Thursday, April 1, 2021

हिन्दी - कहानी : स्वरूप और विकास

 

        हिन्दी - कहानी : स्वरूप और विकास


          कहानी' साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा है। इसे किसी निश्चित परिभाषा में बाँधना आसान नहीं । कहानी के स्वरूप से परिचित होने के लिए नीचे कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ दी जा रही हैं

         “कहानी असाधारण घटनाओं की वह परस्पर संबद्ध शृंखला है जो एक चरम परिणति की ओर उन्मुख हो ।"- (ई.एम. फार्स्टर)

          “यह एक प्रकार का वर्णनात्मक गद्य है, जिसे एक बैठक में सुविधापूर्वक पढ़ा जा सके।" (एडगर एलन पो) पो के अनुसार कहानी में पूर्वनिश्चित प्रभावान्विति सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। "कहानी तो बस वही है जो लगभग बीस मिनट में साहस और कल्पना के साथ पढ़ी जाए।"

       - (एच.जी. वेल्स)

      "आख्यायिका एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को रखकर लिखा गया नाटकीय आख्यान है।" - (श्याम सुंदरदास)

         प्रेमचंद ने उपन्यास और कहानी के अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखा है- "कहानी ऐसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा-विन्यास-सभी उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं । उपन्यास की भाँति उसमें मानव-जीवन का संपूर्ण बृहत् रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता, न उसमें उपन्यास की भाँति सभी रसों का सम्मिश्रण होता है। वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेल-बूटे सजे हुए हैं बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।"

       कहानी गद्य-साहित्य की एक ऐसी सशक्त विद्या है जिसमें कथाकार यथार्थ एवं भोगे हुए क्षणों को अभिव्यक्त करता है। किस्सागोई के इस माध्यम में कुछ-न-कुछ कथानक, एक-न-एक पात्र और कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य रहता है। 

       कहानी में रोचकता, प्रवाह और सुसंबद्धता बनाए रखने के लिए आलोचकों ने उसके छह तत्त्वों का उल्लेख किया है। 1, कथावस्तु, 2. चरित्र (पात्र), 3. संवाद, 4. देशकाल (वातावरण), 5. उद्देश्य, 6. भाषा शैली ।

      किन्तु यदि हम कहानी के विकास-क्रम को देखें तो प्रारंभ में कथा-शिल्प की दृष्टि से उसमें बहुत विविधता नहीं मिलती । परंतु बाद की कहानी में यह विविधता क्रमशः विकसित होती हुई दिखाई देती है ।

       प्रेमचंद की कहानियों में विषय की विविधता है। जीवन की गहरी पकड़ और सामाजिक समस्याओं का भी उनकी कहानियों से हमें परिचय मिलता है। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के जन्मदाता और 'कथा. सम्राट' माने जाते हैं। उनकी कहानियों में ग्रामीण, कस्बाई और शहरी जीवन का यथार्थ चित्र हमें मिलता है। मध्यवर्ग और निम्नवर्ग उनकी कहानियों के केन्द्र में है। ब्रिटिश शासन और जमींदारों के अत्याचारों को प्रेमचंद ने राष्ट्रीय चेतना बनाकर जागृति पैदा की। प्रेमचंद की भाषा-शैली अत्यंत सरल, प्रवाहशील और मुहावरेदार है।

       प्रेमचंद ने अनेक कहानियाँ लिखीं। लेकिन चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने मात्र तीन कहानियाँ लिखकर ही हिन्दी कहानी में अपना स्थायी स्थान बना लिया। उनकी कहानी 'उसने कहा था' में पंजाब का जीवन और द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका के बीच प्रेम का अद्भुत चित्र प्रस्तुत हुआ है गुलेरी जी की इस कहानी में मानवीय संवेदना और देश-भक्ति मुख्य रूप से प्रकट हुआ है ।

       सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ पर व्यंग्य तथा कथावस्तु की सीधे सादे ढंग से प्रस्तुति उनकी प्रमुख विशेषताएँ हैं।

       पाँचवें दशक के आरंभ में अनेक ऐसे कहानीकार आए जिन्होंने कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से सशक्त और महत्त्वपूर्ण कहानियों की रचना की । इनमें उपेन्द्रनाथ 'अश्क', भगवतीचरण वर्मा और विष्णु प्रभाकर उल्लेखनीय हैं।

        पाँचवें दशक का अंत कहानी-रचना के क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय है । इसमें रांगेय राघव, भीष्म साहनी और फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर हिन्दी - कहानी को नयी दिशा प्रदान की। रांगेय राघव प्रगतिशील विचारधारा के कहानीकार थे। शोषित-पीड़ित मानव-जीवन के यथार्थ का बहुत ही मार्मिक चित्रण उनकी कहानियों में मिलता है। उनकी कहानियों में 'गदल', 'पेड़़', 'गूँगे', 'मृगतृष्णा', 'लक्ष्मी का वाहन', 'इन्सान पैदा हुआ' विशेष महत्त्वपूर्ण हैं | भीष्म साहनी की कहानियों में पाठक घटना से पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वे मूलतः मध्यवर्गीय चेतना के कहानीकार हैं। देश के विभाजन से उत्पन्न मध्यवर्गीय चेतना के कहानीकार हैं। देश के विभाजन से उत्पन्न समस्याओं को लेकर भी उन्होंने बहुत ही सशक्त और यथार्थवादी कहानियाँ लिखी हैं। सांप्रदायिक एकता को महत्त्व देनेवाले कहानीकारों में उनका विशिष्ट स्थान है। 'सरदारनी', 'अमृतसर आ गया', 'चीफ़ की दावत', 'खिलौने "भाग्य रेखा' आदि कहानियाँ उनके कथा-शिल्प का प्रतिनिधित्व करती हैं । फणीश्वरनाथ 'रेणु' की कहानियों में ग्रामीण अंचल का जीवंत चित्रण मिलता है। अपनी कहानियों में उन्होंने गाँव की बेचैनी और बेबसी के साथ ही ग्रामीण रोमांस को भी रेखांकित किया है। तीसरी कसम उर्फ़ मारे गये गुलफाम', 'पंचलाइट' और 'ठेस' इस दृष्टि से उनकी सशक्त कहानियाँ हैं।

           छठे दशक के मध्य में नयी कहानी का क्षेत्र व्यापक हो गया । इस काल में चार महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ प्रतीक', 'कल्पना', 'निकष' और 'कहानी' नियमित रूप से प्रकाशित हो रही थीं इन पत्रिकाओं के माध्यम से नये कहानीकारों की एक पूरी पीढ़ी सामने आयी जिसमें मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, अमरकांत, मार्कंडेय, शिवप्रसाद सिंह, कृष्णा सोबती, शेखर जोशी, उषा प्रियंवदा, मत्रू भंडारी, निर्मल वर्मा आदि उल्लेखनीय हैं । इन सभी कहानीकारों ने युग के यथार्थ को अनुभव के धरातल पर परखकर अभिव्यक्त किया। उनकी कहानियों में जहाँ भोगे हुए क्षणों को मार्मिकता के साथ उकेरा गया है वहीं दूसरी ओर जीवन मूल्यों के साथ संघर्ष करते हुए मानव की सही तस्वीर भी प्रस्तुत की गयी है। इस काल की कहानियों में परंपरागत संबंधों के प्रति अनास्था, टूटते जीवन मूल्य, देश का विभाजन, मध्यवर्गीय जीवन की घुटन आदि का सफल चित्रण मिलता है। इस काल की कुछ प्रमुख कहानियाँ हैं- 'मलव का मालिक' (मोहन राकेश), 1. जहाँ लक्ष्मी कैद है' (राजेन्द्र यादव), 'राजा निरबंसिया' (कमलेश्वर), 'डिप्टी कलेक्टरी', (अमरकांत), सिक्का बदल गया (कृष्णा सोबती), 'कर्मनाशा की हार' (शिवप्रसाद सिंह), 'डार से बिछुड़ी' (कृष्णा सोबती), 'दाज्यू (शेखर जोशी), 'वापसी' (उषा प्रियंवदा), 'यही सच है' (मन्नू भंडारी), 'परिन्दे' (निर्मल वर्मा), 'चीफ़ की दावत' (भीष्म सहनी) आदि ।

          छठे दशक की एक मुख्य प्रवृत्ति आंचलिकता है। कृषकों और ग्रामीण मज़दूरों के जीवन को आधार बनाकर अनेक सशक्त कहानियों की रचना हुई । इस काल में रेणु की आंचलिक परंपरा को प्रोत्साहन मिला और मार्कंडेय, शिवप्रसाद सिंह, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी आदि ने महत्त्वपूर्ण आंचलिक कहानियों की रचना की। उन्होंने ग्रामीण जीवन के यथार्थ को उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत किया । वातावरण के परिप्रेक्ष्य में उनकी भाषा में आंचलिक प्रभाव स्पष्ट झलकता है।

        छठे दशक की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है- हिन्दी-कथा-साहित्य में अनेक महिला कहानीकारों का उल्लेखनीय योगदान है। इनमें कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा और शिवानी प्रमुख हैं । इन कहानी लेखिकाओं ने न केवल समाज में व्याप्त विसंगतियों को अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया, अपितु पारिवारिक जीवन और नारी जीवन की सूक्ष्म मनोदशाओं का सफल अंकन भी किया।

        'नयी कहानी' आंदोलन ने हिन्दी कहानी को सजृनशीलता के स्तर पर काफ़ी उर्वर भूमि दी। उदाहरणार्थ रांगेय राघव की कहानियों की भाषिक संवेदनशीलता, अमरकांत की कहानियों की प्रखर व्यंग्यशीलता, राजेन्द्र यादव की कहानियों में- शिल्प की सजगता, मार्कंडेय, शिवप्रसाद सिंह और रेणु की कहानियों की आंचलिकता आदि प्रवृत्तियाँ समकालीन कहानीकारों को निरंतर प्रेरित करती रहीं । भाषा को पात्रानुकूल रखना भी सर्जनात्मक स्तर पर इन कहानीकारों की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । इसके साथ ही हरीशंकर परसाई, शरद जोशी में व्यंग्य की पैनी दृष्टि दिखाई दी तो इब्राहीम शरीफ़ और रमेश चौधरी आरिगपूड़ि ने अपनी कहानियों में आम आदमी के जीवन को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया ।

       सातवें और आठवें दशक में महानगरीय संत्रास, कुंठा, बेरोजगारी, आक्रोश, पारस्परिक संबंधों में तनाव, भ्रष्टाचार, अकेलापन, औद्योगिक सभ्यता से उत्पन्न अनास्था आदि को कहानीकारों ने कहानी विषय बनाया। इस काल में कहानी के शिल्प में भी विविधता आयी। विषय के अनुसार शिल्प का निर्धा इस काल की कहानियों की प्रमुख उपलब्धि है। अनेक कहानीकारों ने आम आदमी की पीड़ा के जीवतं चित्र को उपस्थित करने में सफलता प्राप्त की। भोगे हुए यथार्थ एवं बदलते हुए जीवन-मूल्यां को उन्होंने अपनी कहानियों में प्रमुखता दी। मौलिकता की तलाश में जीवन के प्रति नवीन दृष्टिकोण का वोध भी उनकी कहानियों में परिलक्षित होता है। का

       लघु कहानी इन दोनों दशकों के कहानीकारों की एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक उपलब्धि है। मानवीय मूल्यों के प्रति लघु कथाकार काफ़ी सजग दिखाई देते हैं । व्यक्ति, समाज और परिवार में लक्षित होनेवाली विसंगतियों के कारणों की तलाश करने के साथ ही हल निकालने की कोशिश भी वे करते हैं। राजनीतिक भ्रष्टाचार को इन कहानीकारों ने बारीकी के साथ प्रस्तुत करने की चेष्टा की है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि आकार में संक्षिप्त होने पर भी लघुकथाएँ अपनी मार्मिकता में प्रायः अविस्मरणीय होती हैं ।

       सातवें दशक में हिन्दी कहानी ने जो मोड़ लिया था उसकी प्रमुख विशेषता थी ज्ञात संदरभों को युगीन आवश्यकता के अनुसार नये सिरे से देखना और अनछुए प्रसंगों को उकेरने में संकोच न करना । दोनों ही स्थितियों में कहानीकारों ने कहीं क्षोभ, कहीं व्यंग्य और कहीं संयत अभिव्यक्ति का आश्रय लिया । समाज का कोई शोषित-पीड़ित वर्ग उनकी दृष्टि से नहीं बचा । यही प्रवृत्तियाँ आठवें दशक की कहानियों में मिलती हैं। इस दौर के कहानिकारों की भाषा में अभिव्यक्ति की सादगी एवं संवेदनशीलता है। इस दृष्टि से काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, इब्राहीम शरीफ़, गिरिराज किशोर, रमेश बक्षी, महेन्द्र भल्ला, ममता कालिया आदि उल्लेखनीय हैं। एक ओर जहाँ काशीनाथ सिंह कथ्य को सहज एवं वास्तविक रूप में प्रस्तुत करते हैं, वहीं दूसरी ओर ज्ञानरंजन की कहानियों में बोलचाल की भाषा के परिष्कृत रूप के साथ जीवन की विडंबना दृष्टिगत होती है। इस काल के अन्य कहानीकारों की भाषा भी वर्णन, व्यंग्य एवं संवाद के धरातल पर अपनी अलग पहचान बनाती है। परिवेश की पकड़, मौलिकता, अभिव्यक्ति की ताज़गी और घटनाओं की जीवंत प्रस्तुति की दृष्टि से आज का कथा साहित्य निश्चय ही महत्त्वपूर्ण हैं।

        अनेक नये कहानीकार नये तेवर के साथ कहानियाँ लिख रहे हैं और नयी दिशा की तलाश कर रहे हैं। इन कहानीकारों में दलित जीवन की विडंबनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपना विशेष स्थान बना लिया है।


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