Monday, April 19, 2021

काव्य सौंदर्य के तत्व - रस

 

     काव्य सौंदर्य के तत्व

1.2 रस


            यहाँ यह जान लेना उचित होगा कि साहित्य में रस क्या होता है ? सभी साहित्य पढ़ने वाले यह बात मानते हैं कि साहित्य पढ़ने से पाठक को आनंद का अनुभव होता है। परंतु यह आनंद वैसा नहीं होता जैसा संसार की दूसरी भौतिक वस्तुओं से मिलता है। साहित्य पढ़ने या सुनने, नाटक या सिनेमा देखने से जो आनंद मिलता है उसे साहित्य शास्त्र में 'रस' कहते हैं। यह आनंद व्यक्तिगत राग-द्वेष से रहित होता है। सांसारिक प्रेम में प्रेमी जब प्रेम करता है तो वह दुखी होता है या क्रोध करता है क्योंकि इस प्रेम, दुख या क्रोध में प्रेमी का किसी से कोई न कोई व्यक्तिगत संबंध होता है। परंतु काव्य को पढ़कर या सुनकर या नाटक में अभिनय को देखकर यदि हमें प्रेम, दुख और क्रोध की अनुभूति होती है तो उसमें हमारा या प्रेमी का अपना स्वार्थ, राग या द्वेष नहीं होता। इस प्रकार साहित्य के इस अनुभव में हमारी संकीर्णता समाप्त हो जाती है और तब हम उस साहित्य का आनंद ले सकते हैं जो सबके लिए है। प्राचीन आचार्यों ने इसकी तुलना योगियों की समाधि के अनुभव या ब्रह्मानंद से की है।


रस के अवयव

   रस के चार अवयव हैं। ये है :

  1. स्थायीभाव, 2 विभाव, 3. अनुभाव, 4. संचारीभाव

       (1)  स्थायीभाव 

       स्थायीभाव उन संस्कारों या भावों को कहते हैं जो मनुष्य में जन्म से ही सहज रूप में रहते हैं, जैसे मनुष्य के चित्त में प्रेम, करुणा, दुख, क्रोध, आश्चर्य, उत्साह के भाव हमेशा रहते हैं। इसी तरह साहित्य में भी ये भाव हमें दिखाई देते हैं। इन्हें स्थायीभाव कहा जाता है।

        स्थायीभाव दस हैं रति (स्त्री-पुरुष का प्रेम), हास, शौक, क्रोध, उत्साह, भय, घृणा, विस्मय (आश्चर्य), निर्वेद (वैराग्य या शांति) और स्नेह (बाल प्रेम) (अपने से छोटों से प्रेम) ।

         इन स्थायीभावों के आधार पर ही काव्य में दस रस माने जाते हैं श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शांत और वात्सल्य

      (2)  विभाव

      स्थायीभाव को उत्पन्न करने में जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं :

     (i) आलंबन विभाव (ii) उद्दीपन विभाव

(i) आलंबन विभाव: 

       आलंबन विभाव वह व्यक्ति या पात्र होता है जिसके सहारे स्थायीभाव उत्पन्न होता है।

(ii) उद्दीपन विभाव: 

    पाठक या दर्शक के मन में उठने वाले स्थायीभाव को जो तत्व बढ़ाते या उकसाते हैं उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के हैं। जैसे श्रृंगार रस के उदाहरण में एक तो जिससे नायक प्रेम करता है उसकी शारीरिक चेष्टाएँ या हावभाव नायक के मन में रतिभाव को बढ़ाते हैं और दूसरा आसपास का सुंदर वातावरण, चाँदनी रात आदि नायक के रतिभाव को तीव्र करने में सहायक होते हैं। 

(3) अनुभाव : 

    स्थायीभाव के उत्पन्न होने के बाद जो भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभाव कहा जाता है। ये अनुभाव उस व्यक्ति (नायक, प्रेमी) में उत्पन्न होते हैं जो स्थायीभाव का आश्रय है। आश्रय की बाहरी चेष्टाओं को अनुभाव कह सकते हैं। जैसे किसी को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाना, कँपकँपी छूटना, पसीना आना आदि।

(4) संचारीभाव: 

      स्थायीभाव के साथ आते-जाते रहने वाले भावों को संचारीभाव कहते हैं। संचारीभाव तीस हैं, जैसे-चिंता, आलस्य, शंका, लज्जा, चपलता, हर्ष-विषाद, गर्व, उत्सुकता आदि।

रस, स्थायीभाव और संचारीभाव के संबंधों को इस प्रकार दिखाया जा सकता है :





यहाँ हम तीन प्रमुख रसों के बारे में जानेंगे :

श्रृंगार रस

       नायक-नायिका (स्त्री-पुरुष) के पारस्परिक प्रेम (मिलन या विरह) के वर्णन से हृदय में उत्पन्न होने वाले आनंद को श्रृंगार रस कहते हैं। इसका स्थायीभाव रति है। श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दो भेद होते हैं। उदाहरण देखें

        बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय
        सौंह करे, भौहनि हँसे, दैन कहै नट जाय ।।

इस उदाहरण में संयोग श्रृंगार है। इसमें प्रेमी आश्रय है, प्रेमिका विषय (आलंबन)। प्रेमिका की सुंदरता उद्दीपन है। मोह आदि संचारीभाव हैं। इनसे यहाँ रति (प्रेम) स्थायीभाव प्रकट होता है जिससे संयोग श्रृंगार रस उत्पन्न होता है।

         मधुवन तुम क्यों रहत हरे,
         विरह वियोग श्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे ?

       यहाँ श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर ब्रज के लोगों में उनके विरह के कारण वियोग श्रृंगार रस उत्पन्न हो रहा है। यहाँ आलंबन (श्रीकृष्ण), गोपियाँ (आश्रय) हैं। दुर्बल होना, आँसू बहाना, अनुभाव तथा दैन्य स्मृति विषाद, चिंता आदि संचारीभाव हैं।

श्रृंगार रस के कुछ अन्य उदाहरण देखिए

        हे खगमृग, हे मुधकर श्रेनी, 
 
        तुम देखी सीता मृगनयनी ।

        निसदिन बरसत नैन हमारे।
   
       सदा रहत पावस ऋतु हम पै, जब ते स्याम सिधारे।


वीर रस

     दीनों की दुर्दशा देखकर उनका उद्धार करने तथा शत्रु के उत्कर्ष को मिटाने आदि में जो उत्साह, कर्म-क्षेत्र में प्रवृत्त करता है, वह वीर रस कहलाता है। इसका स्थायीभाव उत्साह है।

            मैं सत्य कहता हूँ सखे। सुकुमार मत जानो मुझे

            यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे।

      यह अभिमन्यु का सारथी के प्रति कथन है। यहाँ पर कौरव आलंबन, अभिमन्यु आश्रय, चक्रव्यूह उद्दीपन, अभिमन्यु के वाक्य अनुभाव और गर्व, हर्ष आदि संचारीभाव हैं। वीर रस का उदाहरण देखिए

          जौं तुम्हारि अनुसासन पार्वौ। कंदुक इव ब्रह्मांड उठाव ।। 

          काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी ।।

         तप प्रताप महिमा भगवाना को बापुरो पिनाक पुराना ।।


हास्य रस

       किसी व्यक्ति या वस्तु की बिगड़ी हुई, भद्दी या कुरूप आकृति, विचित्र वेशभूषा, बातचीत का ढंग या चेष्टाएँ, आभूषण आदि को देखकर मन में जो विनोद का भाव पैदा होता है उस भाव को 'हास्य रस कहते हैं।

     उदाहरण

          दौड़-धूप में क्या रक्खा आराम करो आराम करो।

         आराम जिंदगी की कुंजी इससे न तपेदिक होती है। 

        आराम सुधा की एक बूँद, तन का दुबलापन खोती है। 

        आराम शब्द में राम छिपा, जो सब बंधन को खोता है।

        आराम शब्द का ज्ञाता तो बिरला ही योगी होता है। 

        इसलिए तुम्हें समझाता हूँ मेरे अनुभव से काम करो। 

        आराम करो आराम करो।।

                                                     -गोपाल प्रसाद 'व्यास'

     यह कविता एक आलसी आदमी द्वारा कही गई है। इससे हास्य रस की सृष्टि होती है।



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