Sunday, April 28, 2024

निर्मला  - कथासार

 


निर्मला  - कथासार



       उदयभानुलाल बनारस के एक प्रसिद्ध वकील थे। उनकी आमदनी अच्छी थी । लेकिन वे बचत करना नहीं जानते थे । जब उनकी बडी लड़की निर्मला के विवाह का वक्त आया तब दहेज की समस्या उठ खडी हुई । बाबू भालचंद्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवनमोहन सिन्हा से निर्मला की शादी की बात पक्की हो गई । सौभाग्य से सिन्हा साहब ने दहेज पर जोर नहीं दिया । इससे उदयभानुलाल को राहत मिली । निर्मला केवल पन्द्रह वर्ष की थी। इसलिए विवाह की बात सुनकर उसे भय ही ज्यादा हुआ । एक दिन उसने एक भयंकर स्वप्न देखा । वह एक नदी के किनारे पर खडी थी । एक सुंदर नाव आयी । पर मल्लाह ने निर्मला को उस पर चढ़ने नहीं दिया । फिर एक टूटी-फूटी नाव में उसे जगह मिली । नाव उलट जाती है और निर्मला पानी में डूब जाती है। तभी निर्मला की नींद टूटी ।


निर्मला के विवाह की तैयारियां शुरू हो गयीं । दहेज देने की ज़रूरत न होने से उदयभानुलाल बारातियों का स्वागत धूमधाम से करने के लिए पानी की तरह रुपए खर्च करने लगे । यह बात उनकी पत्नी कल्याणी को पसंद नहीं आयी । इस कारण से पति- पत्नी के बीच में जोरदार वाद-विवाद चला। कल्याणी ने मायके चले जाने की धमकी दी। पत्नी के कठोर वचन से दुखित होकर उदयभानुलाल ने उसे एक सबक सिखाना चाहा। नदी के किनारे पहुंचकर, वहां कुरता आदि छोडकर उन्होंने किसी अन्य शहर में कुछ दिनों के लिए चले जाने का निश्चय किया । लोग समझेंगे कि वे नदी में डूब गए । तब पत्नी की घमंड दूर हो जायेगी। उद्यभानुलाल आधी रात को नदी की ओर चल पडे । एक बदमाश ने, जो उनका पुराना दुश्मन था, उन पर लाठी चलाकर मार गिरा दिया ।

        अब निर्मला के विवाह की जिम्मेदारी कल्याणी पर आ पडी । उसने पुरोहित मोटेराम के द्वारा सिन्हा को पत्र भेजा । वर्तमान हालत को देखकर साधारण ढंग से शादी के लिए स्वीकृति देने की प्रार्थना की । सिन्हा असल में लालची थे । वे उद्यभानुलाल के स्वभाव से परिचित थे । उनका विचार था कि दहेज का इनकार करने पर उससे भी ज्यादा रकम मिल जायेगी । उदयभानुलाल की मृत्यु की खबर सुनकर उनका विचार बदल गया । उनकी स्त्री रंगील बाई को कल्याणी के प्रति सहानुभूति थी । लेकिन पति की इच्छा के विरुद्ध वह कुछ नहीं कर सकी। वेटा भुवनमोहन भी बडा लालची था । वह दहेज के रूप में एक मोटी रकम मांगता था चाहे कन्या में कोई भी ऐब हो ।

       मोटेराम निर्मला के लिए अन्य वरों की खोज करने लगे । अगर लड़का कुलीन या शिक्षित या नौकरी में हो तो दहेज अवश्य मांगता था । आखिर मन मारकर कल्याणी ने निर्मला के लिए लगभग चालीस साल के वकील तोताराम को वर के रूप में चुन लिया । वे काफ़ी पैसेवाले थे । उन्होंने दहेज की मांग भी नहीं की।


निर्मला का विवाह तोताराम से हो गया । उनके तीन लड़के थे मंसाराम, जियाराम, सियाराम । मंसाराम सोलह बरस का था । वकील की विधवा बहिन रुक्मिणी स्थाई रूप से उसी घर में रहती थी । तोताराम निर्मला को खुश रखने के लिए सब तरह के प्रयत्न करते थे । अपनी कमाई उसीके हाथ में देते थे । लेकिन निर्मला उनसे प्रेम नहीं कर सकी; उनका आदर ही कर सकी । रुक्मिणी बात-बात में निर्मला की आलोचना और निन्दा करती थी । लड़कों को निर्मला के विरुद्ध उकसाती थी । एक बार निर्मला ने तोताराम से शिकायत की तो उन्होंने सियाराम को पीट दिया । -

     निर्मला समझ गयी कि अब अपने भाग्य पर रोने से कोई लाभ नहीं है । अतः वह बच्चों के पालन-पोषण में सारा समय बिताने लगी । मंसाराम से बातें करते हुए उसे तृप्ति मिल जाती थी । निर्मला पर प्रभाव डालने के लिए तोताराम रोज अपने साहसपूर्ण कार्यों का वर्णन करने लगे जो असल में झूठ थे। एक दिन उन्होंने बताया कि घर आते समय तलवार सहित तीन डाकू आ गए और उन्होंने अपनी छडी से उनको भगा दिया । तभी रुक्मिणी आकर बोली कि कमरे में एक सांप घुस गया है । तुरंत तोताराम भयभीत  होकर घर से बाहर निकल गए । निर्मला समझ गयी कि मुंशी जी क्या चाहते हैं। उसने पत्नी के रूप में अपने को कर्तव्य पा मिटा देने का निश्चय किया ।


निर्मला अब सज-धजकर रहने और पति से हंसकर बातें करने लगी । लेकिन जब मुंशी जी को मालूम हुआ कि वह मंसाराम से अंग्रेज़ी सीख रही है तब वे सोचने लगे कि शायद इसीलिए आजकल निर्मला प्रसन्न दीखती है । उनके मन में शंका पैदा हो गयी । उनको एक उपाय सूझा । मंसाराम पर यह आक्षेप लगाया कि वह आवारा घूमता है । इसलिए वह स्कूल में ही रहा करे। रुक्मिणी ने सोचा कि निर्मला ने मंसाराम की शिकायत की होगी। वह निर्मला से झगड़ा करने लगी । निर्मला ने तोताराम से अपना निर्णय बदलने को कहा । मुंशी जी का हृदय और भी शंकित हो गया ।

         मंसाराम दुखी होकर सारा दिन घर पर ही रहने लगा । वह बहुत कमजोर भी हो गया । मुंशी जी की शंका जरा कम हुई । एक दिन मंसाराम अपने कमरे में बैठे रो रहा था । मुंशी जी ने उसे सांत्वना देते हुए सारा दोष निर्मला पर मढ़ दिया । निष्कपट बालक उस पर विश्वास करके अपनी विमाता से नफ़रत करने लगा । निर्मला भी अपने पति के शक्की स्वभाव को समझ गयी । उसने मंसाराम से बोलना भी बंद कर दिया।

       मंसाराम को गहरा दुख हुआ कि निर्मला ने उसके पिताजी से उसकी शिकायत की थी। वह अपने को अनाथ समझकर कमरे में ही पडा रहता था । एक रात को वह भोजन करने के लिए भी नहीं उठा । निर्मला तडप उठी । मुंशी जी बाहर गये हुए थे । निर्मला मंसाराम के कमरे में जाकर उसे प्यार से समझाने लगी। उसी वक्त तोताराम आ गए । तुरंत निर्मला कठोर स्वर में बोलने लगी और मंसाराम की शिकायत करने लगी । मंसाराम इस भाव-परिवर्तन को नहीं समझ सका । निर्मला के व्यवहार से उसे वेदना हुई । अगले दिन वह हेडमास्टर से मिलकर हास्टल में रहने का प्रबंध कर आया । निर्मला से कहे बिना वह अपना सामान लेकर चला गया ।

         निर्मला ने सोचा कि छुट्टी के दिन मंसाराम घर आएगा । पर वह नहीं आया । मंसाराम की आत्म पीडा का अनुमान कर उसे अपार दुख हुआ । एक दिन उसे मालूम हुआ कि मंसाराम को बुखार हो गया है। वह मुंशी जी से प्रार्थना करने लगी कि वे मंसाराम को हास्टल से घर लाएं ताकि उसकी सेवा ठीक तरह से हो सके । यह सुनकर मुंशी जी का संदेह फिर ज्यादा हो गया ।

मंसाराम कई दिनों तक गहरी चिन्ता में डूबा रहा । उसे पढने में बिलकुल जी नहीं लगा । जियाराम ने आकर घर की हालत बतायी । यह भी कहा कि पिताजी के कारण ही निर्मला को कठोर व्यवहार का स्वांग करना पडा । इस विषय पर मंसाराम  गहराई से सोचने लगा । तब अचानक वह समझ गया कि पिता जी के मन में निर्मला और उसको लेकर संदेह पैदा हुआ है। वह इस अपमान को सह नहीं सका । उसके लिए जीवन भार-स्वरूप हो गया। गहरी चिन्ता के कारण उसे जोर से बुखार हो गया । वह स्कूल के डाक्टर के पास गया । उनसे बातें करते हुए उसे एक ज़हरीली दवा के बारे में जानकारी मिली जिसे पीते ही दर्द के बिना मनुष्य मर जा सकता है । तुरंत वह खुश हो गया । थियेटर देखने गया । लौटकर हास्टल में शरारतें कीं । अगले दिन ज्वर की तीव्रता से वह बेहोश हो गया । तोताराम बुलाये गये । स्कूल के अध्यक्ष ने मंसाराम को घर ले जाने को कहा । अपने संदेह के कारण मुंशी जी उसे घर ले जाने को तैयार नहीं थे । इसे समझकर मंसाराम ने भी घर जाने से इनकार कर दिया । उसे अस्पताल में दाखिल कर दिया गया ।

       यह जानकर निर्मला सिहर उठी । लेकिन मुंशी जी के सामने उसे अपने भावों को छिपाना पड़ा। वह खूब श्रृंगार करके सहास वदन से उनसे मिलती-बोलती थी । अस्पताल में मंसाराम की हालत चिन्ताजनक हो गई ।

        तीन दिन गुज़र गये । मुंशी जी घर न आए । चौथे दिन निर्मला को मालूम हुआ कि ताजा खून दिये जाने पर ही मंसाराम बच सकता है। यह सुनते ही निर्मला ने तुरंत अस्पताल जाने और अपना खून देने का निश्चय कर लिया । उसने ऐसी हालत में मुंशी मंसाराम कई दिनों तक गहरी चिन्ता में डूबा रहा । उसे पढने में बिलकुल जी नहीं लगा । जियाराम ने आकर घर की हालत बतायी । यह भी कहा कि पिताजी के कारण ही निर्मला को कठोर व्यवहार का स्वांग करना पडा । इस विषय पर मंसाराम जी से डरना या उनकी शंका की परवाह करना उचित नहीं समझा। यह देखकर रुक्मिणी को पहली वार निर्मला पर दया आयी ।


निर्मला को देखते ही मंसाराम चौंककर उठ बैठा । मुंशी जी निर्मला को कठोर शब्दों से डांटने लगे । मंसाराम निर्मला के पैरों पर गिरकर रोते हुए बोला - "अम्मा जी, मैं अगले जन्म में आपका पुत्र बनना चाहूंगा । आपकी उम्र मुझसे ज्यादा न होने पर भी मैंने हमेशा आपको माता की दृष्टि से ही देखा ।" जब मुंशी जी ने सुना कि निर्मला खून देने आयी है तब उनकी सारी शंका दूर हो गयी और निर्मला के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई ।

     डाक्टर निर्मला की देह से खून निकाल रहे थे । तभी मंसाराम का देहांत हो गया । मुंशी जी को अपना भयंकर अपराध महसूस हुआ। उनका जीवन भारस्वरूप हो गया । कचहरी का काम करने में दिल नहीं लगा । उनकी तबीयत खराब होने लगी ।

     मुंशी जी और उस डाक्टर में दोस्ती हो गयी जिसने मंसाराम की चिकित्सा की थी । डाक्टर की पत्नी सुधा और निर्मला सहेलियां बन गयीं । निर्मला अकसर सुधा से मिलने उसके घर जाने लगी । एक बार उसने सुधा को अपने अतीत का सारा हाल सुनाया । सुधा समझ गयी कि उसका पति ही वह वर था जिसने दहेज के अभाव में निर्मला से शादी करने से इनकार किया था । उसने अपने पति की तीव्र आलोचना की । पूछने पर उसने अपने पति से बताया कि निर्मला की एक अविवाहित बहिन है ।

        तीन बातें एकसाथ हुई। निर्मला की कन्या ने जन्म लिया। उसकी बहिन कृष्णा का विवाह तय हुआ । मुंशी जी का मकान नीलाम हो गया । वच्ची का नाम आशा रखा गया (डाक्टर (भुवनमोहन सिन्हा) ने निर्मला के प्रति अपने अपराध के प्रायश्चित्त के रूप में अपने भाई का विवाह कृष्णा से दहेज के बिना तय करा दिया। यह वात निर्मला को मालूम नहीं थी । सुधा ने निर्मला से छिपाकर उसकी मां को विवाह के लिए रुपए भी भेजे थे।

      ये सारी बातें निर्मला को विवाह के समय ही मालूम हुई । वह डा. सिन्हा के प्रायश्चित्त से प्रभावित हुई । विवाह के दिन उसने डाक्टर से अपनी कृतज्ञता प्रकट कर दी । आगे कुछ समय के लिए निर्मला मायके में ही ठहर गई ।

   इधर जियाराम का चरित्र बदलने लगा । वह बदमाश हो गया । वह बात-बात पर अपने पिताजी से झगडा करने लगा। यहां तक उसने कह डाला कि मंसाराम को आप ही ने मार डाला । उनको बाजार में पिटवा देने की धमकी दी । एक दिन डा. सिन्हा ने उसे खूब समझाया तो वह पछताने लगा । उसने निश्चय किया कि आगे वह पिताजी की बात मानेगा । परंतु डाक्टर से मिलकर जब वह घर आया तब आधी रात हो चुकी थी। मुंशी जी उस पर व्यंग्य करने लगे । जियाराम का जागा हुआ सद्भाव फिर विलीन हो गया ।


निर्मला बच्ची के साथ घर वापस आयी । उसी दिन बच्ची के लिए मिठाई खरीदने के संबंध में बाप-बेटे में झगडा हो गया । निर्मला ने जियाराम को डांटा । मुंशी जी ने जियाराम को पीटने के लिए हाथ उठाया । लेकिन निर्मला पर थप्पड पड़ा । जियाराम पिताजी को धमकी देकर बाहर चला गया । निर्मला को भविष्य की चिन्ता सताने लगी । उसने सोचा कि उसके पास जो गहने हैं वे ही भविष्य में काम आएंगे ।

     उस रात को अचानक उसकी नींद खुली । उसने देखा कि जियाराम की आकृतिवाला कोई उसके कमरे से बाहर जा रहा है। अगले दिन वह सुधा के घर जाने की तैयारी कर रही थी। तभी उसे मालूम हुआ कि उसके गहनों की संदूक गायब है । उसे रातवाली घटना याद आयी । जियाराम से पूछताछ करने पर उसने कह दिया कि वह घर पर नहीं था । वकील साहब को मालूम होने पर थाने के लिए चल दिये । निर्मला को जियाराम पर संदेह था । परन्तु विमाता होने के कारण उसे चुप रहना पडा । इसलिए वह मुंशी जी को रोक न सकी । थानेदार ने घर आकर और जांच करके बताया कि यह घर के आदमी का ही काम है। कुछ दिनों में माल बरामद हो गया । तभी मुंशी जी को असली बात मालूम हुई। जियाराम को कैद होने से बचाने के लिए थानेदार को पांच सौ रुपये देने पडे । मुंशी जी घर आये तो पता चला कि जियाराम ने आत्महत्या कर ली ।


गहनों की चोरी हो जाने के बाद निर्मला ने सब खर्च कम कर दिया। उसका स्वभाव भी बदल गया। वह कर्कशा हो गयी। पैसे बचाने के लिए वह नौकरानी के बदले सियाराम को ही बार-बार बाज़ार दौड़ाती थी। वह एक दिन जो घी लाया उसे खराब बताकर लौटा देने को कह दिया । दूकानदार वापस लेने के लिए तैयार न हुआ। वहां बैठे एक साधु को सियाराम पर दया आयी । उनके कहने पर बनिये ने अच्छा घी दिया । साधु को सियाराम के घर की हालत मालूम हुई । जब वे चलने लगे तब सियाराम भी उनके साथ हो लिया । साधु ने बताया कि वे भी विमाता के अत्याचार से पीडित थे । इसलिए घर छोड़कर भाग गये । एक साधु के शिष्य बनकर योगविद्या सीख ली । वे उसकी सहायता से अपनी मृत मां के दर्शन कर लेते हैं। साधु की बातों से सियाराम प्रभावित हुआ और अपने घर की ओर चला। असल में वह बाबा जी एक धूर्त था और लड़कों को भगा ले जानेवाला था ।

 सियाराम घर लौटा तो निर्मला ने लकडी के लिए जाने को कहा। वह इनकार करके बाहर चला गया । घर के काम अधिक होने के कारण वह ठीक तरह से स्कूल न जा पाता था । उस दिन भी वह स्कूल न जाकर एक पेड के नीचे बैठ गया। उसे भूख सता रही थी । उसे घर लौटने की इच्छा नहीं हुई । बाबा जी से मिलने के लिए उत्सुक होकर उन्हें ढूंढने लगा । सहसा वे रास्ते में मिल पडे। पता चला कि वे उसी दिन हरिद्वार जा रहे हैं। सियाराम ने अपने  को भी ले चलने की प्रार्थना की। साधु ने मान लिया । वेचारा सियाराम जान न सका कि वह बाबा जी के जाल में फंस गया है।


मुंशी जी वडी थकावट के साथ शामको घर आये । उन्हें सारा दिन भोजन नहीं मिला था । उनके पास मुकदमे आते नहीं थे या आने पर हार जाते थे । तब वे किसीसे उधार लेकर निर्मला के हाथ देते थे । उस दिन उनको मालूम हुआ कि सियाराम ने कुछ भी नहीं खाया और उसे पैसे भी नहीं दिये गये । उनको निर्मला पर पहली बार क्रोध आया । बहुत रात बीतने पर भी सिया नहीं आया तो मुंशी जी घबराये । बाहर जाकर सब जगह ढूंढने पर भी सिया का पता नहीं चला । अगले दिन भी सुबह से आधी रात तक ढूंढकर वे हार गये ।

        तीसरे दिन शामको मुंशी जी ने निर्मला से पूछा कि क्या उसके पास रुपये हैं । निर्मला झूठ बोली कि उसके पास नहीं है । रात को मुंशी जी अन्य शहरों में सियाराम को ढूंढने के लिए निकल पड़े । निर्मला को ऐसा जान पड़ा कि उनसे फिर भेंट न होगी ।

      एक महीना पूरा हुआ । न तो मुंशी जी लौटे और न उनका कोई खत मिला । निर्मला के पास जो रुपए थे वे कम होते जा रहे थे । केवल सुधा के यहां उसे थोड़ी मानसिक शांति मिलती थी । एक दिन सबेरे वह सुधा के यहां पहुंची । सुधा नदी-स्नान करने गयी हुई थी। निर्मला सुधा के कमरे में जा बैठी । डा. सिन्हा ऐनक ढूंढते हुए उस कमरे में आये । निर्मला को एकांत में पाकर उनका मन चंचल हो उठा। वे उससे प्रेम की याचना करने लगे ।


तुरंत वह कमरे से भागकर दरवाजे पर पहुंची । तब सुधा को तांगे से उतरते देखा । उसके लिये रुके बिना निर्मला तेजी से अपने घर की ओर चली गयी। सुधा कुछ समझ नहीं सकी। उसने डाक्टर से पूछा । उन्होंने स्पष्ट उत्तर नहीं दिया । सुधा तुरंत निर्मला के यहां पहुंची । निर्मला चारपाई पर पडी रो रही थी। उसने स्पष्ट रूप से तो अपने रोने का कारण नहीं बताया । लेकिन बुद्धिमति सुधा समझ गयी कि डाक्टर ने दुर्व्यहार किया है । अत्यंत क्रोधित होकर वह निकल पड़ी । निर्मला उसे रोक न सकी ।

     उसे ज्वर चढ़ आया । दूसरे दिन उसे रुक्मिणी के ज़रिये मालूम हुआ कि डा. सिन्हा की मृत्यु हो चुकी थी । निर्मला को अपार वेदना हुई कि उसीके कारण डाक्टर का अंत असमय हो गया । जब निर्मला डाक्टर के यहां पहुंची तब तक लाश उठ चुकी थी । सुधा ने बताया कि उसने घर लौटकर पति की कड़ी आलोचना कर दी । इससे क्षुब्ध होकर डाक्टर ने अपना अंत कर लिया ।

     एक महीना गुजर गया । सुधा वह शहर छोडकर अपने देवर के साथ चली जा चुकी थी । निर्मला के जीवन में सूनापन छा गया । अब रोना ही एक काम रह गया । उसका स्वास्थ्य अत्यंत खराब हो गया । वह समझ गयी कि उसके जीवन का अंत निकट आ गया है । उसने रुक्मिणी से माफ़ी मांगी कि वह उसकी उचित सेवा न कर सकी । रुक्मिणी ने भी उससे अपने कपटपूर्ण व्यवहार के लिए क्षमा याचना की । निर्मला ने बच्ची को रुक्मिणी के हाथ सौंप दिया ।

 फिर तीन दिन तक वह रोये चली जाती थी । वह न किसीसे बोलती थी, न किसीकी ओर देखती थी और न किसी का कुछ सुनती थी । चौथे दिन संध्या समय निर्मला ने अंतिम सांस ली । मुहल्ले के लोग जमा हो गये । लाश बाहर निकाली गयी । यह प्रश्न उठा कि कौन दाह करेगा । लोग इसी चिन्ता में थे कि सहसा एक बूढ़ा पथिक आकर खड़ा हो गया । वह मुंशी तोताराम थे ।


Saturday, March 30, 2024

हिन्दी गद्य साहित्य की विकास-यात्रा

 


हिन्दी गद्य साहित्य की विकास-यात्रा

       हिन्दी साहित्य के इतिहास का संक्षिप्त परिचय यहाँ भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। हिन्दी गद्य-साहित्य के विकास को जानने से पूर्व ऐतिहासिक काल-विभाजन और साहित्य की प्रवृत्तियों का अवलोकन अप्रासंगिक नहीं होगा।


🔴 आदिकालः

     आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल आदिकाल अथवा वीरगाथा-काल की अवधि, संवत् 1050 से लेकर 1375 तक मानी जाती है। 'वीरगाथा' शब्द से ही उस काल- गत काव्य की प्रमुख विशेषता का बोध हो जाता है। यद्यपि भक्ति, श्रृंगार, सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी कविगण अपनी रचनाएँ करते रहे, फिर भी साहित्य के समग्र रूप का आकलन करते समय युद्ध- साहित्य, युद्ध के वर्णन की प्रधानता के कारण यह नामकरण सर्वमान्य रहा। इस काल की रचनाओं में विजयपालरासो, हम्मीररासो, कीर्तिलता और कीर्तिपताका को अपभ्रंश-साहित्य मानते हुए गिनती में नहीं लिया गया। खुमानरासो, बीसलदेवरासो, पृथ्वीराजरासो, जयचंद प्रकाश, जयमयंक जसचंद्रिका, परमालरासो, खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली प्रमुख मानी जाती हैं। इसी युग के अंतर्गत नाथ-सिद्ध-साहित्य भी समाविष्ट है। जैन मुनियों का विशाल धार्मिक साहित्य भी उपलब्ध है। कवि अब्दुर रहमान का 'संदेश रासक' इसी युग की अत्यंत रमणीय कृति है। विषय-वस्तु की दृष्टि से स्पष्ट है कि इस कालखण्ड में वीरगाथात्मक रचनाएँ ही नहीं, बल्कि विभिन्न रसों की साहित्यिक कृतियाँ भी समाविष्ट की गई हैं।

🔴 भक्तिकालः

          संवत् 1375 से लेकर 1700 तक का समय भक्ति काल माना जाता है। नामकरण की समस्या ने इस कालखण्ड को भी अछूता नहीं छोड़ा है। भक्ति-काल, जो कि पूर्व मध्यकाल भी कहलाता है, के दौरान भक्ति की भावधारा ने ही साहित्य को समृद्ध बनाया है; यों कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। इस काल में भक्ति की भी विभिन्न शाखाएँ और धारणाएँ प्रचलन में रहीं। पं. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार भक्ति- आन्दोलन भारतीय चिंतन का ही स्वाभाविक विकास है। नाथ-सिद्धों की साधना, अवतारवाद, लीलावाद आदि प्रवृत्तियाँ दक्षिण भारत से आकर, इस धारा में घुलमिल गयीं। यह आन्दोलन और साहित्य लोकोन्मुख और मानवीय करुणा के महान् आदर्श से युक्त था। भक्ति की ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी रूपी दो शाखाएँ निकल पड़ी। हिन्दु-मुस्लिम संप्रदाय के समन्वय की प्रवृत्ति को लेकर ज्ञानाश्रयी शाखा का कबीर ने नेतृत्व किया तो सूफ़ी संप्रदाय के अनुयायी प्रेमाश्रयी पंथ पर चल पड़े।


👉 निर्गुण धाराः - 

    भक्ति-काल के प्रारंभ की संत काव्य-परंपरा अत्यंत महत्व रखती है। कबीरदास के पहले भी यद्यपि निर्गुणोपासक भक्त संत कवि के रूप में प्रसिद्ध रहे तथापि कबीर के समय से ही इस काव्य धारा को स्थायित्व प्राप्त हुआ। संत काव्य की अनेक विशेषताएँ हैं।

   कवि निराकार ब्रह्म का वर्णन करते हैं, उनके साथ साक्षात्कार और मिलन की अनुभूति प्रकट करते हैं। निर्गुण साहित्य में अंतर्निहित रहस्यवाद इसी अनुभूति की उपज है।

     इस धारा के कवि समाज-सुधारक भी थे। जाति-भेद, वर्ण-भेद, शोषण आदि का खंडन इनके काव्य के माध्यम से लक्षित होता है। गुरु की महिमा, वाह्याडंबर एवं रूढ़िवाद का खंडन, इनकी अन्य विशेषताएँ हैं।

संत रैदास, धरमदास, दादूदयाल, सुंदरदास, मलूकदास आदि अन्य प्रमुख कवि हैं। ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में इस पंथ के कवि लिखा करते थे। इन कवियों की भाषा आम तौर पर सधुक्कड़ी मानी जाती है।

उदाहरण के लिए कबीरदास का दोहा इस प्रकार है-

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोइ। 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सु पंडित होइ ।।

मलूकदास की रचना का उदाहरण देखें:-

अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।

 दास मलूका कहि गये, सबके दाता राम।।

गुरुनानक जैसे पंजाब के संत कवि ने भी इसी पंथ को अपनाया था।

     प्रेमाख्यान परंपरा के अंतर्गत दो प्रकार के प्रेमाख्यान मिल रहे हैं। आध्यात्मिक प्रेमपरक काव्य और विशुद्ध लौकिक प्रेमगाथा काव्य। मुसलमान सूफी कवियों के द्वारा तथा हिन्दू भक्त कवियों के द्वारा विरचित प्रेमाख्यानों में कुतुबन का "मृगावती", मंझन का "मधुमालती" जैसे काव्य प्रसिद्ध हैं। मलिक मुहम्मद जायसी, जो प्रसिद्ध सूफी संत थे, के पद्मावत काव्य ने हिन्दी प्रेमकाव्य परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। सूफी कवियों की रचनाएँ प्रायः कल्पना पर आधारित हुआ करती थीं, पर जायसी ने कल्पना के साथ-साथ इतिहास का भी समावेश किया।

      सूफ़ी शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। ज्ञानी के अर्थ में प्रचलित यूनानी शब्द सूफ़ी से संबंध जोड़ा जाता है। दूसरी राय के अनुसार सूफ़ - अर्थात् पवित्रता के आधार पर परमात्मा से जुड़कर, सादा और पवित्र जीवन जीनेवाले सूफी संत कहलाये।

👉 सगुणधारा

    सगुण भक्तिधारा के अंतर्गत रामभक्ति और कृष्णभक्ति के नाम से दो शाखाएँ प्रचलन में आयीं। रामचरितमानस और अन्य विशिष्ट कृतियों के रचयिता के रूप में गोस्वामी तुलसीदास ने इस शाखा का नेतृत्व किया। कृष्णभक्ति शाखा को वल्लभाचार्य ने और उनके शिष्यों, जिन्हें "अष्टछाप" के नाम से जाना जाता है- ने अपने साहित्य से पुष्ट किया।


👉 रामभक्ति शाखा

      रामभक्ति शाखां के श्रेष्ठ कवि हैं गोस्वामी तुलसीदास। उन्होंने रामचरितमानस के माध्यम से हिन्दी को प्रौढ़तम साहित्य दिया है। रामचरितमानस के अलावा आपके "कवितावली" रामलीला नहछु, वरवै रामायण, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, गीतावली, वैराग्य सन्दीपनी, कृष्ण गीतावली, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली और विनय पत्रिका आदि ग्रंथ प्रामाणिक माने गये हैं।

     नाभादास, प्राणचन्द्र चौहान, हृदयराम आदि रामभक्ति शाखा के अन्य कवि हैं।


👉 कृष्णभक्ति शाखा

       कृष्णभक्ति शाखा के सबसे प्रसिद्ध कवि सूरदास हुए। सूरसागर, सूर-सारावली और साहित्यलहरी इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में "हमारे जाने हुए साहित्य में इतनी तत्परता, मनोहारिता और सरलता के साथ लिखी हुई बाललीला अलभ्य है। बाल लीला की प्रत्येक चेष्टा के चित्रण में कवि कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देता है। न उसे शब्दों की कमी है, न अलंकारों की, न भावों की, न भाषा की।"

     मीराबाई के अलावा घनानन्द और रसखान जैसे मुसलमान कवियों ने भी कृष्णभक्ति साहित्य को अपना योगदान दिया है। सूर, तुलसी, मीराबाई जैसे महान् भक्त कवियों के साहित्य की उत्कृष्टता और विलक्षणता के कारण भक्ति काल को "स्वर्ण काल" भी कहा गया है।


👉 रीतिकाल:-

        संवत् 1700 से 1900 तक का समय रीतिकाल के नाम से जाना जाता है। रीतिकाल के साहित्य में श्रृंगार रस की प्रधानता है। रीतिकाल के कवि काव्य को ही सब कुछ मानते थे। काव्य के बाह्य रूप को सँवारने में अपनी शक्ति लगाते थे। कविगण अपने अधिक से अधिक श्रृंगारपूर्ण काव्यों द्वारा अपने आश्रयदाताओं का मनोरंजन करने लगे।

       पहले लक्ष्य-ग्रन्थ लिखे गये और बाद लक्षण ग्रंथ इस प्रकार से रीति ग्रंथों की रचना इस कालखण्ड की विशेषता रही।

     काव्य-शास्त्र के अनेक संप्रदाय बने। भरतमुनि का रस संप्रदाय, कुन्तल का वक्रोक्ति संप्रदाय, भामह, दण्डी और रुद्रट का अलंकार सम्प्रदाय, बामन का रीति-सम्प्रदाय और आनन्द वर्द्धन का ध्वनि संप्रदाय प्रमुख हैं। साहित्य शास्त्र का विधिवत् विवेचन केशवदास ने प्रारंभ किया।

    लौकिक शृंगारिकता, लक्षण ग्रन्थों का निर्माण, अलंकारिकता, ब्रजभाषा की प्रमुखता, मुक्तक-काव्य शैली की प्रधानता, भक्ति और नीति साहित्य, प्रकृति का उद्दीपन रूप नारी-वर्णन इस काल के साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ मानी जाती हैं।

     इस काल में केशवदास, बिहारी, चिन्तामणित्रिपाठी, मतिराम, ललित ललाम आदि प्रमुख कवि हुए हैं।


आधुनिक हिन्दी साहित्य का आरम्भः

        आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ सन् 1868 ई0 से मानना उचित होगा। आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु ने अपने अद्भुत प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व से हिन्दी-साहित्य का नेतृत्व अपने हाथों में लिया था। इसके पूर्व का 70-80 वर्षों का समय आधुनिक हिन्दी साहित्य के मुख्य माध्यम, अर्थात् खड़ी बोली के, साहित्य-क्षेत्र में अधिकार जमाने का समय था; वह भूमिका-स्वरूप था।

     इतिहासज्ञों ने आधुनिक हिन्दी-साहित्य के सन् 1868 से लेकर आज तक के समय को चार चरणों में विभक्त किया है। सन् 1868 से 1893 ई० तक के प्रथम चरण को भारतेन्दु-युग भी कहते है। सन् 1896 से 1918 तक का समय द्वितीय चरण अथवा द्विवेदी-युग के नाम से प्रसिद्ध है। सन् 1918 से 1936 तक को तृतीय चरण या छायावाद-युग के नाम से अभिहित करते है। सन् 1936 से लेकर आज तक का समय चतुर्थ उत्थान अथवा प्रगतिशील युग के नाम से चल रहा है। प्रत्येक उत्थान की साहित्यिक, कलात्मक और भाषा-सम्बन्धी उपलब्धियों का मूल्यांकन संक्षेप में निम्न प्रकार से किया जा सकता है।


⭕ प्रथम चरणः भारतेन्दु-युगः-

     भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जब हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में पदार्पण किया, उस समय तक यद्यपि खड़ी बोली, गद्य के माध्यम के रूप में, अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित कर चुकी थी तो भी राजनैतिक एवं सामाजिक विचार- भेदों के कारण हिन्दी के मार्ग में रोड़े बहुत थे और उर्दू का प्रभाव भी फैलता जा रहा था। परन्तु "भारतेन्दु" के उदय के साथ "सितारेहिन्द" की आभा मन्द हो चली। प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, जगमोहन सिंह, श्रीनिवासदास, बदरीनारायण चौधरी, राधाकृष्णदास, कार्तिकप्रसाद खत्री, रामकृष्ण वर्मा आदि तेजस्वी व्यक्तित्ववाले लेखकों के सामर्थ्यवान् गुट का सक्रिय सहयोग प्राप्त कर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी के मार्ग की सारी बाधाएँ दूर कर उसका भविष्य सदा के लिए निष्कंटक बना दिया। खड़ी बोली हिन्दी में गद्य रचना का अटूट क्रम चल निकला। भारतेन्दु-युग की भाषा- सम्बन्धी यह उपलब्धि हिन्दी के लोगों द्वारा सदैव स्मरण की जायेगी।

     खड़ी बोली को गद्य के क्षेत्र में प्रतिठित करने के साथ भारतेन्दु-वर्ग के लेखकों ने जो दूसरा महान् कांर्य किया वह है तत्कालीन नवीन विचारों से उद्वेलित राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को साहित्य में प्रतिमूर्त करने का। इस प्रकार उन्होंने साहित्य को जीवन के प्रसंग में लाकर खड़ा किया। भारतेन्दु और उनके साथियों ने मिलकर साहित्य के क्षेत्र से रीतिकालीन प्रवृत्तियों को जड़-मूल से निकाला और उनके स्थान में नवीन भावनाओं, विचारधाराओं और चेतना को स्थापित किया। यह इस युग की दूसरी महान् उपलब्धि है।

     साहित्य-भण्डार की पूर्ति की दृष्टि से भारतेन्दु-युग में यों तो साहित्य के अनेक ग्रंथों पर ध्यान गया, पर नाटक और निबन्ध उस युग की विशेष देन है। नाटककारों में स्वयं भारतेन्दु का नाम सर्वश्रेष्ठ है। निबन्ध- लेखकों में भारतेन्दु के अतिरिक्त प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि लेखक उल्लेख्य हैं। उपन्यास-लेखन की ओर भी प्रवृत्ति लक्षित होती है। हिन्दी का प्रथम उपन्यास 'परीक्षा-गुरु' इसी काल में लिखा गया। पर मौलिक उपन्यासों की अपेक्षा अंग्रेज़ी, बंगला, संस्कृत से अनुवादों की संख्या अधिक थी। इतिहास और जीवन-वृत्त लेखन का भी श्रीगणेश इसी युग में हो गया था। भारतेन्दु-लिखित 'इतिहास-तिमिर-नाशक' और जयदेव का 'जीवन-वृत्त' प्रसिद्ध हैं।

     भारतेन्दु-युग में काव्य की भाषा ब्रजभाषा ही रही। ब्रजभाषा की काव्य-परम्पराएँ भी बहुत कुछ पुरानी वनी रहीं। परन्तु देश-भक्ति, लोक- हित, समाज-सुधार, मातृ-भाषा-प्रेम जैसे नए विषयों के समावेश द्वारा उसमें भी नए वातावरण की सृष्टि हुई और रीतिकालीन नायिका-भेद, नख-शिख-वर्णन के स्थान पर नई काव्यधारा का प्रवर्त्तन हुआ। अतः काव्य के क्षेत्र में भी भारतेन्दु-युग की अपनी उपलब्धि है।


⭕ द्वितीय चरणः द्विवेदी-युगः-

       भारतेन्दु का अवसान उनकी 35 वर्ष की आयु में सन् 1885 में हुआ। उनके वर्ग के अन्य अवशिष्ट लेखक बहुत समय बाद तक साहित्य- सेवा करते रहे। आधुनिक हिन्दी-साहित्य के द्वितीय उत्थान का आरम्भ सन् 1893 से माना जाता है। यह तिथि सुविधाजनक इसलिए है कि इसी वर्ष 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई, जो सचमुच ही हिन्दी-साहित्य-जगत की चिर-स्मरणीय घटना है। इसके कुछ ही समय बाद 'सरस्वती' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ, जिसके सम्पादक के रूप में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का आगमन सन् 1900 ई. में हुआ। द्विवेदी जी ने एक पूरे युग पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ी, जिसके फलस्वरूप वह युग ही द्विवेदी-युग कहा जाता है।

     भारतेन्दु और उनके सहयोगियों ने जिस खड़ीबोली की गद्य के लिए, प्रतिष्ठा की थी उसमें शक्ति थी, ओज था, भाव-प्रकाशन की क्षमता थी, पर उस काल के लेखकों का ध्यान व्याकरण की शुद्धता और भाषा के रूप की स्थिरता पर उतना नहीं गया था; उनके वाक्य-विन्यास में भी प्रायः शैथिल्य दिखाई पड़ता था। इन कमियों को द्विवेदी जी ने दूर किया। इसी से वे हमारी साहित्य-वाटिका के माली के नाम से विख्यात हैं।

      गद्य के क्षेत्र में द्विवेदी-युग में कथा-साहित्य की विशेष प्रगति हुई। मौलिक उपन्यास लिखे जाने लगे। जैसे काव्य में गुप्त जी, वैसे ही उपन्यास में प्रेमचन्द जी की प्रतिभा का प्रस्फुटन यहीं से आरम्भ हुआ। इनका पूर्ण विकास हम आगे के युग में देखते हैं। इस युग के अन्य प्रतिनिधि कथाकार गुलेरी, कौशिक, सुदर्शन और ज्वालादत्त शर्मा है। अन्य भाषाओं से अनुवाद का क्रम पहले युग जैसा ही चलता रहा।

     भारतेन्दु-युग में जिन दो साहित्यांगों, नाटक और निवन्ध की उन्नति हुई थी, द्विवेदी-युग में वह रुक-सी गई। उपन्यासों के प्रति वढ़ती हुई रुचि के कारण नाटक की प्रगति विशेष रूप से अवरुद्ध प्रतीत होती है।

      साहित्य-समालोचना की वास्तविक नींव इसी युग में पड़ी, यद्यपि नाम के लिए इस विषय में थोड़ा कार्य भारतेन्दु-युग में हो गया था। द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' में नवीन पुस्तकों की 'समीक्षा' के रूप में यह कार्य आरम्भ किया। फिर 'हिन्दी कालिदास की आलोचना', 'विक्रमांक देव चरित चर्चा', 'नैषध- चरित-चर्चा', 'कालिदास की निरंकुशता' आदि आलोचनात्मक पुस्तकों द्वारा उन्होंने अपने साहित्य के इस विशेष अंग की पूर्ति की। मिश्रवन्धुओं ने ऐतिहासिक आलोचना की पद्धति 'नवरत्न' लिखकर चलाई। पद्मसिंह शर्मा, कृष्ण विहारी मिश्र और लाला भगवानदीन ने बिहारी और देव को लेकर हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना को जन्म दिया।

        साहित्यिक दृष्टि से जीवन चरित लिखने का काम पंडित माधवप्रसाद मिश्र ने 'स्वामी विशुद्धानन्द' लिखकर आरम्भ किया। फिर बाबू शिवनन्दन सहाय ने हरिश्चन्द्र, गोस्वामी तुलसीदास और चैतन्य महाप्रभु की जीवनियाँ लिखीं।

     ऊपर जिन साहित्यांगों का वर्णन हुआ है उनका आरम्भ किसी-न- किसी रूप में भारतेन्दु-युग में हो चुका था। जिस साहित्य-अवयव का आरम्भ द्विवेदी-युग में सर्वथा नया हुआ वह है कहानी। हिन्दी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी पंडित किशोरीलाल गोस्वामी लिखित 'इन्दुमती' है जो 1900 में 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई थी। 'प्रसाद', 'कौशिक', जी.पी. श्रीवास्तव, ज्वालादत्त शर्मा, राधिकारमणसिंह, गुलेरी आदि कलाकारों ने द्वितीय उत्थान में कहानियाँ लिखकर कहानी-कला का रूप हिन्दी में स्थिर किया; परन्तु उसका पूर्ण उत्कर्ष तृतीय उत्थान में देखने को मिलता है।


⭕ तृतीय चरणः छायावाद युगः-

    सन् 1918 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के साहित्य से संयास ग्रहण करते-करते देश की परिस्थितियों में बड़ा भारी परिवर्तन संघटित हुआ। इसी समय प्रथम महायुद्ध की समाप्ति हुई, जिससे भारतीयों ने बहुत अधिक राजनैतिक आशा लगी रखी थी, पर जिसका परिणाम उन्हें जलियाँ वालावाग के भीषण नर-हत्याकांड के रूप में भुगतना पड़ा। देश में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विक्षोभ की लहर दौड़ने लगी जिसका सक्रिय रूप गांधी जी के नेतृत्व में 1921 के असहयोग आन्दोलन में देखने को मिला। युद्ध के फलस्वरूप जीवन की आवश्यक वस्तुओ के अभाव में होड़ सी मच गई। आर्थिक विषमता का विकराल रूप दिखाई पड़ने लगा। इनका प्रभाव साहित्य पर होना अनिवार्य था। द्विवेदी-युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध भी प्रतिक्रिया आरम्भ हो गई थी। सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों में द्विवेदी-युग 'यथा-स्थिति' का समर्थक था, जिसका तात्पर्य, दूसरे शब्दों में, यह है कि वह प्रगति का विरोधी था। साहित्य में उसकी इतिवृत्तात्मकता, नीरस भावाभिव्यक्ति-शैली और पुराण-पंथी आदतों से लोगों को ऊब हो चली थी। अंग्रेज़ी और बँगला के प्रभावों से हिन्दी साहित्य की नई प्रतिभाएँ नई दिशा की खोज में लग गई थीं।

       तृतीय चरण में हिन्दी-काव्य का क्षेत्र नवीन परिस्थितियों का सबसे अधिक प्रतिविम्वित करने वाला हुआ। भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से इसने इतनी अधिक महत्ता अर्जित की कि पूरे युग को यह अपना नाम दे गया। 1928 ई. से 1936 ई. तक के समय को 'छायावाद-युग' के नाम से अभिहित करने का मुख्य कारण यही है कि इस युग में काव्य की छायावादी प्रवृत्ति प्रधान रही। द्विवेदी-युग से विल्कुल स्वतंत्र नया वस्तु- विधान, नई अभिव्यंजना-शैली, नया छन्द-विधान, गीति, कल्पना, लाक्षणिकता, प्रगल्भता, व्यक्ति-स्वातन्त्र्य-उद्घोष, प्रकृति-प्रेम आदि इस नवीन प्रवृत्ति की कुछ उल्लेख्य विशेषताएँ हैं। 'प्रसाद', 'पंत', 'निराला' छायावाद के प्रवर्त्तक हैं। बाद में महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा आदि कवियों ने इस धारा को अग्रसर करने में सहायता की। पचासों नाम इस सम्बन्ध में और गिनाए जा सकते हैं।

       छायावादी काव्य के अतिरिक्त तृतीय चरण की मुख्य सफलता उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में रही। प्रेमचन्द ने 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि', 'गवन', 'निर्मला', 'प्रेमाश्रम' आदि उपन्यासों द्वारा गांधी जी की राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा का साहित्य में प्रतिनिधित्व किया और साथ ही मानव-प्रकृति का निरूपण भी भली-भाँति कर दिखाया। वृन्दावनलाल वर्मा ने 'गढ़-कुँडार' और 'बिराटा की पद्मिनी' लिखकर ऐतिहासिक उपन्यास का मार्ग प्रशस्त किया। उपन्यासों से भी प्रचुर विकास छोटी कहानियों का हुआ। यहाँ भी प्रेमचन्द ने ही मार्ग-प्रदर्शन किया। उपन्यास- कहानी के क्षेत्र में इस युग में जितने लेखक हुए उनकी संख्या छायावादी कवियों से कम कदापि न होगी।

      तीसरा साहित्यांग जो इस युग में समृद्धि को प्राप्त हुआ वह नाटक है। दूसरे उत्थान में इसकी गति अवरुद्ध थी। इस तीसरे उत्थान में पहुँचकर यह नई उमंग से आगे बढ़ा। प्राचीनता का आवरण छोड़कर इसने नवीन अथवा पाश्चात्य रूप उत्तरोत्तर अपनाया। 'प्रसाद' और 'प्रेमी' ने ऐतिहासिक नाटकों से हिन्दी को उपकृत किया तो उदयशंकर भट्ट ने पौराणिक कथावस्तु को अपनाया। सेठ गोविन्ददास ने वर्तमान जीवन से सम्बन्धित राजनीतिक और सामाजिक पक्षों को लिया तो लक्ष्मीनारायण मिश्र ने 'समस्या' नाटक लिखे। 'उग्र', पंत आदि जाने कितने नाटककार इस तृतीय उत्थान में उत्पन्न हुए, जिनकी रचनाओं से साहित्य की श्रीवृद्धि हुई।

       निबन्ध-लेखकों में प्रमुख नाम पंडित रामचन्द्र शुक्ल का है, और यह एक अकेला नाम ही हिन्दी निबन्ध-साहित्य की गरिमा का घोष करने के लिए पर्याप्त है। 'चिन्तामणि' हिन्दी का गौरव-ग्रन्थ है। गद्य-काव्य नाम का नया साहित्यांग इस चरण में उद्भूत होकर पल्लवित हुआ। गद्य-काव्य ग्रन्थों के प्रणेता कई हुए जिनमें चतुरसेन शास्त्री, वियोगी हरि, राय कृष्णदास, रघुवीर सिंह प्रमुख हैं।

      साहित्य के इतिहास-लेखन का कार्य भी इसी युग में वैज्ञानिक ढंग से हुआ। आचार्य शुक्ल का 'हिन्दी साहित्य का इतिहास', आचार्य श्यामसुन्दरदास का 'हिन्दी भाषा और साहित्य', रामकुमार वर्मा का 'विवेचनात्मक इतिहास' आदि इसी युग में प्रकाशित हुए।

    इस तृतीय चरण में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अन्तःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। आचार्य शुक्ल द्वारा लिखित सूर, तुलसी और जायसी पर आलोचनाएँ इस दिशा को बताने वाली हुई। फिर तो 'कलाओं' और 'साधनाओं' का ताँता बँध गया। पचासों की संख्या में प्राचीन और अर्वाचीन कवियों की 'कला' और 'काव्य-साधना' पर पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनसे हमारा समीक्षा-साहित्य समृद्ध बना। कृष्णशंकर शुक्ल की 'केशव की काव्य-कला', सत्येन्द्र की 'गुप्त जी की कला' जनार्दन झा द्विज की 'प्रेमचन्द की उपन्यास-कला', अखौरी गंगाप्रसादसिंह की 'पद्माकर की काव्य-साधना', सुमन-कृत 'प्रसाद की काव्य-साधना', भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र-कृत 'मीरा की प्रेम-साधना' आदि केवल पहले खेमे की रचनाएँ हैं। बाद में कितने ही और एक-से-एक बढ़कर सफल समालोचना-ग्रन्थ प्रकाशित हुए। विशेष कवियों की आलोचना के अतिरिक्त साहित्य-समीक्षा-सिद्धान्त पर भी पुस्तकें लिखी गई और कला के सम्बन्ध में सोच-विचार हुआ।


⭕ चतुर्थ चरण - प्रगतिवाद-युगः

      1936 के आस-पास विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी अपनी चरम सीमा को पहुँच गई। वस्तुओं के मूल्य में अकल्पनीय ह्रास हुआ; परिणामस्वरूप उनके उत्पादक कृषक और मज़दूर आर्थिक विषमता की चक्की में बुरी तरह पिसे। प्रथम महायुद्ध के प्रतिक्रिया के रूप में यह मन्दी शुरू हुई थी। उसे रोकने का प्रयत्न तो दूर रहा, संसार की महान् शक्तियाँ दूसरे महायुद्ध की तैयारी में जी-जान से लग गई थीं। संसार मानो गोले-बारूद के ढेर पर बैठा था। भारतीय समाज में भी त्राहि-त्राहि मची थी। देश के स्वातन्त्र्य युद्ध की धार जितनी ही तेज हो गई थी, आर्थिक दशा उतनी ही क्षीण थी। शासकों का अत्याचार, निहित स्वार्थों का शोषण अपनी सीमा पर था। ऐसे ही समय में सुमित्रानन्दन पंत का 'युगान्त' प्रकाशित हुआ और युग की प्रवृत्तियों का दर्पण 'साहित्य' मानो एक नए युग में प्रविष्ट हुआ। जव राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया शुरू हो गई हो तो कैसे सम्भव था कि हिन्दी साहित्य 'छायावाद' की छाया-सदृश कोमल भाव-भूमि पर विचरण करता रहता। उसे वहाँ से उतर कर यथार्थवाद की कठोर भूमि पर आना ही था।

     चतुर्थ चरण का जो दूसरा नाम प्रगतिशील-युग है उसका कारण यही है कि इस युग में किसानों, मजदूरों और शोषितों के उद्धार की ओर कवियों और लेखकों का ध्यान गया है। गद्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द ने प्रगति का मार्ग वताया। 1936 में हुए 'प्रगतिशील लेखक संघ' के प्रथम अधिवेशन का सभापतित्व उन्हीं के द्वारा हुआ। 'गांधीवाद' से आस्था हटाकर यथार्थवादी बनकर वह कहीं और जा रहे थे, इसका पक्का प्रमाण वह 'गोदान' में मरते-मरते दे गए। काव्य के क्षेत्र में नवीन प्रवृत्ति का सृजन पंत जी के द्वारा हुआ, इसका संकेत हमने ऊपर किया है।

     हम हिन्दी साहित्य के चतुर्थ चरण के मध्य से निकल रहे हैं, अतः उसकी उपलब्धियों पर कुछ कह सकना कठिन है। प्रत्यक्ष देखने में यह आ रहा है कि यह चरण 'वादों' का है। काव्य के क्षेत्र में न केवल 'प्रगतिवाद' का वोलवाला है, वरन् प्रतीकवाद और प्रयोगवाद का भी ज़ोर है। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का भी प्रभाव कम नहीं है। साम्यवाद और समाजवाद प्रगतिवाद के मुख से वोल रहे हैं। काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना सभी क्षेत्रों में सम्प्रति प्रगति हो रही है, पर किसी न किसी 'वाद' की छाया में। यह खटके की बात भी है।


हिन्दी गद्य साहित्य की आधुनिक विधाएँ:-

        🍓 नाटक:-गद्य की यह प्राचीन विधा है। इसके रचना-विधान में पद्म का भी प्रयोग किया जाता है। प्राचीन काल में नाटक को रूपक का एक भेद माना जाता था। आजकल रूपक के अर्थ में नाटक का प्रयोग शामिल हो गया है। नाटक में दो विपरीत समस्याओं या स्थितियों का संवादों के माध्यम से द्वन्द्वात्मक प्रस्तुतीकरण होता है। भारतेन्दु, प्रसाद, हरिकृष्ण प्रेमी, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल आदि प्रसिद्ध नाटककार हैं। नाटक की एक विधा एकांकी है। रेडियो नाटक भी इसी वर्ग में आते हैं। एकांकी नाटककारों में रामकुमार वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर आदि प्रमुख हैं।

   🍓 उपन्यासः- मध्यवर्गीय यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए गद्य की व्यापक विधा उपन्यास का विकास पश्चिम के नॉवेल की प्रेरणा से हुआ है। साहित्य समाज का दर्पण है, यह उक्ति उपन्यास के लिए सबसे अधिक चरितार्थ होती है। मानव-चरित्र के व्यापक क्षेत्र से सम्बद्ध यह विधा महाकाव्य का विकल्प बनती जा रही है। कुछ उपन्यासों के लिए महाकाव्यात्मक विशेषण प्रयुक्त होने लगा है। प्रेमचन्द, भगवतीचरण वर्मा, जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, अश्क आदि उपन्यासकारों ने इस विधा को समृद्ध किया है।

  🍓कहानी:- जीवन के किसी एक प्रसंग या स्थिति या अनुभव को कलात्मक कसावट के साथ एक निश्चित आयाम और शिल्प में प्रस्तुत करने वाली गद्य विधा को कहानी कहते हैं। उपन्यास में जीवन की विविध घटनाओं को व्यापक रूप से ग्रहण किया जाता है, किन्तु कहानी में कोई एक मार्मिक घटना या प्रसंग होता है। कहानी का विकास तेजी से चरम सीमा की ओर होता है, चरम सीमा पर ही उसकी समाप्ति हो जाती है। इसमें निश्चित परिणति या फलागम का आग्रह नहीं रहता। प्रेमचन्द, प्रसाद, अज्ञेय, जैनेन्द्र, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी शिवानी आदि हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार हैं।

    🍓 निवन्ध :- गद्य की अन्य विधाओं की तुलना में आधुनिक विधा है। इसमें किसी विषय का आत्मिक स्वच्छन्दता, स्वनिर्मित अनुशासन के साथ एक निश्चित सीमा के अन्तर्गत विवेचन किया जाता है। इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्तित्व की छाप रहती है। वर्णनात्मक, विवरणात्मक, विचारात्मक और भावात्मक इसके कई भेद हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, शांतिप्रिय द्विवेदी, वासुदेवशरण अग्रवाल, गुलाबराय, कुबेरनाथ राय, आदि हिन्दी के श्रेष्ठ निबंधकार हैं।

🍓 आलोचनाः-किसी साहित्यिक कृति का सम्यक् रूप से परीक्षण,विश्लेषण एवं विवेचन को आलोचना कहते हैं। समीक्षा, अनुशीलन, समालोचना आदि अन्य इसके पर्याय हैं। आलोचना के क्षेत्र में शुक्लजी के अतिरिक्त नंददुलारे वाजपेयी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, डा. नगेन्द्र, डा. रामविलास शर्मा आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

🍓 जीवनी:- इस विधा में किसी लेखक या महापुरुष के जीवन की घटनाओं, क्रिया-कलापों तथा अन्य गुणों का वर्णन बड़ी आत्मीयता के साथ गम्भीर एवं व्यवस्थित ढंग से किया जाता है। जीवनी लेखक व्यक्ति विशेष के जीवन की उन घटनाओं को विशेष रूप से उजागर करता है जो पाठकों के लिए प्रेरणादायक होती हैं। गुलाबराय, रामविलास शर्मा, अमृतराय आदि ने हिन्दी के जीवनी साहित्य को विकसित किया है।

🍓 आत्मकथाः- यह भी एक तरह की जीवनी है। आत्मकथा में व्यक्ति अपने विषय में स्वयं लिखता है, जब कि जीवनी भिन्न व्यक्ति के द्वारा लिखी जाती है। श्यामसुंदरदास, सेठ गोवनिद दास, डा. राजेन्द्र प्रसाद, बच्चन आदि ने प्रेरक आत्मकथाएँ लिखी हैं।

🍓 रेखाचित्र:- चित्रकला के आधार पर 'रेखाचित्र' वस्तुतः अंग्रेज़ी के 'स्खेत्व' Sketch और "पोट्रेट पेंटिंग" Portrait painting के समान है। 'रेखाचित्र' अथवा 'शब्दचित्र' वाली विधा अधिक प्रचलन में आयी है। जिस प्रकार कुछ थोड़ी-सी रेखाओं का प्रयोग करके चित्रकार किसी व्यक्ति या वस्तु की मूलभूत विशेषता को उभार देता है, उसी प्रकार कुछ थोड़े शब्दों में साहित्यकार किसी व्यक्ति या वस्तु की विशेषता को सजीव कर देता है। महादेवी वर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी, श्रीराम शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि ने उत्कृष्ट रेखाचित्रों का सृजन किया है।

🍓संस्मरणः - संस्मरण का अर्थ है सम्यकु स्मरण करना। इसमें लेखक किसी घटना या वस्तु या व्यक्ति से जुड़े हुए अनुभवों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। स्मरणीय व्यक्ति कोई महापुरुष ही होता है। इसमें तथ्य परकता अधिक होती है। यशपाल, रामवृक्ष बेनीपुरी, महादेवी वर्मा आदि अनेक लेखकों ने महापुरुषों से सम्बद्ध अपने संस्मरण लिखे हैं। यात्रा साहित्यः- इसमें यात्रा सम्बन्धी वृत्तांत होता है। यह साहित्य करोचक और मनोरंजक विधा है। यात्रा साहित्य के प्रमुख लेखकों में अज्ञेय, न राहुल सांकृत्यायन, दिनकर, प्रभाकर माचवे आदि के नाम लिये जा सकते हैं।

🍓 पत्र-साहित्यः- साहित्यकारों तथा चिन्तकों द्वारा लिखित पत्रों को भाषा की साहित्यिकता तथा विचारात्मकता के कारण साहित्य की कोटि में रखा जाता है। महाबीर प्रसाद द्विवेदी के पत्रों को द्विवेदी पत्रावली, प्रेमचन्द के पत्रों को चिट्ठी-पत्री के नाम से संकलित किया गया है।

🍓 डायरी:- साहित्यकार नित्य प्रति के अनुभवों को मानसिक प्रतिक्रिया के साथ अपनी डायरी में नोट कर लेते हैं। कतिपय दृष्टियों से इनका भी साहित्यिक महत्व माना जाता है। देवराज ने 'अजय की डायरी' नाम से डायरी शैली में एक उपन्यास भी लिखा है।

🍓 रिपोर्ताज:- किसी घटना को अपने मूल्यों और आदर्शों के अनुसार प्रस्तुत करना रिपोर्ताज कहलाता है। रांगेय राघव रचित "तूफानों के बीच" और रघुवीर सहाय की 'सीढ़ियों पर धूप में' इसी तरह की रचनाएँ हैं।

🍓 इंटरव्यूः - श्रेष्ठ साहित्यकार, राजनेता, कलाकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि से किसी विषय से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर का प्रस्तुतीकरण इन्टरव्यू कहलाता है। पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो व दूरदर्शन में इस विधा का पर्याप्त विकास देखने में आता है। डॉ. पद्मसिंह शर्मा कमलेश, देवेन्द्र सत्यार्थी, रणवीर रांग्रा आदि ने इस विधा के माध्यम से अनेक हस्तियों का परिचय दिया है।

🍓 केरीकेचरः- स्वभाव, शारीरिक अंग, चित्र, नाटक आदि से अत्युक्तिपूर्ण व्यंग्यात्मक या विकृत चित्रण जो हास्य उत्पन्न करे, उसे केरीकेचर कहते हैं। धर्मवीर भारती का 'ठेले पर हिमालय' ऐसी ही रचना है।

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हिन्दी लेखक परिचय

 

हिन्दी लेखक परिचय 

1. श्यामसुंदरदास

      श्यामसुंदरदास का जन्म वाराणासी (उत्तर प्रदेश) में सन् 1875 ई. में हुआ था। इनकी मृत्यु सन् 1945 ई. में हुई। प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए. की उपाधि प्राप्त कर इन्होंने सेण्ट्रल हिन्दू स्कूल, वाराणसी में अंग्रेज़ी के अध्यापक- रूप में कार्य प्रारंभ किया। यद्यपि ये अंग्रेज़ी भाषा के कुशल अध्यापक थे, फिर भी इनकी रुचि प्रारंभ से ही हिन्दी-भाषा और साहित्य-सेवा की ओर थी। इन्होंने अनुभव किया कि हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने की अत्यंत आवश्यकता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए इन्होंने कुछ हिन्दी-प्रेमी मित्रों के सहयोग से सन् 1893 ई. में "काशी नागरी प्रचारिणी सभा" की स्थापना की। जब हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभाग खुला तो महामना मालवीय जी ने उसकी अध्यक्षता के लिए इन्हें साग्रह निमंत्रित किया। वहाँ इन्होंने विश्वविद्यालय की उच्चतम कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम का आयोजन किया और जीवन-भर हिन्दी- भाषा तथा साहित्य के विकास एवं प्रसार में संलग्न रहे।

      आपके ग्रंथों में "भाषाविज्ञान", "साहित्यालोचन", हिन्दी-भाषा और साहित्य", "रूपक रहस्य", "भाषा रहस्य", "गोस्वामी तुलसीदास" विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इन ग्रंथों का महत्व इस बात से आँका जा सकता है कि आज तक उच्चतम कक्षाओं के पाठ्यक्रम में इनका स्थान है। इनके अतिरिक्त इन्होंने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन भी किया। हिन्दी-भाषा में अनुसंधान-कार्य का श्रीगणेश भी इन्हीं के द्वारा हुआ। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित "हिन्दी शब्द सागर" का संपादन इन्हीं के निर्देश में हुआ।

       श्यामसुंदरदास जी की भाषा पुष्ट एवं प्रांजल है और उसका झुकाव तत्सम शब्दों की ओर है। शैली में दुरूहता नहीं मिलती; सर्वत्र एक स्वच्छ वाग्धारा प्रवाहित रहती है। विषय का सम्यक् प्रतिपादन ही लेखक का मुख्य ध्येय रहता है।


2. रामचंद्र शुक्ल



        आचार्य शुक्ल का जन्म बस्ती ज़िले (उत्तर प्रदेश) के अगौना ग्राम में सन् 1884 ई0 में हुआ था और इनकी मृत्यु सन् 1940 ई0 में वाराणासी में हुई।

इनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और अंग्रेज़ी में हुई थी। विधिवत् शिक्षा ये केवल इंटरमीडिएट तक कर सके। प्रारंभ में कुछ वर्षों तक इन्होंने मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में अध्यापन-कार्य किया। बाद में बाबू श्यामसुंदरदास ने इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर हिन्दी-शब्दसागर के संपादन में इन्हें अपना सहयोगी बनाया। फिर ये हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणासी के हिन्दी-विभाग में अध्यापक नियुक्त हुए और बाबू श्यामसुंदरदास के अवकाश ग्रहण करने पर हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष हो गए।

स्वाध्याय द्वारा इन्होंने संस्कृत, अंग्रेज़ी, बंगला और हिन्दी के प्राचीन साहित्य का गंभीर अध्ययन किया। हिन्दी-साहित्य में इनका प्रवेश कवि और निबंधकार के रूप में हुआ और इन्होंने बंगला तथा अंग्रेज़ी से कुछ सफल अनुवाद भी किए। आगे चलकर आलोचना इनका मुख्य विषय बन गई। इनके कुछ प्रसिद्ध ग्रंथ इस प्रकार हैं:

     तुलसीदास, जायसी ग्रंथावली की भूमिका, सूरदास, चिन्तामणि (2 भाग), हिन्दी साहित्य का इतिहास, रसमीमांसा ।

     शुक्ल जी हिन्दी के युगप्रवर्त्तक आलोचक हैं। इनके 'तुलसीदास' ग्रंथ से हिन्दी में प्रौढ़ आलोचना-पद्धति का सूत्रपात हुआ। शुक्ल जी ने जहाँ एक ओर आलोचना के शास्त्रीय पक्ष का विशद विवेचन किया वहाँ दूसरी ओर तुलसी, जायसी तथा सूर की मार्मिक आलोचनाओं द्वारा व्यावहारिक आलोचना का भी मार्ग प्रशस्त किया।

   निबंध के क्षेत्र में भी शुक्ल जी का स्थान अप्रतिम है। 'चिन्तामणि' में संगृहीत मनोवैज्ञानिक निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इन निबंधों में गंभीर चिन्तन, सूक्ष्म निरीक्षण और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का सुंदर संयोग है। इनकी भाषा प्रांजल और सूत्रात्मक है। गंभीर प्रतिपादन के समय भी ये हास्य का पुट देते चलते हैं।


3. प्रेमचंद



    मुंशी प्रेमचंद का जन्म सन् 1880 ई. में वाराणासी जिले के लमही ग्राम में हुआ था। ये साहित्य में प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्ध हैं पर इनका वास्तविक नाम धनपतराय था। शिक्षा-काल में इन्होंने अंग्रेज़ी के साथ उर्दू का ही अध्ययन किया था। प्रारंभ में ये कुछ वर्षों तक स्कूल में अध्यापक रहे फिर शिक्षा-विभाग में सब-डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए। कुछ दिनों बाद असहयोग आंदोलन से सहानुभूति रखने के कारण इन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और आजीवन साहित्य-सेवा करते रहे। इनकी मृत्यु सन् 1936 ई. में हुई।

     प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास "सेवासदन", "निर्मला", "कर्मभूमि", "ग़बन", और "गोदान" हैं। इनकी कहानियों का विशाल संग्रह अनेक भागों में "मानसरोवर" नाम से प्रकाशित है, जिसमें लगभग तीन सौ कहानियाँ संकलित हैं। "कर्बला", "संग्राम" और "प्रेम की वेदी" इनके नाटक हैं। साहित्यिक निबंध "कुछ विचार" नाम से प्रकाशित हुए हैं।

      प्रेमचंद का साहित्य समाजसुधार और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित है। वह अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का पूरा प्रतिनिधित्व करता है। उसमें किसानों की दशा, सामाजिक बंधनों में तड़पती नारियों की वेदना और वर्णव्यवस्था की कठोरता के भीतर संत्रस्त हरिजनों की पीड़ा का मार्मिक चित्रण मिलता है। सामयिकता के साथ ही इनके साहित्य में ऐसे तत्त्व भी विद्यमान हैं जो उसे शाश्वत और स्थायी बनाते हैं। प्रेमचंद अपने युग के उन सिद्ध कलाकारों में थे जिन्होंने हिन्दी को नवीन युग की आशा-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का सफल माध्यम बनाया।

  इनकी भाषा में उर्दू की स्वच्छता, गति और मुहावरों के प्रयोग के साथ संस्कृत की भावमयी स्निग्ध पदावली का सुंदर संयोग है। कथा-साहित्य के लिए यह भाषा आदर्श है।


4. डॉ. राजेन्द्रप्रसाद



स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 26 जनवरी 1850 में हुआ और उन्का निधन 13 मई 1962 में हुआ। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की राजनीतिक सेवाओं से सभी परिचित हैं। उच्च कोटि के त्यागी नेता होने के 

साथ ही वे अच्छे विद्वान और लेखक थे। जब वे विद्यार्थी थे, उन्हीं दिनों लिखने का अभ्यास शुरू किया और तब से बराबर कुछ लिखते रहे। हिन्दी साहित्य को उन्होंने कई उत्तम कृतियाँ प्रदान की हैं। उनकी "आत्मकथा" हिन्दी की श्रेष्ठ जीवनियों में एक है। "बापू के कदमों में", "गांधीजी की देन", "खंडित भारत" आदि कई पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं। भाषा का शिष्ट और प्रांजल रूप उनकी रचनाओं में हमें मिलता है। शैली भी उनकी अपनी अलग विशिष्टता ली हुई है।

   राष्ट्रपिता बापू के वे शुरू से ही अनुगामी रहे हैं। उनके व्यक्तित्व और आदर्श की छाप उनपर बहुत गहरी पड़ी है और उनके सच्चे अनुयायियों में उनका स्थान सर्वोपरि है।


5. आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी



    उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में 'आरत दूबे का छपरा' नामक गाँव में जन्मे हज़ारी प्रसादजी की मुख्य शिक्षा दीक्षा काशी विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में हुई थी। उन्होंने ज्योतिष में शास्त्राचार्य परीक्षा पास की। हिन्दी भाषा व साहित्य के प्रति उनकी सहज रुचि और रामचरितमानस पर प्रवचन आदि ने मदनमोहन मालवीय का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने हज़ारी प्रसादजी को विश्वभारती शांतिनिकेतन में हिन्दी अध्ययन के लिए भेजा। शांतिनिकेतन के लंबे दिनों में हज़ारी प्रसाद जी बड़े समीक्षक, भारतीय संस्कृति के आचार्य, प्रगल्भ वक्ता, स्वच्छंद ललित निबंधों के रचयिता और उपन्यासकार बन गये। महाकवि रवींद्रनाथ तथा अन्य मनीषियों के सत्संग से वे प्रेरणाग्रहण कर सके थे।

      हिन्दी गद्य साहित्यकार के रूप में आचार्य द्विवेदीजी का योगदान बहुमुखी रहा है। (1) उपन्यासकार (2) समीक्षात्मक निबंधकार (3) सांस्कृतिक निबंधकार (4) ललित निबंधकार। आचार्य हज़ारी प्रसाद जी हिन्दी ललित निबंधकला के प्रमुख प्रवर्तक स्वीकार किये गये हैं। उनके ललित निबंध संग्रहों में 'अशोक के फूल', 'कुटज', 'देवदारु' आदि प्रसिद्ध हैं। इन गद्य संग्रहों में हज़ारी प्रसाद द्विवेदजी के अनेक अच्छे सांस्कृतिक निबंध भी हैं। प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय संस्कृति एवं कलाओं के विशेषज्ञ द्विवेदीजी के ये निबंध विद्वत्तापूर्ण तो हैं। साथ ही मनोरंजक एवं सरस भी हैं। आपका जन्म सन् 1907 में और निधन सन् 1979 में हुआ।


6. बाबू गुलाबराय



    बाबू गुलाब राय का जन्म 17 जनवरी 1888 में और निधन 13 अप्रैल 1963 में हुआ। बाबू गुलाब राय हिन्दी के प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् लेखक और आलोचक हैं। आपने दर्शन-शास्त्र में एम.ए., और एल.एल.बी. भी पास किए हैं। 28 वर्ष तक छतरपुर राज्य के प्राइवेट सेक्रेटरी रह चुके हैं। संस्कृत और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त बंगला पर भी अधिकार रखते हैं। पूर्व और पाश्चात्य- दर्शन-शास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन किया है। दो बार हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के अन्तर्गत होनेवाली दर्शन-परिषद् के सभापति भी रह चुके हैं। "नवरस" आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। "तर्क-शास्त्र", "कर्त्तव्य-शास्त्र" आदि ग्रंथ लिखकर आपने बड़े अभाव को पूर्ति की है। आप हिन्दी के निबन्धकारों में सम्मान का पद रखते हैं। आपके निबन्ध "फिर निराशा क्यों" में संकलित है। वे भावात्मक और विचारात्मक दोनों कोटि के हैं। “ठलुआ क्लब" और "मेरी असफलताएँ" आपके हास्यरस की कृतियाँ हैं, जिनमें "मेरी असफलताएँ" उनके निजी जीवन से सम्बन्ध रखती हैं। यह पुस्तक बड़ी लोक-प्रिय हुई है। आप हिन्दी के आलोचना प्रधान मासिक पत्र, "साहित्य सन्देश" के सम्पादक भी रहे।

     आपकी भाषा सरल और सुबोध होती है कठिन से कठिन बात को सरल से सरल बनाकर कहने में आप हिन्दी में सबसे आगे हैं। संस्कृत की सूक्तियों का प्रयोग बराबर करते हैं।


7. आचार्य नरेन्द्र देव



     आप उपनिषद-गीता का अभ्यास करनेवाले पिता की सन्तान थे। इनका जन्म 31 अक्तूबर सन् 1886 में हुआ। आप सरकारी संस्कृत कालेज, बनारस में एम.ए. संस्कृत विशेषीकरण 'एपिग्राफी' (पुरालेख शास्त्र) में बाद को इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा एल.एल.बी. में भी उत्तीर्ण हुए। बाद में गरम दल की राजनीति की ओर आकृष्ट हुए। फिर मार्क्सवादी चिन्तन की ओर। बौद्ध करुणा ने भी उन्हें आकृष्ट किया। वे एक ओर लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के व्यक्तित्वों की ओर आकृष्ट हुए तो दूसरी ओर राजर्षि टण्डन और पंडित नेहरू की मैत्री के स्नेहापाश में बंध गये। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर कई बार जेल गये थे। काशी विद्यापीठ के अध्यापक, अध्यक्ष, आचार्य, कुलपति रह चुके। लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके। इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ "राष्ट्रीयता और समाजवाद", "बौद्ध धर्म दर्शन"। आपने "विद्यापीठ" त्रैमासिक पत्रिका के संपादक के दौरान कई निबंध लिखे। सन् 1956 फरवरी 19 में इनका देहांत हुआ।


8. हरिशंकर परसाई



      होशंगाबाद जिले में जमानी नामक स्थान पर एक मध्यवित्तीय परिवार में हरिशंकर परसाई का जन्म सन् 1924 में हुआ। इनके पिताजी कोयले का छोटा मोटा व्यापार करते थे। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नौकरी करके निभाते हुए वे हिन्दी में एम.ए. में उत्तीर्ण हुए। सरकारी कार्यालय, स्कूल, कालेज में अध्यापन आदि के बाद वे जबलपुर में स्वतंत्र लेखन करते हुए स्थायी रूप से रहे। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और "वसुधा" पत्रिका का संपादन- प्रकाशन में उनका बड़ा योगदान रहा। सन् 1995 में आपका देहांत हुआ।

      हरिशंकर परसाई आधुनिक हिन्दी व्यंग्य साहित्य के सबसे प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने पत्रिकाओं में व्यंग्य कालम लिखे और स्वतंत्र लेख भी। राजनीति, समाज, परिवार सभी पृष्ठभूमियों में वे प्रभावशाली व्यंग्य बराबर लिखते रहे। उनका पूरा लेखन 'परसाई रचनावली' के नाम से संगृहीत है। उनकी कलम से निकले भोलाराम (भोलाराम का जीव) इंस्पेक्टर मातादीन, चाचा चौधरी आदि व्यंग्यपात्र अमर हो गये हैं। व्यंग्य लेखन की अलग भाषा-गठन भी परसाई की देन है। वे वर्षों तक शारीरिक विवशता से उठ फिर नहीं पाते थे। फिर भी उनका व्यक्तित्व एवं लेखन जिवंत रहा। अनेक व्यक्ति संस्थाएँ व अधिकारी उनको सम्मानित करने घर पहुँचते थे।


9. महादेवी वर्मा



      श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद (उत्तरप्रदेश) में सन् 1907 ई. में हुआ था। सन् 1933 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ये प्रयाग महिला विद्यापीठ की आचार्या नियुक्त हुई। इनकी विविध साहित्यिक, शैक्षिक तथा सामाजिक सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उनको 'पद्मभूषण' अलंकार से सम्मानित किया है।

       महादेवी जी छायावाद युग की प्रतिनिधि कलाकार हैं। इनकी कविताओं में वेदना का स्वर प्रधान है और भाव, संगीत तथा चित्र का अपूर्व संयोग है।

      'स्मृति की रेखाएँ' और 'अतीत के चलचित्र' में इनका कविहृदय गद्य के माध्यम से व्यक्त हुआ है। 'पथ के साथी' में इस युग के प्रमुख साहित्यिकों के अत्यंत आर्थिक व्यक्ति-चित्र संकलित हैं। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' में आधुनिक नारी की समस्याओं को प्रभावपूर्ण भाषा में प्रस्तुत कर उन्हें सुलझाने के उपायों का निर्देश किया गया है।

     "संस्मरण" के आत्मकथ्य में महादेवी वर्मा ने लिखा है कि मेरा यह सौभाग्य रहा है कि अपने युग के विशिष्ट व्यक्तियों का मुझे साथ मिला और मैंने उन्हें टिकट से देखने का अवसर पाया। उनके संबंधों में कुछ लिखना उनके अभिनन्दन से अधिक मेरा पर्व स्नान है।

      इनकी गद्य-शैली प्रवाहपूर्ण, चित्रात्मक तथा काव्यमयी है और भाषा संस्कृत-प्रधान है। इस शैली के दो स्पष्ट रूप हैं-विचारात्मक तथा भावात्मक। विचारात्मक गद्य में तर्क और विश्लेषण की प्रधानता है तथा भावात्मक गद्य में कल्पना और अलंकार की। सन् 1987 में आपका निधन हुआ।


10. राधाकृष्ण



      आप बिहार के रहनेवाले हैं। अच्छे साहित्यिक और कहानीकार हैं। कुछ समय तक 'कहानी' पत्रिका के संपादक भी रह चुके हैं। 'आदिवासी' साप्ताहिक के संपादक भी रहे।

    प्रस्तुत संग्रह में आपकी एक कहानी 'अवलंब' दी गयी है। इसमें ग़रीबी की जिन्दगी का एक सजीव चित्रण है। कहानी पढ़ने पर बेचारे सीताराम और सीताराम जैसे अनेक लोगों के प्रति पाठक के हृदय की सहानुभूति सक्रिय हो उठती है।

आपकी भाषा सरस, सरल और चलती हुई होती है।


11.  डॉ. रामकुमार वर्मा



     डॉ. रामकुमार का जन्म सन् 1905 में और निधन सन् 1990 में हुआ। वर्माजी पहले इतिवृत्तात्मक रचनाओं द्वारा काव्य-क्षेत्र में प्रविष्ट हुए। अब आपकी रचनाओं में अनुभूति की प्रधानता रहती है। आप पर कबीर के रहस्यवाद और पश्चिम का भी प्रभाव है। पर इनके रहस्यवाद में यह विशेषता है कि ये उससे तादात्म्य होने पर भी आत्मविस्मृत नहीं होते। इन्हें अपनी आत्मा का ज्ञान बना रहता है।

    आपकी रचनाओं में तत्सम शब्दों की प्रधानता होने पर भी क्लिष्टता नहीं है। उसमें प्रसाद-गुण की प्रधानता के साथ मृदुलता एवं माधुर्य का प्राचुर्य है।

     कवि के अतिरिक्त वर्माजी सफल आलोचक और नाटककार भी हैं। आपका गद्य भी काव्यमय है। 'हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास' लिखकर इन्होंने इतिहास-लेखन की नवीन परिपाटी स्थापित की है। 'साहित्य समालोचना' नामक पुस्तक लिखकर आपने कहानी, नाटक, उपन्यास, कविता तथा समालोचना पर विग्तृत प्रकाश डाला। आपका 'हिम हास' नामक एक गद्य-गीत-संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है, जिसकी प्रत्येक पंक्ति में आपके कवि-हृदय के दर्शन होते हैं।


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Saturday, March 23, 2024

DBHPS Result 2024 (Out)  FEBRUARY 2024





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Monday, February 19, 2024

"बड़े घर की बेटी" 

 

               "बड़े घर की बेटी" 


 *कहानीकार का परिचय* 


मुशी प्रेमचन्द का स्थान हिन्दी कथा साहित्य में सबसे ऊँचा है। उनको तीन सौ से अधिक कहानियाँ हिन्दी साहित्य की अमर निधि है। ग्यारह उत्तम उपन्यास भी इनकी देन है। मुंशी प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट कहलाते है। उनकी सबसे बडी विशेषता यह है कि जीवन के हर क्षेत्र का व्यक्ति उनके साहित्य में स्थान पा सका है। प्रेमचन्द यथार्थवादी थे साथ साथ आदर्शवादी भी। बड़े घर की बेटी प्रेमचन्द की प्रसिद्ध भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक कहानी है।


 *कथानक:* 


आनंदी ठाकुर बेनीमाधव सिंह के पहले बेटे श्रीकंठ की पत्नी थी। शहरी सभ्यता में पली हुई, पढी-लिखी लडकी थी। पर ससुराल में न कोई विलास सामग्री थी न टीमटाम। वह तो देहाती परिवार था। फिर भी आनंदी ने बहुत जल्दी ही अपने को वातावरण के अनुरूप बदल लिया। पति श्रीकंठ बगल के शहर में नौकरी करता था और केवल छुट्टी के दिनों में घर आया करता था। श्रीकंठ का छोटा भाई लाल बिहारी अनपढ था और गाँव में ही मौज मस्ती करता था। 


एक दिन दोपहर को वह दो चिडियाँ लेकर घर आया और आनंदी से पकाने को कहा। आनंदी ने खूब घी डालकर मांस बनाया। लाल बिहारी खाने बैठा तो दाल में घी नहीं था। पूछने पर आनंदी ने कहा कि सारा घी मांस में पड़ गया। इस बात को लेकर दोनों में कहासुनी हुई। गुस्से में आकर लाल बिहारी ने उसपर खडाऊँ दे मारी। आनंदी के रोकने के कारण सिर तो बच गया पर उंगली में चोट लगी। वह इतना अपमान और दर्द सह न सकी। उसने निश्चय कर लिया कि इस उद्दण्ड लडके को दंड देकर ही छोड़ेगी। 


शनिवार को जब श्रीकंठ घर आया तो लाल बिहारी ने आनंदी की शिकायत की और पिता बेनीमाधव ने भी उसका पक्ष लिया। जब आनंदी द्वारा श्रीकंठ को वास्तविक बात मालूम हुई तो वह तिलमिला उठा। जिस घर में अपनी पत्नी का अपमान और अनादर होता है उस घर में नहीं रहना चाहा। पिताजी के बहुत समझाने पर भी श्रीकंठ अपने इरादे में अटल रहा और लाल बिहारी का मुँह तक देखना नहीं चाहता था। 


लाल बिहारी को अपने बडे भाई का तिरस्कार बहुत बुरा लगा। उसे अपने किये का बड़ा दुख हुआ। उसने आनंदी से माफी मांगी और कहा कि बड़े भाई घर न छोड़ें और मैं खुद घर छोड़ चला जाऊँगा। आनंदी का कोमल हृदय पछताने लगा। लाल बिहारी के आंसुओं ने आनंदी के दिल को पिघला दिया। आनंदी खुद कमरे से बाहर आयी और लाल बिहारी का हाथ पकड़कर उसे रोक डाला। दोनों के पवित्र आंसुओं ने दिलों का सारा मैल धो डाला। दयावती आनंदी ने बिगडते परिवार को जुटा लिया। बेनी माधव पुलकित होकर बोल उठे "बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं।"

Sunday, February 18, 2024

Thursday, January 25, 2024

வல்லெழுத்து மிகும் இடம், மிகா இடம்

 

வல்லெழுத்து மிகும் இடம், மிகா இடம்


  தமிழின் 18 மெய்யெழுத்துகளை
  வல்லினம் (6), 
  மெல்லினம் (6), 
  இடையினம் (6) என்று மூன்று பிரிவாகப் பிரிப்பர்.

    மெய்யெழுத்துகள் 18-இல்,
 க, ச, ட, த, ப, ற ஆகிய 6 எழுத்துகள் மட்டுமே வல்லெழுத்துகள் ஆகும். 
இவற்றுள் ட, ற ஆகியவை இரண்டும் ஒரு சொல்லின் முதல் எழுத்தாக வாரா.
 வல்லின எழுத்துகளுள் க, ச, த, ப ஆகிய நான்கு மட்டுமே ஒரு சொல்லின் முதல் எழுத்தாக வரும்.



தமிழில் சில சொற்களுக்குப் பின்னர் வரும் சொற்களில் ககரம், சகரம், தகரம், பகரம் ஆகிய எழுத்துகளில் தொடங்கும் சொற்கள் இருந்தால் அவ்விரண்டு சொற்களுக்கும் இடையே வல்லின மெய் எழுத்து மிகும். 
இவ்வாறு மிகும் இடங்களில் க், ச், த், ப் என்ற வல்லெழுத்துகள் தோன்றும். இவை உரிய இடங்களில் வரவில்லையானால், அந்தத் தொடரிலோ வாக்கியத்திலோ பொருளின் பொருத்தமும், உரிய அழுத்தமும், ஓசை நயமும், தெளிவும் இருக்காது. சில நேரங்களில் பொருள் வேறுபாடும் ஏற்பட்டு விடும்.


வல்லெழுத்துகள் மிகும் இடங்கள்

அ, இ, உ சுட்டெழுத்துக்களின் பின்

அ + காலம் = அக்காலம்
இ + சமயம் = இச்சமயம்
உ + பக்கம் = உப்பக்கம் ('உ' எனும் சுட்டெழுத்து வழக்கில் இல்லை)

எ என்னும் வினா எழுத்தின் பின்

எ + பொருள் = எப்பொருள்

அந்த, இந்த, எந்த என்னும் அண்மை, சேய்மைச் சுட்டுக்கள், வினாச் சுட்டுக்களின் பின்

அந்த + காலம் = அந்தக் காலம்
இந்த + சிறுவன் = இந்தச் சிறுவன்
எந்த + பையன் = எந்தப் பையன்

அப்படி, எப்படி, இப்படி என்னும் சொற்களின் பின்

அப்படி + கேள் = அப்படிக் கேள்
இப்படி + சொல் = இப்படிச் சொல்
எப்படி + பார்ப்பது = எப்படிப் பார்ப்பது

இரண்டாம் வேற்றுமை அசை உருபுக்குப்பின் (ஐ)

அவனைக் கண்டேன்
செய்யுளைச் சொன்னேன்
அவளைத் தேடினேன்
குறளைப் படித்தேன்

நான்காம் வேற்றுமை உருபுக்குப்பின் (கு)

அவனுக்குக் கொடுத்தேன்.
அவளுக்குச் சொன்னேன்.

என, ஆக என்ற சொற்களுக்குப்பின்

எனக் கூறினான்.
அவனாகச் சொன்னான்.

வல்லெழுத்து மிகா இடங்கள்


அது, இது, எது என்னும் சொற்களின் பின் 

அது காண்  
எது செய்தாய்  
இது பார்   

ஏது, யாது என்னும் சொற்களின் பின்

ஏது கண்டாய்
யாது பொருள்

அவை, எவை, இவை, யாவை

அவை பெரியன 
யாவை போயின

அத்தனை, எத்தனை, இத்தனை

அத்தனை செடி
எத்தனை பசு
எத்தனைப் பசு.

அவ்வளவு, எவ்வளவு, இவ்வளவு

அவ்வளவு தந்தாய்
எவ்வளவு செய்தாய்
இவ்வளவு துணிவு

அங்கு, எங்கு, இங்கு என்னும் சொற்களின் பின்
(இஃது எழுவாய்த்தொடர் ஆகையால் மிகாமலும், குற்றியலுகரச் சுட்டு ஆதலின் மிக்கும் வரும்)

அங்கு செல்
எங்கு கற்றாய்
இங்கு பார்

சில மென்றொடர்க்குற்றியலுகரத்திற்குப்பின் 

அன்று சொன்னான்
சங்குபட்டி
என்று தந்தான்
இன்று கண்டான்
மென்று தின்றார்
வந்து சேர்ந்தான்

சில வினையெச்ச விகுதிக்குப்பின்

நடந்து சென்றான் 
தந்து போனான்
சென்று திரும்பினான்


நன்றி 🙏🙂















एकांकी

नमस्ते और नमस्कार - अन्तर

 नमस्ते और नमस्कार दोनों ही हिंदी में सम्मान और आदर के प्रतीक हैं, लेकिन इनमें कुछ अंतर हैं: नमस्ते (Namaste) नमस्ते एक पारंपरिक हिंदू अभिवा...