' कहानी पुरस्कृत । संप्रति 'मनोरमा', इलाहाबाद, के संपादकीय विभाग से संबद्ध रहा।

      प्रकाशित कृतियाँ : जिंदगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र-मिलन और कुहासा (कहानी संग्रह); सूख पत्ता, आकाशपक्षी, काले-उजले दिन, सुखर्जीवी, बीच की दीवार, ग्राम सेविका, खुदीराम, सुन्नर पांडे की पतोहू (उपन्यास); वानर-सेना (बाल-उपन्यास)


10. फणीश्वरनाथ 'रेणु' (1921-1977)

            फणीश्वरनाथ 'रेणु' का जन्म बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने 1942 ई. में 'भारत छोड़ो' स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया । नेपाल के राणाशाही-विरोधी आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया । वे राजनीति में प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। 1953 ई. से वे साहित्य-सृजन के क्षेत्र में आए और उन्होंने कहानी, उपन्यास तथा निबंध आदि विविध साहित्यिक विधाओं में मौलिक रचनाएँ प्रस्तुत कीं।

           'रेणु' हिन्दी के प्रथम आंचलिक कथाकार हैं । उन्होंने अंचल-विशेष को अपनी रचनाओं की आधार भूमि कर आंचलिक शब्दावली एवं मुहावरों का सहारा लेते हुए वहाँ के जीवन और वातावरण का चित्रण किया है । नी गहरी मानवीय संवेदना के कारण वे अभावग्रस्त जनता की येयसी और पीडा को स्वयं भोगते से लगते हैं। जन्तु इस संवेदनशीलता के साथ यह विश्वास अवश्य जुड़ा है कि आज के प्रस्त मनुष्य में अपनी जीवन-दशा को दिल लेने की शक्ति भी है।

        उनके प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं- ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक । तीसरी कसम उर्फ मारे गये राम कहानी पर फ़िल्म भी बन चुकी है । 'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' उनके उल्लेखनीय उपन्यास हैं। श्रृत-अश्रुत पूर्व संकलन में उनके वैयक्तिक निबंध, संस्मरण, रिपोतार्ज आदि कई विधाओं की रचनाएँ हैं।

        रेणु मूलतः कहानीकार तथा उपन्यासकार हैं, किन्तु उन्होंने अनेक मर्मस्पर्शी निबंध भी लिखे हैं उनके प्रबंधों में भी उनके कथाकार की सजीवता और रोचकता बनी हुई है और यथाप्रसंग आंचलिक हृदय भी स्पंदित हो उठता है।


11. ओमप्रकाश वाल्मीकि (1950-2013)

        ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म बरला, जिला मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनका बचपन सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों में बीता। पढ़ाई के दौरान उन्हें अनेक आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट झेलने पड़े ।

       वाल्मीकि जी कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे । यहाँ वे दलित लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डॉ. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का अध्ययन किया। इससे उनकी रचना-दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन हुआ। आजकल वे देहरादून स्थित आप्टो इलैक्ट्रानिक्स फ़ैक्टरी (ऑर्डिनेंस फैक्ट्रीज भारत सरकार) में एक अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं।

       हिन्दी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने अपने लेखन में जातीय अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है। वे मानते हैं कि दलित की पीडा को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। उन्होंने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है। उनकी भाषा सहज, तथ्यपरक और आवेगमयी है। उसमें व्यंग्य का गहरा पुट भी दिखता है। नाटकों के अभिनय और निर्देशन में भी उनकी रुचि है। अपनी आत्मकथा जूठन के कारण उन्हें हिन्दी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। उन्हें सन् 1993 में डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार और सन् 1995 में परिवेश सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। जूठन के अंग्रेज़ी संस्मरण को न्यू इंडिया बुक पुरस्कार, 2004 प्रदान किया गया।

        उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं :- सदियों का संताप, वस! बहुत हो चुका (कविता संग्रह); सलाम, घुसपैठिये (कहानी संग्रह), दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र तथा जूठन (आत्मकथा) ।



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